निशाने पर सिर्फ मूर्ति भर नहीं है

मध्यप्रदेश। हाईकोर्ट की ग्वालियर खंडपीठ के परिसर में डॉ बी. आर. अम्बेडकर की मूर्ति लगाने के सवाल पर हो रहे विरोध को सिर्फ स्वयं को वकील बताने वाले चंद कुंदबुद्धि, जातिवादी, लम्पट और स्तरहीन व्यक्तियों की खुराफात समझना गलत समझदारी होगी। निशाने पर सिर्फ मूर्ति भर नहीं है, निशाने पर सिर्फ बाबा साहब भी नहीं हैं, असली निशाना भारत को कुछ हद तक रहने योग्य तथा भविष्य में बेहतरी की ओर जाने की संभावना वाला बनाने वाला वह हासिल है जिसे सैकड़ों वर्ष तक चले सामाजिक सुधार के संघर्षों और कोई नब्बे साल चले महान स्वतंत्रता संग्राम ने पाया है। 

इनके निशाने पर वह रोशनी है जो मनु की अंधेरी गुफा में सदियों तक जकड़े रहे भारत के समाज ने बड़ी मुश्किल से हासिल की है। इनके निशाने पर भारत का वह संविधान है जिसने कोई पांच सात हजार साल की सभ्यता के इतिहास में पहली बार सबकी समानता, समता की बात लिखी गयी। सबकी बराबरी के अधिकार वाले लोकतंत्र को स्थापित किया। अपनी बात कहने, असहमति और विरोध जताने, संगठित होने तथा अपनी मर्जी और पसंद का धर्म मानने अथवा कोई भी धर्म न मानने के बुनियादी अधिकार दिए भी, दिलाये भी। बाबा साहब अम्बेडकर इसको बनाने वाली संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन थे, इसलिए उन्हें इस देश की जनता ने संविधान निर्माता माना। इस प्रकार उनकी मूर्ति लगाए जाने का विरोध सिर्फ उनकी मूर्ति लगाए जाने का विरोध भर नहीं है; वे जिसके प्रतीक मान लिए गए हैं उस सबका निषेध है। 

जो इस मसले को दलित बनाम सवर्ण बताने की डेढ़ सियानपट्टी दिखा रहे हैं वे दरअसल ऐसा इसलिए कर रहे हैं ताकि अपनी बुरी नीयत और पापी इरादे को जाति की भेड़ की खाल में छुपा सकें। पृथ्वी के इस भूभाग के आदि वैद्य कहे जाने वाले चरक की उक्ति में कहा जाए तो जो  इस तरह की ‘चतुराई’  कर रहे हैं वे निस्संदेह बड़े वाले धूर्त हैं और जो इनके झांसे में आ रहे हैं, वे उनसे भी ज्यादा बड़े वाले मूर्ख हैं। अफ़सोस की बात है कि धूर्तता और मूर्खता का यह मधुमिलन उस हाईकोर्ट के परिसर में हो रहा है जिसे जनता न्याय विद्वत्ता और विवेक का परिसर मानती है। उन वकीलों के बीच, उनके नाम पर हो रहा है जिन्हें विद्वान् और समझदार तथा समाज की चेतना को आगे बढ़ाने वाला, उसे संस्कारित करने वाला माना जाता है। 

बाबा साहब की मूर्ति कोई ऐसे ही नहीं पधराई जा रही थी। किसी दूसरे का ताला तोड़कर, रात के अंधेरे में किसी दूसरे धर्म के पूजाघर में घुसकर जबरिया नहीं बिठाई जा रही थी। बाकायदा सारे नियम विधानों और उच्चतम आदेशों के समुचित क्रियान्वयन के साथ लगाई जा रही थी। यह प्रक्रिया इन राहों से गुजर कर पूरी हुई ;

  • 19 फरवरी 2025 को मप्र के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को ग्वालियर के ज्यादातर वकीलों के हस्ताक्षर से युक्त एक ज्ञापन दिया गया जिसमे डॉ.अम्बेडकर की मूर्ति लगाने का आग्रह किया गया ।   
  • 26 मार्च को उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार ने आदेश दिया कि अधिकांश वकीलों की राय को देखते हुए मूर्ति की स्थापना की जाए। 
  • इस बीच नगर निगम बनाएगी या सरकार, पैसा कहां से आयेगा वगैरा की संभावित वितंडा और आशंका से बचने के लिए स्वयं वकीलों ने कोई दस लाख रुपये इकठ्ठा करके मूर्ति का निर्माण करवा लिया। 
  • 21 अप्रैल को हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार ने पी डब्लू डी विभाग को आदेश दिया कि वह मूर्ति लगाने के लिए चबूतरे का निर्माण करे। चबूतरा बन गया । 
  • 10 मई को कुछ कथित वकीलों ने गिरोह बनाकर जहां प्रतिमा स्थापित होनी थी ठीक उस चबूतरे पर जाकर तिरंगा फहरा दिया। 

यह राष्ट्रध्वज का दुरुपयोग ही नहीं उसका अपमान और एक ऐसा अपराध भी था जिसके लिए दण्ड तक के प्रावधान है। मगर इन दिनों देश का यह दुर्भाग्य बन गया है कि जिन्होंने आजादी की पूरी लड़ाई में तिरंगे को कभी हाथ में नहीं लिया, आजादी के बाद जब इसे राष्ट्रध्वज का दर्जा मिला तो इसका विरोध किया, इसे अपशकुनी तक बताया, इसे कभी अपने देश का झंडा न मानने की घोषणाएं की, इन दिनों वे ही इस झंडे का इस्तेमाल अपने कुकर्मों, असफलताओं और कुत्सित इरादों को छुपाने के लिए कर रहे हैं। ठीक वही अदा यहां दिखाई गयी। 

  • 14 मई से- जिस गिरोह से ये ताल्लुक रखते हैं उसकी आई टी सेल के अंदाज में- सोशल मीडिया पर मुहिम छेड़ दी गयी और पोस्टरबाजी शुरू हो गयी। 
  • इसी गर्मागर्मी में 17 मई को कथित भीम आर्मी का कोई बन्दा मूर्ति लगाने का ज्ञापन देने गया तो उस पर हमला बोल दिया गया। 

हमलावर कौन थे यह खुद उन्हीं ने वायरल हुए वीडियोज में बताया है। खुद को सनातनी और हिन्दुत्ववादी बताते हुए उन्होंने दलितों को छूट गालियां दीं। उन्हें आरक्षण देकर कहां से कहां तक पहुंचाने के ताने और उलाहने दिए। उस समय जो मप्र हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे उन जस्टिस सुरेश कुमार कैथ– जो दलित भी हैं– को उनकी जाति की याद दिलाते हुए घोर आपत्तिजनक टिप्पणियां की गयीं। खुलेआम मारने, तोड़ने की धमकियां और डॉ अम्बेडकर की प्रतिमा लगने पर उसे तोड़कर गिराने की गीदड़ भभकियां तक दी गयीं। 

यह सब होता रहा और सरकार और उसका प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। मीडिया इसे वकीलों के दो समूहों के बीच का विवाद बताता रहा और इस तरह अपराध को वाद-विवाद की चादर ओढ़ाता रहा। 

कुल मिलाकर सार यह है कि बाबा साहब की मूर्ति के बहाने जो लपक रहे हैं उनके वेश या बाने पर जाने की बजाय इरादे पर जाना होगा। मिथिहासों में रावण साधु का वेश धर कर आया था। मारीच सोने का हिरण बनकर आया था। शकुनि मामा बनकर आया था। मिथकों और महा-आख्यानों में ऐसे उदाहरणों की भरमार है कि भेड़िये कोई भी रूप धरकर आ सकते हैं। इन दिनों भेड़िये संविधान को चींथने और भभोड़ने के लिए झपट रहे हैं। अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग झुण्ड छोड़ दिए गए हैं।

इस बार भेड़िए तिलक लगाकर सनातन का बाना ओढ़कर आये हैं।  

सामान्य विवेक और विधि सम्मत राज की पहली शर्त है कि इन पर मुकद्दमे दर्ज किए जाने चाहिए, इस तरह का द्वेष और गरल फैलाने वालों को यथोचित दण्ड दिया जाना चाहिए। मगर क्या यह काम वो सरकार करेगी जिसने सारे प्रोटोकॉल ताक पर रखकर सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस गवई को उनकी मुम्बई यात्रा में ओला जैसी प्राइवेट टैक्सी में बिठा दिया था? उन्हें रिसीव करने तक कोई नहीं पहुंचा था !! क्या इसलिए कि वे भारत के उंगलियों पर गिने जाने वाले ऐसे मुख्य न्यायाधीश है जो दलित समुदाय से इस पद तक पहुंचे हैं। अब जिन्होंने देश के सीजेआई के साथ इस बर्ताव की जिम्मेदारी तय नहीं की वे ग्वालियर हाईकोर्ट के मूर्ति मामले में कुछ करेंगे? नहीं।

संविधान बचाना है तो भेड़ियों को ललकारना होगा- इसी के साथ उन्हें भी पहचानना होगा जो इस तरह के भेड़ियों को पालते हैं। क्योंकि जो समाज इतिहास से सबक नहीं लेता, उसे मारीचों, शकुनियों और मनुओं की वापसी का अभिशाप झेलना पड़ता ही। लिहाजा वक़्त का तकाजा है कि जो भी संविधान और उसके बाबा साहब जैसे प्रतीकों का महत्व समझते हैं उन सबको एकजुट होना चाहिए।

(बादल सरोज लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

 

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