यथार्थ और कल्पना के बीच झूलती रही “सुपर 30”

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‘सुपर 30’ देखकर एक बात यह समझ में आती है कि लॉजिक सिर्फ मैथमेटिक्स में ही नहीं होता, किस्सा-कहानी सुनाने के लिए भी तर्क चाहिए। रीज़निंग को जीवन में सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठापित करने वाली यह फिल्म उसी में जगह-जगह मात खाती है।

अभिनेता के चयन पर पहले भी खूब चर्चा हो चुकी है। बिहारी एक्सेंट और एक गरीब पोस्टमैन के ‘ग्रीक गॉड’ जैसे बेटे को हम अपवाद मान लेते हैं। हम यह भी मान लेते हैं कि आनंद सर गणित के सवाल हल करने से पहले वर्जिश भी करते होंगे। यह बड़ी समस्या नहीं है क्योंकि कुल मिलाकर ऋतिक एक बेहतर एक्टर हैं। उनकी हर फिल्म शो-केस में लगी ट्राफियों की तरह है। यहां भी उन्होंने मेहनत की है। अपनी बॉडी लैंग्वेज पर काम किया है जो स्क्रीन पर दिखता है।

दिक्कत कहानी में है। इस वक्त तक हिन्दी सिनेमा के दर्शक का जो ज़ेहन विकसित हुआ है, वह कल्पना को कल्पना और यथार्थ को यथार्थ की तरह देखना चाहता है। वह यथार्थ में कल्पना का घालमेल नहीं देखना चाहता।

निर्देशक ने दृश्यों में भव्यता और करुणा रचने के चक्कर में तर्क को एक किनारे रख दिया है। एक मैथमेटिशियन को पिता की मौत के बाद पापड़ क्यों बेचने पड़ते हैं? जबकि फिल्म बताती है कि शहर में कोचिंग का धंधा जबरदस्त चल रहा है। साइंस और गणित के हर अच्छे जानकार को हमने बचपन से रोजी-रोटी के लिए ट्यूशन पढ़ाते देखा है। तो आनंद को यह बात क्यों नहीं कौंधती। दूसरे जिस व्यक्ति ने आनंद को सहारा दिया और उसे स्टार बनाया उसे कोई सैद्धांतिक टकराव के बिना छोड़ना और दुश्मनी मोल लेना समझ में नहीं आया। सामान्य बुद्धि तो यही कहती है कि वह पहले चरण में कोचिंग से जुड़े रहकर भी गरीब बच्चों की मदद कर सकता था।

दूसरे यह कैसे संभव हुआ कि मुफ्त कोचिंग के नाम पर गरीब घरों के बच्चे ही परीक्षा देने आए। आनंद की लोकप्रियता को देखते हुए और फ्री-कोचिंग के कांसेप्ट से तो होना यह चाहिए था कि हर कोई बहती गंगा में हाथ धोने का प्रयास करता। जब सरकारी सिस्टम चकमा खा जाता है तो नायक के पास ऐसा कौन सा तरीका था जिसके आधार पर उसने यह तय किया कि पात्र लोग ही परीक्षा दे रहे हैं।

यह फिल्म अपनी मूल स्थापना में ‘राजा का बेटा ही राजा बनेगा’ अवधारणा के विरोध में खड़ा होना चाहती है। इसके लिए राजकपूर वाले जमाने का रोमांटिक यथार्थवाद का सहारा लेती है। यानी यहां पर गरीबी भी फिल्मी और मेलोड्रामेटिक है। मगर तब फिल्में स्टूडियों में शूट होती थीं और अभिनय थिएट्रिकल होता था। सिर्फ रियलिस्टिक लोकेशन पर शूट करने से फिल्म यथार्थपरक नहीं हो जाती। क्लाइमेक्स तो काफी अविश्वसनीय है। उसके बारे में अलग से चर्चा करने का कोई फायदा नहीं।

इस शैली की सार्थक फिल्में राजकुमार संतोषी ने खूब बनाई हैं। ‘लज्जा’ और ‘हल्ला बोल’ इस मेलोड्रामेटिक यथार्थवाद की शैली में बनी बेहतरीन फिल्में हैं। लेकिन एक सूझबूझ वाले निर्देशक होने के बावजूद संतोषी सिनेमा में यथार्थ के बदलते प्रस्तुतीकरण और दर्शकों के मिजाज को भांप नहीं सके, नतीजा उनकी फिल्में बासी लगने लगीं और बतौर निर्देशक उन्हें इसका नुकसान उठाना पड़ा।

‘थ्री ईडियट्स’ हमारे एजुकेशन सिस्टम की भेड़चाल के खिलाफ और मौलिक प्रतिभाओं को पहचानने के पक्ष में खड़ी थी। शायद यही वजह है कि वह फिल्म निर्विवाद रूप से बीते कई सालों से सबसे लोकप्रिय हिन्दी फिल्मों में से एक है। मगर ‘सुपर 30’ अंततः उसी भेड़चाल के साथ खड़ी होती है। इस फिल्म को देखकर निकले ज्यादातर अभिभावक मन में अपने बेटे-बेटी को आईआईटी में भेजने का सपना लेकर निकलेंगे। जिसे विश्व के सबसे मुश्किल परीक्षा का खिताब हासिल है और जिसका एक्सेप्टमेंट रेट महज 0.7 प्रतिशत है।

इसी आईआईटी की तैयारी के लिए फैक्टरी में बदल चुके शहर कोटा के खाते में 5 साल में 73 आत्महत्याएं दर्ज हैं और हर साल ये नंबर बढ़ते जा रहे हैं। यहीं 17 साल की एक लड़की पांचवीं मंजिल से कूदकर सुसाइड करने से पहले अपने 5 पन्नों के सुसाइड नोट में सरकार से इन कोचिंग संस्थानों को बंद की अपील करती है।

सिनेमा ने भी इन विडंबनाओं को दर्ज करना शुरू किया है। पिछले साल हेमंत गाबा की डाक्यूमेंट्री ‘एन इंडीनियर्ड ड्रीम’ इसी दुनिया की छानबीन करती है। राघव सुब्बू की वेब सिरीज ‘कोटा फैक्टरी’ भी हल्के-फुल्के तरीके से इस समस्या को देखने का प्रयास करती है। ‘सुपर 30’ एक नायक के भले इरादों की कहानी जरूर है मगर वह मौजूदा शिक्षा व्यवस्था पर कोई सवाल नहीं खड़ा करती।

अमीरी-गरीबी और प्रतिभा की बात करती ‘सुपर 30’ अपनी नीयत में सही है लेकिन जो कहना चाहती है उसे लेकर कन्फ्यूज्ड है और जो कुछ भी, जैसे-तैसे, कह पाई है, उसे विश्वसनीय नहीं बना सकी।

(दिनेश श्रीनेत इकोनामिक्स टाइम्स के पोर्टल में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं।)

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