बलराज साहनी एक जनप्रतिबद्ध कलाकार, हिन्दी-पंजाबी के महत्वपूर्ण लेखक और संस्कृतिकर्मी थे। जिन्होंने अपने कामों से भारतीय लेखन, कला और…
‘थप्पड़’ के बहानेः महिला हिंसा के खिलाफ मुहिम की जरूरत
मैं फिल्म समीक्षक नहीं हूं, लेकिन फिल्म ‘थप्पड़’ को लेकर मेरे मन के भीतर कुछ उमड़ घुमड़ रहा है। डायरेक्टर…
उपभोक्तावादी सौंदर्य दृष्टि को दरकिनार करती है ‘छपाक’
‘छपाक’ इस मायने में साहसिक फिल्म है कि यह हिंदी फिल्मों और समाज में दूर तक छाई हुई उपभोक्तावादी सौंदर्य…
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
कला मनुष्य को एक ऐसी दुनिया से साक्षात्कार कराती है,जिसमें वह सबकुछ दिखता है,जो अमूमन दिखायी पड़ने वाली दुनिया में…
हमने कभी नहीं कहा था कि हम सबको सरकारी नौकरी देंगे। हम ये अभी भी नहीं कह रहे हैं: रविशंकर प्रसाद
धीरज रखें। इस पंक्ति को पढ़ते ही अधीर न हों। यह मेरे लेख के सबसे कम महत्वपूर्ण बातों में से…
पत्रकार प्रभात शुंगलू का प्रसून जोशी को खुला ख़त
(मॉब लिंचिंग के मसले पर 49 बुद्धिजीवियों, फिल्मकारों और समाज शास्त्रियों के लिखे खत के जवाब में 60 दूसरे लोगों…
यथार्थ और कल्पना के बीच झूलती रही “सुपर 30”
‘सुपर 30’ देखकर एक बात यह समझ में आती है कि लॉजिक सिर्फ मैथमेटिक्स में ही नहीं होता, किस्सा-कहानी सुनाने…