एक भारत की आंगनबाड़ी है और एक रूस की!

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कल मुझे एक छोटे रूसी क़स्बे के सरकारी आंगनबाड़ी केंद्र में बच्चों एवं प्रशिक्षकों के साथ समय बिताने का मौक़ा मिला। रूस में इस तरह के केंद्र “देत्सकी साद” कहलाते हैं, जिसका उद्देश्य है- बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिये पूरक पोषण, पूर्व-प्राथमिक शिक्षा, प्रतिरक्षण, स्वास्थ्य जाँच, मनोरंजन आदि उपलब्ध कराना। यहां बच्चों के लिये पर्याप्त मात्रा में खिलौने, खाद्य सामग्रियां, प्रशिक्षक आदि उपलब्ध होते हैं। साथ ही बेहतर शौचालय, नहाने और सोने के कमरे एवं खेलने के लिये मैदान भी हैं। यहाँ 1.5 – 7 वर्ष तक के बच्चे समय बिताते हैं।

इस ‘देत्सकी साद’ के बच्चे जीवन में पहली बार किसी विदेशी से मिल रहे थे इसलिये मुझसे मिलकर और बातचीत कर बहुत ही ख़ुश हो रहे थे। इन्होंने मुझसे भारत से सम्बन्धित ढेर सारे मज़ेदार सवाल पूछे। एक बच्चे ने बताया कि नक़्शे में भारत बिल्कुल उसके जीभ सा दिखता है। बच्चे भारत के बंदर, हाथी, पोशाक और त्यौहारों के बारे जानने को बहुत ही उत्सुक थे। यहाँ नन्हें बच्चों से मुझे कई चीजें उपहार में मिलीं और मैंने अपने होस्ट के संग मिलकर स्वास्थ्य मानकों को ध्यान में रखते हुए बच्चों के लिये जलेबी बनायी जिसे सभी ने ख़ूब पसंद किया।

जब मैं बिहार में अपने गाँव के आँगनबाड़ी केंद्रों को याद करता हूँ तो वहाँ की भयावह स्थिति को देख कर सिहर जाता हूँ। चारों तरफ़ गंदगी, बदबूदार नाले के पास आँगनबाड़ी केंद्र संचालित होते हैं। वहाँ ढंग के शौचालय तक की व्यवस्था नहीं है। हमारे यहाँ आँगनबाड़ी में प्रायः गरीब परिवारों के बच्चे ही जाते हैं जबकि रूस में सभी परिवारों के बच्चे ऐसे केंद्रों में अनिवार्य रूप से प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। रूस में इन केंद्रों को सुचारु ढंग से चलाने के लिये सरकारी बजट तो है ही, साथ ही बेहतर व्यवस्था के लिये माता-पिता अपनी आय या बच्चों की संख्या के आधार पर खान-पान आदि के लिए भी सहयोग करते हैं जिससे इनकी गुणवत्ता बेहतर बनी रहती है। अधिक बच्चों के माता-पिता को सहयोग शुल्क में छूट मिलती है।

ये केंद्र सुबह सात बजे से शाम सात बजे तक चलते हैं, एवं अनुभवी प्रशिक्षक यहाँ काफ़ी समर्पित भाव से काम करते हैं। मैंने यहाँ बच्चों के खाने को भी चखा जो काफ़ी स्वादिष्ट थे।

हमारे बिहार जैसे राज्यों में इन केंद्रों के प्रति सरकार और समाज कितना गम्भीर है उसे हम आसानी से समझ सकते हैं कि आँगनबाड़ी केंद्रों पर काम करने वाली कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं को तनख़्वाह नहीं मिलती, बल्कि उन्हें 2-4 हज़ार रुपये मासिक मानदेय पर काम करना होता है, वे पैसे भी उन्हें समय पर नहीं मिलते हैं, साथ ही आंगनबाड़ी केंद्रों पर कार्यकर्ताओं की योग्यता हाईस्कूल पास जबकि सहायिकाओं के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता पांचवीं पास रखी गयी है।

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल कुपोषण के कारण पांच साल से कम उम्र वाले दस लाख से भी ज्यादा बच्चे मृत्यु को प्राप्त होते हैं। दक्षिण एशिया में भारत के बच्चे कुपोषण के मामले में सबसे बुरी हालात में हैं। सर्वेक्षणों में दलित और आदिवासी इलाकों के बच्चों की स्थिति तो और भी भयावह है। ऊपर से देश के कुछ राज्यों में धर्मवादी पाखंडी राज्य सरकारों ने बच्चों के मध्याह्न भोजन योजना में अंडे और माँस-मछली आदि खाने पर प्रतिबंध लगाया हुआ है। हर दिन मीडिया रिपोर्ट्स में खुलासे होते हैं कि बड़े-बड़े अधिकारियों और शिक्षक, जिनपर बच्चों के विकास की ज़िम्मेदारी होती है, बच्चों के खान-पान एवं पोशाक आदि के लिए आवंटित बजट से चोरी करते हैं। कई बार विषाक्त खाने के कारण बच्चों की मृत्यु तक हो जाती है।

बच्चे ही राष्ट्र के भविष्य होते हैं, लेकिन एक राष्ट्र के तौर पर बच्चों के लिये हमारा भारत दुनिया के सबसे असुरक्षित देशों में से एक है। देश का बड़ा बजट बेवजह की चीजों पर खर्च होता है, सरकारी स्कूली शिक्षा को जान-बूझकर बर्बाद किया गया है ताकि एक बड़ा वर्ग शिक्षा से दूर रहे और धन्ना-सेठों के लिये सस्ता मज़दूर बने। देश की खायी-पीयी-अघायी जनता को इस बात का ज़्यादा कष्ट है कि JNU जैसे संस्थानों में, कम खर्च में गरीब बच्चे पढ़-लिख कर अच्छे पदों पर पहुँच जाते हैं। जबकि धन्ना-सेठों द्वारा बैंक लूटे जाने पर देश की जनता को शायद ही कष्ट होता है। “विश्वगुरू” के भ्रम में जी रही बहुसंख्यक जनता को बच्चों के हक़-अधिकार के बारे में चिंतित होते हम शायद ही देख पाते हैं। लोकतंत्र के बावजूद भी यदि हमारे बच्चे आज बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा आदि से महरूम हैं तो हमें ठहर कर विचार करना चाहिए कि आख़िर कब तक हमारे देश में ऐसी स्थिति बनी रहेगी, और कौन है इसके पीछे ज़िम्मेवार।

(गौतम कश्यप की फेसबुक वाल से साभार लिया गया है।)

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