‘दीदी की रसोई’ की सक्सेस स्टोरी बताती है कि सरकारों के पास अभी भी सैकड़ों विकल्प मौजूद हैं!

कल 9 जून को इंडियन एक्सप्रेस ने पटना से नये संस्करण की शुरुआत के साथ नीतीश कुमार के पिछले कार्यकाल की एक ऐसी स्टोरी को अपने फ्रंट पेज पर विस्तार से छापा, जिसे देख जिस भी पाठक ने पढ़ा होगा, उसके मन में काफी आशा और उत्साह जगा होगा।

हम उस स्टोरी के बारे में संक्षिप्त जानकारी यहां साझा कर देते हैं, लेकिन साथ ही उसकी उपलब्धियों को देख राज्य सरकार ही नहीं अन्य राज्यों और केंद्र सरकार ने सबक क्यों नहीं लिए, का भी आकलन करना किसी भी जनपक्षधर पत्रकारिता का मकसद होना चाहिए।

एक्सप्रेस ने शीर्षक में ही साफ़ कर दिया है कि कैसे दीदी की रसोई ने बिहार की घरेलू महिलाओं को फूड व्यवसायी में तब्दील कर दिया है। जाहिर है, पटना से अपने संस्करण और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कर-कमलों से इसके शुभारंभ के समय एक सकारात्मक खबर आगामी विधान सभा चुनावों को देखते हुए सभी के लिए विन-विन स्थिति होगी। लेकिन, इसमें वाकई कोई शानदार उपलब्धि भी छिपी है, तो उसे ख़ारिज नहीं किया जा सकता।

खबर यह है कि 2018 में बिहार की महिलाओं के सशक्तीकरण कार्यक्रम, जीविका के तहत मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पटना पुलिस मुख्यालय में इस कार्यक्रम की शुरुआत की थी। दीदी की रसोई नामक इस पहल के तहत अभी तक प्रदेश में 225 दीदी की रसोई में 4,000 से अधिक महिलाएं रोजगारशुदा हैं। बिहार पुलिस मुख्यालय से लेकर, दीदी की रसोई सरकारी अस्पतालों, स्कूलों और सरकारी दफ्तरों में अपनी सेवाएं प्रदान कर रही है, जिन्हें प्रतिमाह 8 से 10,000 रुपये वेतनमान प्राप्त होता है।

एक्सप्रेस की खबर में कुछ महिलाओं के अनुभवों को भी साझा किया गया है, जिनमें से अधिकांश उदहारण पुलिस मुख्यालय के हैं। उदहारण के लिए 30 वर्षीय पार्वती के लिए कैंटीन में भोजन बनाना सिर्फ दैनिक दिनचर्या का हिस्सा नहीं है, बल्कि यह उनके लिए आत्मसम्मान, आजादी और सामाजिक पहचान का भी विषय है। वे कहती हैं, “पहले मैं अपने परिवार के लिए खाना बनाती थी, अब मैं खाना बनाकर कमाने लगी हूँ। वरिष्ठ पुलिस अधिकारी मेरे हाथ का बना खाना खाते हैं। कुछ तो मुझे पहचानते भी हैं। वे मुझे दीदी कहते हैं।”

पार्वती देवी आगे बताती हैं कि जीविका अभियान में 2014 से जुड़ने से पहले उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बेहद खराब चल रही थी। किसी चीज की सख्त जरूरत होने पर भी खरीदने से पहले दस बार सोचना पड़ता था। लेकिन अब वे अपनी मासिक 10,000 रूपये के वेतन से पति के आर्थिक बोझ को साझा कर रही हैं। पहले वाली स्थिति होती तो उनका परिवार अपने तीन बच्चों की शिक्षा का बोझ वहन करने की स्थिति में नहीं होता। आज उनके 15, 12 और 10 वर्ष के तीनों बच्चे स्कूल जा रहे हैं। वे यह भी साथ में जोड़ती हैं कि इससे पहले उन्होंने अपने बैंक अकाउंट में कभी 10,000 रुपये नहीं देखे थे, लेकिन दीदी की रसोई में काम कर वे अब अपने पाकशास्त्र के ज्ञान को निखार रही हैं। इतना ही नहीं, पहले वे फोन पर लिखे अक्षरों को पढ़ भी नहीं पाती थीं, लेकिन इस काम और वर्क-कल्चर के सानिध्य में आज वे अंग्रेजी भी पढ़ लेती हैं।

यानि कि इस एक अभियान ने न सिर्फ जरूरतमंद गरीब वर्ग की महिलाओं के लिए परिवार की आर्थिक मदद करने की राह खोली, बल्कि उनके भीतर आत्मविश्वास, सामाजिक बेड़ियों से एक हद तक मुक्ति के साथ-साथ निम्न वर्ग और उच्च वर्ग की साझा जरूरतों से उपजी समझ और आपसी सम्मान को भी बढ़ाने में मदद की।

इसे कुछ और दृष्टान्तों से समझते हैं। 30 वर्षीय सिंधु का विवाह 2016 में हुआ था, लेकिन एक वर्ष के भीतर ही उनके पति का देहांत हो गया। 2023 में पटेल भवन से उन्होंने दीदी की रसोई ज्वाइन की। सिंधु का कहना है, “चूँकि मैंने अपनी शुरुआत ही पुलिस मुख्यालय से की, इसलिए मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई। आजीविका कमाने के साथ-साथ पुलिस अधिकारियों के लिए काम करने से मुझे एक प्रकार की सुरक्षा का बोध भी बना रहता है।”

30 वर्षीय राबिका के पति की भी 2016 में मृत्यु हो जाने के बाद उनके ऊपर अपने तीन बच्चों का भार आ गया था, जो अब कक्षा 6, 2 और 1 में पढ़ते हैं। उन्होंने बताया, “जिस समय उनके पति की मृत्यु हुई, उस समय उनका सबसे छोटा बेटा मात्र 18 महीने का था। सास-ससुर मुझे ताना मारते थे। लेकिन जबसे मैंने दीदी के रसोई में काम करना शुरू किया है, उसके बाद से वे मुझे इज्जत देने लगे हैं। पहले मुझे लोगों से बातचीत करने में डर लगता था। आज मैं पूरे आत्मविश्वास के साथ सर्विस काउंटर संभालती हूँ।”

कुछ इसी प्रकार की कहानी 25 वर्षीय मुन्नी देवी की भी है। उनके पति गणेश पासवान, जो पेंटर का काम करते थे, की एक ट्रक एक्सीडेंट में एक पैर जाता रहा। अपंग हो जाने के चलते घर की गाड़ी रुक गई। मुन्नी का कहना है, “इस काम ने मुझे अपने पति और 6 वर्षीय बेटी का सहारा बनने का भरोसा दिया। यहां पर काम करने से मुझे ऐसा लगता है जैसे हमने एक लंबी पारी खेल ली है। मैं अनपढ़ हूँ लेकिन मेरा सपना है कि हमारी बेटी का भविष्य बेहतर होगा।”

इन चारों उदाहरणों में शामिल महिलाएं, बिहार की बहुसंख्य आबादी के समान पृष्ठभूमि से आती हैं, लेकिन उनके पास जीवन जीने की आस बची हुई है। कार्यस्थल में शामिल होने से पहले इन्हें औपचारिक प्रशिक्षण के लिए इंस्टीट्यूट ऑफ़ होटल मैनेजमेंट (हाजीपुर) से भी प्रशिक्षण दिया गया।

पुलिस मुख्यालय की इस कैंटीन का जो विवरण दिया गया है, उससे तो यही जान पड़ता है कि इन महिलाओं के काम को पुलिसकर्मियों और अधिकारियों तक से सराहना प्राप्त होती है। पूछने वाला कहता है, “आज मेनू में क्या है दीदी?” एक पुलिसकर्मी के द्वारा ऐसा व्यवहार और आदर किसी भी साधारण पृष्ठभूमि की महिला को अपनी नजर में ऊंचा बनाये रखने के लिए पर्याप्त हो सकता है।

8:30 बजे सुबह के साथ दीदी की रसोई शुरू होती है, जिसमें नाश्ते में पोहा, पूरी-सब्जी, इडली और पराठा शामिल रहता है। दोपहर के भोजन में वेज, नॉन वेज और स्पेशल थाली मिलती है। शाम के नाश्ते में पकौड़ा और चायनीज डिश सर्व किया जाता है। यहां का भोजन होटल-रेस्तरां के बजाय घर का स्वाद देता है, जिसके चलते अधिकांश पुलिसकर्मी यहीं खाना पसंद करते हैं। बड़े अधिकारी भी खाना अपने ऑफिस के लिए आर्डर करते हैं।

अब यहां पर सवाल उठता है कि क्या राज्य सरकार ने अपने जीविका कार्यक्रम का सोशल ऑडिट भी कराया? इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट को यदि सही मानें तो इन दीदियों सहित उनके परिवारों के समूचे जीवन ने इस छोटे से प्रयास ने पूरी तरह से बदलकर रख दिया है।

क्या समूचे बिहार में 225 सरकारी संस्थाएं हैं, जिन्हें पूरी तरह से अवशोषित किया जा चुका है? इससे अधिक तो बिहार में डिग्री कॉलेज और विश्वविद्यालय ही होने चाहिए। फिर शहरी क्षेत्रों में तो कई इलाकों में इसकी शुरुआत की जा सकती थी? यही नहीं, प्राइवेट कमर्शियल कॉम्प्लेक्स, कोचिंग इंस्टीट्यूट सहित ऐसे हजारों जगहें हैं, जहां पर सरकार चाहती तो दीदी की रसोई अभियान को शुरू कर लाखों विद्यार्थियों, व्यवसाइयों और औद्योगिक क्षेत्र के कर्मचारियों को साफ़-सुथरा, किफायती भोजन मुहैया कराकर लाखों जरूरतमंद महिलाओं को रोजगार प्रदान कर बिहार की किस्मत को बदल सकती थी।

फिर ऐसे विकल्प के बारे में पूरे देश के सामने खुलकर चर्चा की जानी चाहिए, और हर राज्य में इसे लागू कराना चाहिए था। सिर्फ इस एक कदम से देश में 1 करोड़ महिलाओं को रोजगार और शिक्षा एवं रोजगार की तलाश में महानगरों में आकर बसे युवा वर्ग को साफ-सुथरा भोजन मिल सकता है, जिन्हें हर दो-तीन माह में लीवर, आँत की तकलीफ सहित कई अन्य बीमारियों से दो चार होना पड़ता है।

यह तो सिर्फ एक नजीर है। ऐसे तमाम उपाय हैं, जिसे चाहे तो देश में सरकार लागू कर देश की 75% ग्रामीण और शहरी आबादी को आत्मनिर्भर और जीवन के प्रति आशान्वित बना सकती है। सरकारें ऐसा क्यों नहीं चाहतीं, और हमारा देश किस दिशा में मुड़ चुका है, इसे समझना अब किसी भी सामान्य व्यक्ति के लिए अबूझ पहेली नहीं रहा गया है। ऐसे में सवाल उठता है कि जिस दिशा को हम अपने, समाज और देश के लिए बेहतर समझते हैं उसके लिए दबाव बनाने के लिए विपक्ष के साथ-साथ हमें खुद मुंह खोलना होगा, और अपनी बात को सोशल मीडिया सहित हर उपलब्ध मंच, गली-मोहल्ले और सड़क पर करना होगा।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

More From Author

अमेरिका के नेवार्क हवाई अड्डे पर हुए भारतीय युवक के अपमान पर कांग्रेस ने कहा- मोदी भारतीयों के सम्मान की रक्षा करने में नाकाम

कपिल सिब्बल ने महाभियोग नोटिस पर धनखड़ की ‘निष्क्रियता’ पर उठाया सवाल

Leave a Reply