आम चुनाव का सातवां चरण बाकी है अभी समर शेष है; जागते रहो

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आम चुनाव 2024 का छठा चरण पूरा हो चुका है। अब सातवां और आखिरी चरण 1 जून 2024 को होना है। इस तरह से 2024 में भारत की संसद के लिए सप्तपदी चुनाव संपन्न हो जायेगा। चुनाव को ‘सप्तपदी’ बनाने के पीछे केंद्रीय चुनाव आयोग (ECI) का क्या इरादा था कहना बहुत मुश्किल है, लेकिन समझना उतना मुश्किल नहीं है। खैर, संतोषजनक बात यही है कि अब तक चुनाव लगभग शांति-पूर्वक संपन्न हुआ है। उम्मीद है कि सातवां और आखिरी चरण भी स्वाभाविक शांति के साथ संपन्न हो जायेगा। इस ‘स्वाभाविक शांति’ का श्रेय जनता और विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) को ही दिया जायेगा। चुनाव संघर्ष के लिए समान अवसर (Level Playing Field)‎ प्रदान कराने के प्रति केंद्रीय चुनाव आयोग (ECI) के रवैया और सत्ताधारी दल के द्वारा आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct)‎ के उल्लंघन की अपनी शिकायत की उपेक्षा पर विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) ने सराहनीय सब्र से काम लिया। विपरीत राजनीतिक परिस्थितियों में जिस राजनीतिक साहस, सूझ-बूझ और जीवट के साथ विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) चुनावी मुकाबला कर रहा है, उसकी सराहना की ही जानी चाहिए।

भिन्न और विपरीत परिस्थितियों में संपन्न यह चुनाव कई अर्थों में अति-महत्वपूर्ण है। विपक्ष की राजनीति के प्रति सत्ताधारी दल और सरकार के शत्रुवत व्यवहार की बात अपनी जगह। अपने दल और अपने सामने करबद्ध होनेवाले को, नत-सिरनयन होनेवाले को, अनुगत नौकरशाही को नरेंद्र मोदी पूरी तरह से ‘अपना’ बना लेते हैं। अनुरोध और अपील के विनम्र रैपर में लपेटकर ‎‘संस्कारी तानाशाही’‎ को लोगों के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए कमाल की कुशलता से काम लेने के मामले में नरेंद्र मोदी बेमिसाल रहे हैं। इस ‎‘संस्कारी तानाशाही’‎ का वास्तविक अर्थ उन्हीं की समझ में आता है जो ‘विनम्र रैपर’ को खोलने की कोशिश करते हैं। हिंदु-मुसलमान इनका एक और रैपर है। इसी रैपर में लपेटकर ‎‘संस्कारी राष्ट्रवाद’‎ की नफरती बयान (Hate Speech) का उफान तैयार किया जाता रहा है।

‎‘संस्कारी तानाशाही’‎ और ‎‘संस्कारी राष्ट्रवाद’‎ की अतार्किक और कुत्सित बयानबाजी ने मिलकर संसदीय राजनीति के बौद्धिक और भावनात्मक बुनियाद को तहस-नहस कर दिया। जनप्रतिनिधियों का नरेंद्र मोदी के प्रतिनिधि में बदल जाना देश के लिए थोड़ा विकास और बहुत अधिक क्षयशीलता का कारण बन गया। हद तो‎ यह है कि खुद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी भी इस क्षयशीलता की चपेट में पड़ने से बच नहीं पाये। इस अर्थ में जो ‘अपना’ न बने या ‎‘अपना’‎ बना नहीं रह पाये उनके खिलाफ युद्ध छेड़ने में नरेंद्र मोदी को कोई झिझक या हिचक कभी नहीं रही। ऊपरी तौर पर यह विपक्ष पर आक्रमण भले ही दिखता रहा हो, असल में यह आक्रमण उन सब पर था जिन्हें नरेंद्र मोदी ने ‘अपना’ नहीं माना।

शिखर पर पहुंच कर थोड़ी-बहुत आत्म-मुग्धता और अहंकार का आ जाना, बिल्कुल अ-स्वाभाविक नहीं होता है। ‘प्रभुता के मद’ में पड़ने से बच पाना किसी भी सामान्य मनुष्य के लिए असंभव होता है; अवतारी अहंकार के लिए तो शायद ‎‘प्रभुता के मद’ से बचने की जरूरत भी नहीं होती है। ऐसी आत्म-मुग्धता और ऐसा अहंकार कि खुद को देवता और दूसरों को ‎‘गर्हित मनुष्य’‎ मानने की मानसिकता में डाल देता है। यह मानसिकता लोकतंत्र को ‘राजनीतिक अपराधी’ के चंगुल में फंसा देती है। भारत के साथ यही हुआ! ‎याद किया जा सकता है कि इलेक्ट्रॉल बांड को माननीय सुप्रीम कोर्ट के द्वारा अ-संवैधानिक घोषित कर दिये जाने पर पश्चाताप और प्रायश्चित की हल्की नैतिक मुद्रा या लज्जा-बोध का न होना क्या कहता है?

पूर्वग्रह मुक्त मन-मस्तिष्क से सोचने पर इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत की लोकतांत्रिक सत्ता के शिखर पर पहली बार किसी ‎‘राजनीतिक अपराधी’‎ का कब्जा हो गया लगता है। देश की संपत्ति को नीतिगत माध्यम से ‘कुछ हाथ’ में अति-केंद्रित कर दिया गया और ‎‎‎‘जानबूझकर’‎ होने दिया गया। इसके व्यापक विष-प्रभाव से विषमता की खाई खतरनाक हद तक बेरोकटोक बढ़ती चली गई। कुल मिलाकर बेरोजगारी और महंगाई के असर ने जिंदा रहने की शर्त को बहुत कठिन बना दिया। जीवनयापन के सवाल का राजनीतिक सवाल बन जाना लोकतंत्र में ही नहीं, किसी भी शासन में सबसे निकृष्ट लक्षण होता है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार अपना नाम लेकर बात करते हैं। इधर यह प्रवृत्ति ‎बहुत बढ़ गई है। कभी-कभार तो चल जाता है, लेकिन बार-बार अपने को तीसरे ‎आदमी के रूप में संबोधित करना (Illeism‎) एक तरह की मानसिक ‎रुग्णता की और ‎इशारा करता है। इस इशारा में आत्म-विच्छिन्नता का ‎‎(Dissociative Identity Disorder – DID) भी शामिल है। इसे केवल शब्दालंकर ‎या शब्दाडंबर समझना भूल है। राजसत्ता हासिल करने की राजनीति तो ‎जनजीवन को प्रभावित करने के मामले में शक्ति-संयोजन की प्रक्रिया ‎‎है। राजनीति ‎में इस ‘मानसिक रुग्णता’ के पीछे की ‎‘भोली दुष्टता’‎ का नतीजा बहुत ‎खतरनाक ‎होता है। आत्म-मुग्धता और सत्ता के अहंकार के शिखर पर ‎‘भोली दुष्टता’‎ सक्रिय ‎रही है।

इस तरह की ‎‘शिखर-सक्रियता’‎ से जनजीवन के मानसिक और सामाजिक संदर्भों के ‎सबसे बुरे अर्थों में प्रभावित होने से इनकार नहीं किया जा सकता है। ‘सत्ता के ‎शिखर’ पर ‘दो’ के लिए जगह नहीं होती है। दार्शनिक शब्दावली में इसे सत्ता का ‎‎‘अद्वैत’ कहा जा रहा सकता है! ऐसे में बोध का दंभ में बदल जाना सहज मानसिक ‎परिणति होती है। यही मनःस्थिति ‘एक अकेला, सब पर भारी’‎ जैसी ‎‎‘छातीकूट’‎ ‎अभिव्यक्ति के रूप में निकलती है। विडंबना है कि ‎“संघे शक्ति कलियुगे”‎ का उद्घोष करनेवाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में दीक्षित और उसके श्रेष्ठ प्रचारक नरेंद्र मोदी इस तरह से संघ-विच्छिन्न हो गये या हो जाने दिये गये!

सत्ता के अहंकार और एकोअहं की आत्म-मुग्धता की ऐसी विकट मानसिक स्थिति में, स्वाभाविक है कि नरेंद्र मोदी के लिए “वादे वादे जायते तत्त्वबोधः। बोधे बोधे भासते चन्द्रचूडः॥” से प्रेरणा लेने की कोई बोध-शक्ति ही नहीं बची है। अपने अनुयायियों के बीच प्रेरणा की परंपरा को ‘जीवंत’ रखने के लिए बीच-बीच में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ‎‘संध्या शाखा’‎ की ‎‘बौद्धिक बैठकों’‎ की वैधता ही समाप्त हो गई होगी! क्या पता!‎ ‎‘बौद्धिक बैठकों’‎ की वैधता कैसे बची रह सकती है, जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नरेंद्र मोदी जैसा ‘श्रेष्ठ प्रचारक’ ही अपनी परिणति को प्रेरणा-हीनता से नहीं बचा पाया!

‘कांग्रेस मुक्त’ भारत की बात करते-करते राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का ‎‘श्रेष्ठ प्रचारक’‎ नरेंद्र मोदी ‘आरएसएस मुक्त भारत’ का रास्ता तैयार करने में खप गया। अब जो भारतीय जनता पार्टी चुनाव में दिख रही है, वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के ‘जनसंघ’ की उत्तरजीवी नहीं है। इस तरह से फिर एक बार साबित हो रहा है कि विध्वंस और विनाश के बीज अपने अस्तित्व के अंदर ही छिपे रहते हैं। 2024 के आम चुनाव परिणाम 04 जून 2024 को ही आयेगा लेकिन राजनीतिक परिणाम तो प्रकट हो ही गया है। यह परिणाम जिन्हें जिंदगी नहीं दिख रहा है, कल दिखेगा।

संवाद ही सत्य का वाहन होता है। संवाद ही सत्य तक पहुंचने का रास्ता बनाता है। संवाद का रास्ता बंद करना सत्य का तिरस्कार है। वैसे भी ‘अकेलापन’ संवाद की सभी संभावनाओं को समाप्त कर देता है। अपनी वैचारिक पाठशाला राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से विच्छिन्न नरेंद्र मोदी किसी वास्तविक संवाद की मनःस्थिति में नहीं रहे हैं। मटन, मछली से मुजरा और जाने किस-किस तरह की बातें चुनाव मैदान में उठाते रहते हैं! उनकी बातों को उन की मनःस्थिति से जोड़कर ही देखा जा सकता है। उन की इन बातों को लोकतांत्रिक भारत की राजनीति से जोड़कर देखना ठीक नहीं लगता है। ठीक लगे, न लगे नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं, देश में आम चुनाव का माहौल है। कहना न होगा कि ‎सार्वजनिक अवसरों पर कही उनकी बातें राजनीति से स्वतः जुड़ जाती हैं।

देश आम चुनाव के दौर में है। ‎‘बहुआयामी राजनीतिक अपराध’‎ की पोलपट्टी खुलनी शुरू हो गई है, खासकर मिली-भगत (Quid Pro Quo), इलेक्ट्रॉल बांड और प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate), जैसी कई सरकारी विभागों और संवैधानिक संस्थाओं के दुरुपयोग के उत्पीड़क दुष्प्रभाव के मामले में। जनता के बड़े अंश को ‘समझ’ में बात आ गई कि अपने ‘देवांश’ होने की बात प्रचारित करनेवाली यह ‘अवतारी महानता’ अफवाह है। ‎‘अवतारी महानता’‎ की आत्म-खंडित आत्मीयताओं के चक्कर में ‘महा नत’ होने के कारण उसके लिए सभ्य और बेहतर नागरिक जीवन की संभावनाएं लगातार धूमिल होती गई हैं। पुरखों के अर्जित लोकतंत्र में ‎‘महा नत’ होने की अपनी प्रवृत्ति के कारण ही जीवनयापन दिन-बहुत-दिन मुश्किल होता चला गया है।

आम चुनाव के कार्यक्रम के घोषित होने के दो-तीन महीने पहले तक लगता था कि तानाशाही की ओर बढ़ते पैर की शोभा बढ़ाने के लिए लोकतंत्र की ‘पैजनिया’ डालने में ही विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) कामयाब हो जाये तो बचाव की कोई उम्मीद की किरण दिख सकती है। लेकिन धीरे-धीरे राजनीतिक माहौल में तेजी से बदलाव आने लगा, तो‎ आता ही चला गया। अब तो‎ खैर, उम्मीद बहुत पुख्ता हो गई है कि विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) सत्ता परिवर्तन करने के लिए आवश्यक बहुमत भी अवश्य ही हासिल कर सकता है।

इस आम चुनाव का आधिकारिक परिणाम 04 जून 2024 को आना है। तब तक तो‎ सब्र के साथ अपनी-अपनी उम्मीदों के साथ इंतजार करना चाहिए। चुनाव परिणाम जो ‎भी आये 04 जून 2024 की तारीख तो‎ भारत के इतिहास का यादगार हिस्सा बन जायेगी। भारत ‎के लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के लिए संकल्पित इस चुनाव का ‎परिणाम ‎04 जून 2024‎ को दुनिया के सामने आ जायेगा। भारत के आम नागरिकों और ‎रहनिहारों के जीवनयापन में परिणाम के परिलक्षित होने में वक्त लगेगा। हालांकि अगले ‎पांच-छ: महीने में ‘पूत के पांव’ दिखने लग जायेंगे। तब तक इस चुनाव में हुए ‎राजनीतिक उठा-पटक को याद किया जाना आवश्यक है। ‎

स्वाभाविक है कि नागरिक समुदाय सत्ता परिवर्तन की स्थिति में सभ्य और बेहतर नागरिक जीवन की पुरजोर संभावना की तलाश बहुत व्यग्रता से करने लगेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि सत्ता हासिल करने के बाद विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) के घटक दल और उनके नेतागण राजनीतिक महत्वाकांक्षा और सत्ता के अहंकार के वश में फंस कर आत्म-ग्रस्त न हो जायेंगे। संवैधानिक प्रावधानों और लोकतांत्रिक मूल्यों के पालन के प्रति सचेत रह सकेंगे। कम-से-कम उन गलतियों को नहीं दुहरायेंगे जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना ‘जीवन-मंत्र’ बना लिया था। उम्मीद तो‎ यह भी रहेगी कि किसी भी तरह की ‘प्रतिशोधी इरादों’ से परहेज करते हुए संवैधानिक सम्मान, सावधानी और संवेदनशीलता के साथ ‎‘राजनीतिक अपराध’‎ के ‘समुचित उपचार’ किये जाने के राष्ट्रीय एवं संवैधानिक महत्व को समझा जायेगा। सत्ता परिवर्तन में ‘न्यायपत्र’ की भूमिका साफ-साफ देखी जा सकती है।

यह ठीक है कि न्याय का आयुधीकरण नहीं किया जाना चाहिए लेकिन यह जरूर ‎ध्यान रखना चाहिए कि न्याय, नैतिकता और धर्म के वैश्विक मानदंड का ‎एक बुनियादी सिद्धांत कहता है, ‘न्यायार्थ अपने बंधुओं को भी दंड देना धर्म है।’‎ यह सच है कि सामान्य नागरिक के रूप में कई बार अपनी न्यायिक अपेक्षाओं पर आघात भी महसूस होने लगता है। ऐसे में अलेक्जेंडर हैमिल्टन (1755 – 1804) की इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि, ‘न्यायपालिका राज्य का ‎सबसे कमजोर तंत्र होता ‎है। उसके पास न तो धन होता है, और न ही ‎हथियार। धन के लिए न्यायपालिका ‎को सरकार पर आश्रित रहना होता है। ‎अपने दिये गए फैसलों को लागू कराने के ‎लिये वह कार्यपालिका पर निर्भर रहती है।’

परिस्थिति परिवर्तन से न्याय-बिंदु में बदलाव नहीं हो जाता है। सत्ता परिवर्तन से लोकतांत्रिक समर समाप्त नहीं हो जाता है। नेता को ‘अधिकतम सत्ता’ मिलना लोकतंत्र के लिए काफी नहीं है। जनता को नियमित लोकतंत्र मिलना जरूरी है। अर्थात, शासन कम, सेवा अधिक। आम चुनाव का सातवां चरण बाकी है, अभी समर शेष है अर्थात जागते रहो।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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