Friday, March 29, 2024

judiciary

प्रतिबद्ध न्यायपालिका: इंदिरा गांधी का आपातकालीन सपना मोदी राज में हो रहा है साकार

करीब साढ़े चार दशक पहले आपातकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तो महज मंशा जाहिर की थी कि न्यायपालिका को सरकार के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए, लेकिन उनकी यह मंशा पिछले कुछ वर्षों से मूर्तरूप लेती दिख...

बग्गा केस: ऐसी भी क्या जल्दी थी मी लॉर्ड?

उत्तर प्रदेश के एक न्यायायिक अधिकारी के मामले में उच्चतम न्यायालय के जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस बेला एम त्रिवेदी की पीठ ने बीते शुक्रवार को कहा था कि न्यायिक आदेश पारित करने की आड़ में किसी पक्ष को...

अब हिंदू-मुस्लिम के आधार पर होता अदालती न्याय

अहमदाबाद : 26 जुलाई 2008 को 70 मिनट में 21 जगह सीरियल बॉम्ब ब्लास्ट से अहमदाबाद ही नहीं पूरा देश दहल गया था। 13 साल 6 महीने के बाद अहमदाबाद सेशन कोर्ट के जज अंबालाल आर. पटेल ने 38...

कोर्ट में विवादित टिप्पणियां -5: जस्टिस नजीर ने न्यायिक व्यवस्था में मनु का नाम लेकर बर्रे के छत्ते में हाथ डाला

वर्ष 2021 के जाते-जाते उच्चतम न्यायालय के जज जस्टिस एस अब्दुल नजीर ने भी न्यायिक व्यवस्था के भारतीयकरण की अवधारणा में मनु, कौटिल्य जैसे प्राचीन भारतीय कानूनी दिग्गजों की उपेक्षा और औपनिवेशिक कानूनी व्यवस्था का अनुपालन संवैधानिक लक्ष्यों के...

कॉलेजियम प्रणाली से कैसे-कैसे जजों की हो रही है नियुक्ति?

जब से जजों की कालेजियम प्रणाली से नियुक्ति हो रही है तब से ऐसे ऐसे जजों की नियुक्तियां हो रही हैं जो पूरी न्यायपालिका को अपनी अनर्गल टिप्पणियों से शर्मसार कर रहे हैं। एक बार उच्च न्यायालय में स्थायी...

अन्यायी और अत्याचारी सिस्टम पर ‘जय भीम’ का पर्दा

"जय भीम" फ़िल्म आजकल चर्चे में है। जो भी इस फ़िल्म को देख रहा है। वो अपने-अपने अंदाज में फ़िल्म की समीक्षा लिख रहा है। संशोधनवादी कम्युनिस्ट पार्टियां जिनको किसी फिल्म में बस लाल झंडा दिख जाए या किसी दीवार पर पोस्टर या दराती-हथौड़ा का निशान दिख जाए, बस इसी बात से वो फ़िल्म को कम्युनिस्ट फ़िल्म घोषित कर देते हैं।इस फ़िल्म को देख कर भी ऐसे कम्युनिस्ट लोट-पोट हो रहे हैं। इस फ़िल्म को संशोधनवादी कम्युनिस्टों ने बेहतरीन फ़िल्म बताया है वहीं कुछेक कम्युनिस्टों ने इसकी सार्थक आलोचना भी की है।   इसके विपरीत लाल झंडा देखकर ही विदकने वाले या डॉ अम्बेडकर के नाम को सिर्फ जपने वाले इस फ़िल्म के खिलाफ ही बात कर रहे हैं। उनको इस फ़िल्म की कहानी पर चर्चा करने की बजाए आपत्ति इस बात से है कि पूरी फिल्म में डॉअम्बेडकर की न कहीं फोटो है, न अम्बेडकर पर चर्चा है।इसके विपरीत कम्युनिस्टों के झंडे हैं, लेनिन हैं, मार्क्स हैं लेकिन कहीं भी अम्बेडकर नहीं हैं।इसलिए ये सब फ़िल्म के खिलाफ खड़े हैं।इनका फ़िल्म निर्माता पर ये आरोप कि  फ़िल्म का नाम "जय भीम" सिर्फ लोकप्रिय नारे "जय भीम" को भुनाने के लिए रखा गया है। मूर्खता की चरम सीमा है। फ़िल्म की कहानी एक सच्ची घटना पर आधारित है यह फिल्म 1993 में हुई सच्ची घटना से प्रेरित है।इरुलर जनजाति के राजाकन्नू नाम के एक व्यक्ति को चोरी के झूठे मामले में फंसाया जाता है। फ़िल्म दक्षिण भारत की ‘इरुलर’जाति के उन आदिवासी लोगों की कहानी कहती है जो चूहों को पकड़कर खाते हैं। मलयालम में इरुलर का शाब्दिक अर्थ "अंधेरे या काले लोग" है। वास्तव में यह मामला कोरवा जनजाति के लोगों के पुलिस द्वारा किए गए उत्पीड़न का था। पीड़ित की पत्नी सेनगेनी वकील चंद्रू के पास मदद के लिए जाती है और पुलिस हिरासत में दी गई यातना चंद्रू के लिए एक चुनौतीपूर्ण और ऐतिहासिक कानूनी लड़ाई बन गई। चंद्रू बाद में मद्रास हाई कोर्ट के जज भी रहे। मद्रास हाईकोर्ट ने इस केस का फैसला 2006 में सुनाया था।   "जय भीम" का फिल्माकंन व एक्टिंग काबिले तारीफ है। फ़िल्म को 4.5 स्टार रेटिंग मिली है। फ़िल्म में दिखाया गया अमानवीय अत्याचार जो आम आदमी के रोंगटे खड़ा कर देता है। लेकिन असलियत जिंदगी में सत्ता, पुलिस व तथाकथित उच्च जातियों ने सदियों से गरीब, दलित, आदिवासियों पर अत्याचार किये हैं व वर्तमान में भी ये अत्याचार जारी हैं। फ़िल्म देख कर जिस दर्शक के रोंगटे खड़े हो रहे हैं। जब उस दर्शक के इर्द-गिर्द अत्याचार हो रहे होते हैं, उस समय उसको ये अत्याचार कभी नहीं दिखायी देते हैं। बस फ़िल्म में ही दिखाया जाए, तभी ये अत्याचार उसको दिखायी देते हैं।   अगर दर्शक को असली सिस्टम के ये अत्याचार दिखते तो सोनी सोरी दिखतीं, तेजाब से जलाया उनका चेहरा दिखता, अनगिनत आदिवासी महिलाएं दिखतीं, जिनकी फोर्स के जवानों ने बलात्कार के बाद हत्या कर दी या जेलों में डाल दिया। हजारों आदिवासियों के सलवा जुडूम के गुंडों द्वारा जलाए गए मकान दिखते, फोर्स द्वारा आदिवासियों का हर रोज होता जन संहार दिखता, पुलिस लॉकअप में होते बलात्कार दिखते, हर रोज देश के किसी न किसी थाने के लॉकअप में पुलिस द्वारा की गई हत्या दिखती, हरियाणा के मिर्चपुर व गोहाना की वो दलित बस्ती दिखती, जिसको जातिवादी गुंडों ने जला दिया था। लेकिन आपको ये सब नहीं दिखेगा क्योंकि आपको अत्याचार बस तब दिखता है जब कोई फिल्मकार उसको आपके सामने पर्दे पर पेश करे। पर्दे पर दिखाए अत्याचार को देख कर आप थोड़े भावुक होते हो, ये ही आपकी असलियत है।  फ़िल्म इस दौर में कहना क्या चाहती है...   फ़िल्म निर्माता ने फ़िल्म का नाम "जय भीम" बड़े ही शातिराना तरीके से रखा है। किसी भी मुल्क में न्याय प्रणाली का चरित्र मुल्क में स्थापित सत्ता के चरित्र जैसा होता है। जैसी सत्ता वैसी ही न्याय प्रणाली।भारत की न्याय प्रणाली का चरित्र भी भारतीय सत्ता के चरित्र जैसा ही अर्ध सामंती-अर्ध पूंजीवादी है। सत्ता अगर थोड़ी सी प्रगतिशील होती है तो न्याय प्रणाली भी प्रगतिशील दिखती है। वर्तमान में सत्ता धार्मिक फासीवादी है तो न्याय प्रणाली का भी चरित्र धार्मिक फासीवाद है।   भारत मे न्याय प्रणाली किसी भी दौर में दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, गरीब व महिला हितैषी नहीं रही। यहाँ सामंती जातीय सेनाओं ने अनेकों बार दलितों की बस्तियां जलाई, नरसंहार किये। आदिवासियों, कश्मीरियों, असमियों के...

प्रदूषण के असली गुनहगारों की जगह किसान ही खलनायक क्यों और कब तक ?

इस देश में वर्तमान समय की राजनैतिक व्यवस्था में किसान और मजदूर तथा आम जनता का एक विशाल वर्ग सबसे दीन-हीन और कमजोर वर्ग है,क्योंकि सत्ता के कर्णधार अपने लाडले पूँजीपतियों के लिए ही अपनी सारी नीतियों को बनाते...

जजों पर शारीरिक ही नहीं सोशल मीडिया के जरिये भी हो रहे हैं हमले:चीफ जस्टिस

चीफ जस्टिस एनवी रमना ने कहा है कि सामान्य धारणा कि न्याय देना केवल न्यायपालिका का कार्य है, यह सही नहीं है, यह तीनों अंगों पर निर्भर करता है। विधायिका और कार्यपालिका द्वारा किसी भी नजरअंदाजी से न्यायपालिका पर...

भारतीय न्यायपालिका की सामंती संस्कृति के क्या मायने हैं मी लार्ड!

भारत की वर्तमान न्यायिक प्रणाली की उत्पत्ति का स्रोत एक प्रकार से न्यायपालिका की औपनिवेशिक प्रणाली में देखा जा सकता है जो कमोबेश स्वामी-सेवक के दृष्टिकोण से स्थापित की गई थी, न कि जनता के दृष्टिकोण से। इसके अलावा...

लोकतंत्र में ‘शासक’ नहीं कानून का चलता है राज

गत दिनों गोरखपुर में मनीष गुप्ता की पुलिस द्वारा नृशंस हत्या की तरह आज लखीमपुर खीरी में भी किसानों के बर्बर हत्याकांड को संभव करने वाली यूपी पुलिस का ‘ठोक दे’ब्रांड मुंह छिपाता फिर रहा है। यह रोज नहीं...

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ग्रेट निकोबार द्वीप की प्राचीन जनजातियों के अस्तित्व पर संकट, द्वीप को सैन्य और व्यापार केंद्र में बदलने की योजना

आज दुनिया भर में सरकारें और कॉर्पोरेट मुनाफ़े की होड़ में सदियों पुराने जंगलों को नष्ट कर रही हैं,...