वर्तमान सरकार ने एनसीईआरटी पुस्तक से भारतीय इतिहास के कुछ महत्वपूर्ण चैप्टर को हटा दिया है। तर्क यह है की बच्चों पर पढ़ाई का बोझ कम करना है। चैप्टर हटाने और ऐसे कुतर्कों के पीछे छिपी मंशा को समझना बेहद जरूरी है कि भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण कालखंड- राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, जनांदोलन की उत्पत्ति और मुगल काल से जुड़ी जानकारियों- को बच्चों, छात्रों, पाठकों और आने वाली पीढ़ियों से क्यों छिपाया जा रहा है?
एनसीईआरटी को शिक्षण क्षेत्र में अभिलेख माना जाता है। तथ्यात्मक और अवधारणात्मक प्रमाणिकता का दस्तावेज माना जाता है। ऐसे में इतिहास से छेड़छाड़ कर अपने पसंदीदा व्यक्ति की महिमा स्थापित करना सत्ता का दुरुपयोग है।
आज जबकि बच्चों को तकनीकी शिक्षा के लिए कोडिंग-डिकोडिंग, वेब डिजाइनिंग, जावा, काफ्का, स्प्रिंगबूट, एनीमेशन, एथिकल हैकिंग जैसे नए नए पाठ्यक्रम सिखाए जा रहे हैं, जो कि ग्लोब्लाइजेशन और आधुनिकता के लिए बहुत जरूरी हैं, तो मुगल और गांधी को पढ़ने में ऐसा कौन सा बोझ बच्चों पर पर जाएगा? यह बताना ज्यादा जरूरी है कि आजकल के बच्चे लर्निंग एबिलिटी में पुरानी पीढ़ियों से कई गुणा ज्यादा सक्षम हैं। वो कई काम कई गुणा स्पीड से कर सकते हैं।
कुछ अवधारणाएं जनमानस में साजिशन या मूर्खतापूर्ण तरीके से बिठाई गई हैं।
1- मानविकी और कलाविज्ञान पढ़ने वाले छात्र कमजोर होते हैं।
2- इतिहास/कला/साहित्य पढ़ने की जरूरत क्या है? यह जीविकोपार्जन/अर्थोपार्जन का बढ़िया विकल्प नहीं है।
विद्वानों को यह पता है कि अंग्रेजों द्वारा व्हाइट बर्डेन थ्योरी के तहत कोलोनियल हिस्ट्री लिखी और पढ़ाई जाती थी, जो उनके साम्राज्य के लिए जनमानस और आधार बनाता था। (कुछ ऐसा ही काम वर्तमान सरकार करना चाह रही है, जिसमें दक्षिणपंथी अवधारणा को फिट किया जा रहा है) फिर उसके विरुद्ध राष्ट्रवादी और मार्क्सवादी इतिहास लिखा गया। जिसमें भारतीय परंपरा, सभ्यता, संस्कृति को भी बताया गया है जो मानवीय विकास की गाथा है। जिसे अगर नहीं जाना गया तो हम अपने अस्तित्व को समझ ही नहीं पायेंगे।
समाजशास्त्र और इतिहास में सभ्यता और संस्कृति का अध्ययन महत्पूर्ण है। जिसमें एक दूसरे संस्कृति के साथ संघर्ष और सामंजस्य के साथ साथ तकनीकी विकास सीखते और उपयोग करते हुए सभ्यता बनती गई।
भारत सहित विश्व के कई देशों में दक्षिणपंथी विचारधारा की ओर लोगों और मतदाताओं का रुझान बढ़ा है। ऐसा अनायास नहीं हुआ है। इसके पीछे एक सोची समझी साजिश है।
शिक्षा का मतलब केवल और केवल तकनीकी ज्ञान है परंतु केवल तकनीकी नहीं, हम और समाज मशीन नहीं हो सकते। क्योंकि मानव होना मानवीयता से युक्त होना है। आज पूंजीवादी सोच और व्यवस्था से अमीरी और गरीबी की खाईं बढ़ती जा रही है। तकनीकी ज्ञान वाले पूंजीपतियों के नौकर बनकर काम करते हैं। वो मानविकी के मुद्दों से जुड़े सवाल खड़े नहीं कर सकते। उन्हें मानवीय शोषण और गैरबराबरी का मतलब समझ नहीं आता।
तकनीकी ज्ञान वाले मानवीय संवेदनाओं, समस्याओं का समाधान नहीं दूंढते। यही कारण है बड़े बड़े डॉक्टर, इंजीनियर, एनआरआई दक्षिणपंथी पूंजीवादी विचारधाराओं के पक्ष में दिखते हैं, क्योंकि उनका इतिहास और सामजिक ज्ञान न्यूनतम है। यह पूंजीवादी शिक्षण पद्धति की समस्या और साजिश है। कॉरपोरेट शिक्षा व्यवस्था ने इन्हें अपने हिसाब से ट्रेंड कर मशीन बना दिया है। ताकि उनके लिए तकनीकी श्रमिक बन सकें।
जबकि पूरा विश्व इतिहास भरा पड़ा है, चाहे फ्रांस की क्रांति के आधार स्तंभ फिलॉसफर इमेनुअल कांट हो या भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायक महात्मा गांधी, शहीदे आज़म भगत सिंह, स्वामी विवेकानंद या अंबेडकर वैचारिक क्रांति कर गए। अलबर्ट आइंस्टाइन गांधी के, विद्युत बल्ब बनाने वाले निकोला टेस्ला विवेकानंद के बड़े प्रशंसक थे। भारत रत्न पूर्व राष्ट्रपति मिसाइलमैन अब्दुल कलाम तकनीकी महारथी होते हुए भी मानविकी फिलॉसफर बन गए। तकनीकी मनुष्य और मानवता का सहयोगी हो सकता है, विकल्प नहीं। तकनीकी क्रांति, सामाजिक क्रांति नहीं कर सकती जबकि सामाजिक क्रांति, तकनीकी क्रांति पैदा कर सकती है।
आज प्रशासनिक अधिकारियों को जो निर्णय लेने पड़ते हैं उनमें मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक पक्षों पर ज्यादा ध्यान होना चाहिए जबकि सरकार ऐसा नहीं चाहती। मौजूदा दौर में कहा जाता है कि महत्वपूर्ण पदों और राजनीति में पढ़े लिखे व्यक्ति होने चाहिए, क्योंकि उन्हें सामूहिक हित में निर्णय लेना होता है और इन निर्णयों के परिणाम-दुष्परिणाम लोगों को भुगतने होते हैं। प्रशासनिक दृष्टिकोण से 2 शब्द को रेखांकित किया जाता है- ब्यूरोक्रेट, टेक्नोक्रेट- हमें इन दोनों के बीच प्रो-पीपल जेनरोक्रेट पैदा करना चाहिए।
महात्मा गांधी की हत्या के पीछे जो ताकतें काम कर रही थीं उनके समर्थक विचारधारा के लोग अभी सत्ता में हैं। स्पष्ट है गांधी की हत्या के सवाल और मुद्दे पर वो निरूतर हो जाते हैं। इसलिए इस सवाल को दफन करने के उद्देश्य से महात्मा गांधी से जुड़े चैप्टर हटाए जा रहे हैं। राजतंत्र, साम्राज्यवाद और तानाशाही सत्ता कभी भी जनांदोलन को पसंद नहीं करते। महात्मा गांधी इन तीनों व्यवस्था के विपक्ष में खड़े दिखई पड़ते हैं। इसलिए सत्ता महात्मा गांधी को पढ़ाया जाना उचित नहीं समझती।
मुगल काल जिसने भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, प्रशासनिक क्षेत्र, मनसबदारी प्रथा, भूमि बदोबस्ती टोडरमल, शेरशाह का टांका/रुपया, डाक व्यवस्था, स्थापत्य कला के क्षेत्र में लालकिला, ताजमहल, अकबर के विरुद्ध महाराणा प्रताप की लड़ाई और वीरता का बखान, औरंगजेब के विरुद्ध शिवाजी की लड़ाई कैसे पढ़ाई जाएगी अगर मुगलकाल को नहीं पढ़ाया जाएगा?
बीरबल के बुद्धिमत्ता और सेनापति मानसिंह के नेतृत्व को कैसे समझा जाएगा अगर मुगल काल नहीं पढ़ाया जाएगा? क्या भगवान राम का महत्व रावण से अलग करके बताया जा सकता है? फिर हम रावण का पुतलादहन करके जनता को क्यों बताते हैं? और सबसे बड़ी बात किताबों के पन्नों से किसी को हटा देने के बाद व्यक्ति मिट नहीं जाता। भारत मौखिक कथाओं प्रवचन से भी ज्ञान बांटने वाला देश है। इसलिए सत्ताधीश को इस गलतफहमी से बचना चाहिए की मुगलों का इतिहास मिटा देंगे, गांधी की हत्या के पीछे साज़िश को छुपा लेंगे। अब दुनिया ग्लोबल है, स्कूल में नहीं पढ़ने देंगे तो कई और स्रोत है।
विद्वानों और शिक्षाविदों का मानना है कि बड़े से बड़े तकनीकी विशेषज्ञ भी व्यक्तिगत क्षणों में गीत, गजल, शायरी, नज़्म, कविता, कहानियों का आनंद लेते हैं उससे प्रेरणा भी लेते हैं, सीखते हैं। इसलिए इतिहास, साहित्य, सामाजिक विज्ञान की आधारभूत समझ विकसित करने का विकल्प सबके पास होना चाहिए। साइंटिस्ट और प्रशासनिक अधिकारियों के प्रशिक्षण में भी साहित्य और इतिहास के कालजई वर्णन पढ़ाया जाना चाहिए, यहां तक की न्यायिक व्यवस्था में भी।
कार्ट राइट ने एयरोप्लेन को चित्रकारी से प्रेरणा लेकर अविष्कार किया था यानी कला से विज्ञान, कला भी एक विज्ञान है विज्ञान भी एक कला है। रामायण का पुष्पक विमान कला की कल्पना है। महाभारत का संजय कथा वाचन टेलीविजन का कलात्मक परिचय। इसलिए मानविकी पढ़ने वाले कमज़ोर छात्र नहीं होते यह रुचि और उद्देश्य का मामला है। शिक्षा को नियंत्रित नहीं करना चाहिए।
(अंगेश कुमार का लेख)
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