भारतीय समाज में अवैज्ञानिक परंपरा का साइकोपैथ अवशेष

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उच्चतर डिग्री हासिल करके पढ़ा-लिखा होना इस बात का सुबूत नहीं बन जाता कि हम जागरूक भी हैं। जागरूकता तो उस थॉट प्रोसेस से होकर किसी तार्किक निष्कर्ष पर पहुंच पाने से हासिल होती है। पढ़ाई-लिखाई इसमें सहायक हो सकती है, निर्णायक तो बिल्कुल नहीं।

देवी ने खुद किया बलि लेने से इनकार

सिराज हलके के चिऊणी गांव में देवी हिडिम्बा ने अपने मंदिर की स्थापना के वार्षिक आयोजन पर बलि लेने से इनकार कर दिया। देवी ने खुद आगे बढ़कर अपने प्रतिनिधियों को कहा कि भविष्य में मंदिर परिसर में बलि प्रथा पर पूर्णतया रोक लगाई जाए। देवी हिडिम्बा का यह फैसला ऐसे समय में आया है जब हाईकोर्ट के फैसले के बाद देव समाज में बलि प्रथा को लेकर बहस छिड़ी हुई है।

(https://www.jagran.com/spiritual/mukhye-dharmik-sthal-devi-refused-to-sacrifice-himself-to-11682701.html)

यह रिपोर्ट 7 अक्टूबर, 2014 को जागरण में छपी थी। संवाददाता कोई प्रीति झा थीं। इस रिपोर्ट से ऐसा साफ़-साफ़ दिखता है कि देवी हिडिम्बा और संवाददाता प्रीति झा के बीच सीधा-साधा संवाद स्थापित था। इस समय चल रही पत्रकारिता का यह एक आदर्श नमूना है। यह रिपोर्ट हमें समझाती है कि पत्रकार के लिए शिक्षित होना भले ही ज़रूरी हो, मगर उसका जागरूक होना बिल्कुल ही ज़रूरी शर्त नहीं है। उसका काम सूचना देना, मनोरंजन करना और शिक्षित करने से कहीं ज़्यादा सूचना को अपने ही तरीक़ों से प्रस्तुत कर देना है। अगर, इस तरह की पत्रकारिता से नरबलि जैसा कांड नहीं भी हो, तो भी कुछ ऐसे कांड को बढ़ावा मिल ही सकता है, जिसे व्यक्ति और समाज, दोनों की प्रगति में बाधक माना जाता हो।

यह रही पत्रकारों की मानसिकता, अब चलते हैं केरल के उस हाइकु कवि के पास,जो हाइकु कविता करता था,पारंपरिक इलाज का उस्ताद था और 68 साल की उम्र में उसे बेइंतहा दौलत चाहिए थी। जैसा कि हमें पता है कि हाइकु कविता कहने की एक जापानी शैली है। हाइकु को काव्य-विधा के रूप में मात्सुओ बाशो (1644-1694) ने प्रतिष्ठित की थी। हाइकु 17वीं शताब्दी में मात्सुओ बाशो की रचनाधर्मिता से निकलकर जीवन के दर्शन से अनुप्राणित होते हुए जापानी कविता की युग-धारा के रूप में खिल उठी थी। आज हाइकु जापानी साहित्य से होते हुए विश्व-साहित्य का अटूट हिस्सा हो चुकी है।

फिलहाल,वैद्यन के नाम से स्थानीय स्तर पर जाने जाते केरल के उस हाइकु कवि भगवल सिंह की कहानी। उस कहानी में उसकी दूसरी पत्नी लैला और श्रीदेवी के नाम से फ़ेसबुक की फेक आईडी चलाने वाला अपराधी शफ़ी है। शफ़ी ने पहले भगवल सिंह को फ़्रेंड रिक्वेस्ट भेजा। अपना परिचय भगवल की हाइकू कविता के बतौर प्रशंसक बताया और फिर दोनों में परिचय इतना गाढ़ा होता चला गया कि शफ़ी, भगवल और लैला के जीवन का एक ज़रूरी हिस्सा हो गया। दंपति को पता चला कि शफ़ी एक ऐसा तांत्रिक है,जो उनकी दौलत की आकांक्षा को पूरा कर सकता है। लेकिन, शफ़ी की पहली शर्त थी कि वह अपने तंत्र विद्या को चार्ज करने के लिए लैला के साथ पति के सामने ही हम विस्तर होना होगा। संपत्ति को लेकर दंपत्ति की भूख ने शर्त मान ली। फिर दो महत्वाकांक्षी महिलाओं की तलाश की गयी। इसका ज़रिया भी फ़ेसबुक बना। एक को एक्टिंग की आकांक्षा थी, दूसरी को पैसों की। दोनों को बारी-बारी से फंसाकर भगवल सिंह के घर में बलि दे दी गयी। दोनों के गुप्तांग काटे गये, स्तन काटे गये और कहा जाता है कि शफ़ी ने उन काटे गये हिस्सों को खाया भी।

केरल जैसे कथित प्रगतिशील सूबे के लिए यह एक हैरान कर देने वाली घटना थी। सवाल वहां हुक़ूमत कर रही वामपंथी सरकार पर उठ रही है। उठनी भी चाहिए। मगर, इस तरह की घटना सरकार या प्रशासन से कहीं ज़्यादा समाज से जुड़ी होती है। मज़बूत अंग्रेज़ी हुक़ूमत भी तब ठमक गयी थी,जब उसे लगा था कि भारतीय समाज में हस्तक्षेप उसकी हुक़ूमत के लिए ख़तरा है। हस्तक्षेप से तौबा कर दिया था। अगर सुधार करना था,तो समाज को इसके लिए तैयार करना था। भारतीय समाज के भीतर से कई सुधारक पैदा हुए, सुधार की पृष्ठभूमि बनी और फिर अंग्रेज़ी हुक़ूमत ने ताबड़तोड़ क़ानून बनाकर कुप्रथाओं के ख़िलाफ़ क़ानून बना दिए। शासन और प्रशासन दोनों ही स्तरों पर सदियों से चली आ रही सती प्रथा, बाल विवाह प्रथा जैसी कुप्रथाओं पर प्रतिबंध लग गये। लेकिन सामाजिक स्तर पर तब भी ये कुप्रथायें चलती रहीं।

चार सितंबर 1987 को सीकर जिले के देवराला गांव में अपने पति की मौत के बाद उसकी चिता पर जलकर 18 साल की रूप कंवर ‘सती’ हो गयी थी। दिसंबर,1829 में ब्रिटिश सरकार के इस प्रथा को प्रतिबंधित किए जाने के 158 साल बाद पूरी दुनिया का ध्यान सती होने की उस घटना ने अपनी तरफ़ खींच लिया था। सती प्रथा पर प्रतिबंध लग जाने के लगभग डेढ़ सौ साल बाद भी इस तरह की घटना का होना बताता है कि जब तक सामाजिक जागरूकता नहीं आती, इस तरह की घटना को महज़ क़ानून से रोका नहीं जा सकता। केरल की साक्षरता दर 92.6 फ़ीसदी है। ज़ाहिर है सिर्फ़ साक्षरता से भी इस तरह की कुप्रथा को नहीं रोका जा सकता। केरल में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार है, जिससे अपेक्षा की जाती है कि वह अंधविश्वास और अतार्किकता को ख़त्म करने का प्रयास कर रही होगी। लेकिन, केरल के पठानमथिट्टा के एलंथूर गांव में हुई इस नरबलि की घटना से साफ़ हो जाता है कि जागरूकता के बूते ही इस तरह की घटना को रोका जा सकता है और इस जागरूकता के लिए उसी वैज्ञानिक नज़रिये का विकसित होना ज़रूरी है, जिसे आजकल पूरे भारत में चुनौती मिल रही है। इस चुनौती से निपटने के लिए हमें हर आदमी को इस बात को लेकर शिक्षित करना आवश्यक है कि धर्म सिर्फ़ कर्मकांड नहीं होता, अतार्किता नहीं होता, अवैज्ञानिक नहीं बनाता, बल्कि धर्म की अध्यात्मिकता उसे वह दर्शन देती है,जिसके बूते व्यक्ति और समाज कारण-परिणाम की प्रयोगशाला अपने भीतर विकसित करते हैं और इस प्रयोगशाला में नकार दी गयी धारणा से एक ख़ुशहाल व्यक्ति और समाज का निर्माण होता है।

(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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