22 जनवरी के अयोध्या कार्यक्रम के बाद कभी भी आम चुनाव 2024 की घोषणा हो सकती है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह आज़ाद भारत के इतिहास का सबसे निर्णायक चुनाव है जो देश की भावी दिशा और नियति को इस तरह प्रभावित करेगा जैसा आज तक किसी चुनाव ने नहीं किया था।
यह आज़ादी की लड़ाई से निकले उन मूलभूत मूल्यों का भविष्य तय करेगा, जो हमारे संविधान के रूप में codified हैं और जिन पर तमाम zig-zag के बावजूद देश मोटे तौर पर पिछले 76 साल से चल रहा था।
सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री कौशिक बसु के शब्दों में, “अधिकांश भारतीय, खास तौर से वे जिन्हें देश की फिक्र है, 2024 का वैसे ही इंतज़ार कर रहे हैं जैसे कभी 1947 का कर रहे थे।”
उस इंतज़ार का अंत सुखद होगा या और बड़ी त्रासदी में होगा?
इस प्रश्न का जवाब भविष्य के गर्भ में है और इस बात पर निर्भर है कि आने वाले सौ-सवा सौ दिनों में देश-दुनिया के हालात किस तरह evolve होते हैं तथा इस crucial phase में तमाम राजनीतिक-सामाजिक ताकतें, उनके अहम किरदार और अंततः देश के नागरिक किस तरह व्यवहार करते हैं।
इस परिस्थिति का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि आम तौर पर लोगों को यह आभास ही नहीं है कि आज दांव पर क्या लगा है, कि देश को आज जिस रास्ते पर ले जाया जा रहा है, भविष्य में इसका कितना खौफनाक अंजाम होने वाला है।
तमाम सचेत लोग भी इसे अधिक से अधिक अघोषित आपातकाल मानते हैं। पर अब यह बिल्कुल साफ हो चुका है कि इंदिरा गांधी द्वारा लादे गए आपातकाल से आज का दौर बुनियादी तौर पर भिन्न है। आपातकाल में लोकतांत्रिक अधिकारों और विपक्षी ताकतों पर कसे शिकंजे से आगे बढ़कर यहां तो एक राष्ट्र के बतौर भारत की पूरी पहचान- Idea of India- को ही बदलने की तैयारी है।
आज़ादी की लड़ाई और राष्ट्र निर्माण के जो foundational pillars थे, उन सबको एक-एक कर ध्वस्त किया जा रहा है। आपातकाल की तरह यह कोई 19 महीने की अस्थायी आपदा नहीं है, बल्कि इसे तो एक permanent order, एक new normal बनाया जा रहा है। मोदी की पुनर्वापसी हुई तो देश एक बहुसंख्यकवादी कॉरपोरेट फासीवादी राज्य बन जाने के लिए अभिशप्त है।
आज सबको यह क्रोनोलॉजी समझनी और समझानी होगी कि भारत अगर धर्मनिरपेक्ष नहीं रहा, आरएसएस की परिकल्पना का बहुसंख्यकवादी हिन्दू राष्ट्र बन गया तो वह लोकतंत्र भी नहीं रहेगा।
हिन्दू राष्ट्र कॉरपोरेट तानाशाही के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा, जहां ज्ञान-संस्कृति-मीडिया के संस्थानों समेत सत्ता-संरचना के सभी केंद्रों पर फासीवादी संगठनों का कब्जा होगा तथा समाज में फासीवादी गिरोहों के नेतृत्व में सामंती-ब्राह्मणवादी-पुनरुत्थानवादी ताकतों का बोलबाला होगा। इसका ट्रेलर पूरा देश पिछले 10 साल में मोदी राज में (सर्वोपरि, उनकी दो मुख्य प्रयोगशालाओं गुजरात और योगी-राज में UP में) देख चुका है।
और अगर भारत धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र नहीं रहा, तो हमारी राष्ट्रीय एकता के लिए भी गम्भीर खतरा पैदा हो जायेगा।
दुनिया के इस सर्वाधिक विविधतापूर्ण समाज की भिन्न भिन्न उपराष्ट्रीयताओं, भाषा-संस्कृति, धर्म की diversity और pluralism को कुचलने और सबको एक सांचे में ढालने तथा एक केन्द्रीकृत शासन की तानाशाही थोपने की कोशिश हुई- जैसी आरएसएस की परियोजना है, तो इसके नतीजे खौफनाक होंगे, यह राष्ट्रीय विखण्डन और सामाजिक विघटन का नुस्खा साबित होगा।
नाम के अलावा इस ‘हिन्दू राष्ट्र’ में बहुसंख्य मेहनतकश हिन्दू समुदाय के लिये तबाही, बर्बादी के सिवा कुछ नहीं होगा।
देश ने पिछले 10 साल में, जब विपक्ष और जनमत का कुछ न कुछ लोकतांत्रिक दबाव शेष था, देख लिया है कि 2024 में अगर मोदी का एकछत्र राज स्थापित हुआ तो वह पूरी तरह ‘कॉरपोरेट का, कॉरपोरेट के द्वारा, कॉरपोरेट के हित में’ संचालित राज्य होगा, जिसकी अर्थव्यवस्था में आम आदमी के लिये कोई जगह नहीं होगी, जहां लोक-कल्याणकारी राज्य के अंतिम अवशेषों को भी अलविदा कह दिया जाएगा।
आज, मोदी जी के 10 साल के शासन के बाद आबादी के ऊपरी दस प्रतिशत अमीरों का 60% राष्ट्रीय सम्पदा तथा 57% राष्ट्रीय आय पर कब्जा है।
मोदी ने कभी मनरेगा को कांग्रेस की असफलता का स्मारक कहा था। लेकिन 82 करोड़ लोगों को इस हालत में पहुंचा देना कि वे पेट पालने के लिए हर महीने 5 किलो अनाज के लिए भी सरकार पर निर्भर हों, क्या यह किसी विकसित राष्ट्र और उसकी महान सरकार की ‘विराट सफलता’ का जयघोष है?
आज देश के युवाओं में बेरोजगारी दर 10% के रिकॉर्ड स्तर पर है और 25 वर्ष से कम उम्र के graduates में यह 42% के अकल्पनीय स्तर पर है। यहां तक कि मनरेगा में मिलने वाले रोजगार से- जो ग्रामीण क्षेत्र में गरीबों की लाइफ-लाइन है, जो कोविड में सरकार की भयानक नाकामी के दौरान शहर से गांव वापस लौटे मजदूरों का भी सबसे बड़ा सहारा बना था- उससे भी तरह-तरह के ताल तिकड़म के माध्यम से गरीबों को वंचित किया जा रहा है।
अप्रैल 22 के बाद से अब तक 7.6 करोड़ लोगों का नाम पंजीकृत मनरेगा मजदूरों की लिस्ट से काटा जा चुका है। अब आधार कार्ड केंद्रित भुगतान व्यवस्था द्वारा एक तिहाई (8.9 करोड़) पंजीकृत मजदूर और active workers का आठवां हिस्सा (1.8 करोड़ मजदूर) अयोग्य घोषित कर दिए जाएंगे और मनरेगा में काम करने से वंचित हो जायेंगे।
जिस 5-6% विकास दर का ढिंढोरा पीटा जा रहा है, सच्चाई यह है कि वह कत्तई अभूतपूर्व या चमत्कारिक नहीं है, UPA शासन के शुरुआती दिनों में यह 9.5% के आसपास रह चुकी है। उससे बड़ी बात यह कि मोदी सरकार की नग्न अमीर-परस्त नीतियों के कारण भारत आज दुनिया में आय की सर्वाधिक आसमानता वाला देश है। विकास दर का फायदा उठाकर अमीर और अमीर होते गए हैं, जबकि रिकॉर्ड बेरोजगारी, महंगाई, भारी अप्रत्यक्ष कर जैसी नीतियों से निचोड़ लिए गए गरीब और गरीब होते गए हैं।
जाहिर है चुनाव के ठीक पहले अयोध्या मन्दिर का hype जनता के इन्हीं ज्वलन्त सवालों को पृष्ठभूमि में धकेल देने और anti-incumbency से बच निकलने के लिए manufacture किया जा रहा है।
राम-मंदिर के नाम पर भोली-भाली जनता की धार्मिक भावना के दोहन की युद्धस्तर पर कोशिश की जा रही है। पर यह निर्विवाद है कि संघ-भाजपा चाहे जितना hype देने की कोशिश कर लें 92 में मस्जिद के विध्वंस का जो उन्माद था आज वह पैदा कर पाना असंभव है।
बाबरी मस्जिद को जिस तरह कथित विदेशी आक्रांता के हाथों राष्ट्रीय अपमान और गुलामी के प्रतीक के बतौर खड़ा किया गया, उसमें उस दौर की सरकारों के तरह-तरह के अवसरवाद से नाराज हिन्दू जन मानस के अच्छे-खासे हिस्से को वे अपने उन्मादी अभियान में शामिल करने में सफल हो गए थे।
बहरहाल, मस्जिद विध्वंस के साथ ही सारतः वह पोलोटिकल प्रोजेक्ट पूरा हो गया था और जनता के बीच भी उसका उन्मादी आवेग खत्म हो गया था। सालों पहले सुप्रीम कोर्ट फैसले की औपचारिक मुहर से रही सही कसर भी पूरी हो चुकी है।
अब मस्जिद विध्वंस के 31 साल और SC फैसले के 5 साल बाद अगर भाजपा सोचती है कि मन्दिर के नाम पर फिर वैसा ही उन्माद वह पैदा करने में सफल हो जाएगी तो इसे खुशफहमी ही कहा जा सकता है। उस दौर में भी मस्जिद विध्वंस के बाद जैसे ही विपक्ष एकजुट हुआ, वे UP में ही हार गए थे।
आज जरूरत है विपक्ष की ओर से एक spirited राजनीतिक प्रत्याक्रमण की। मोदी ने जैसे देश को तबाह किया है और वह देश को जिस खतरनाक रास्ते पर धकेल रहे हैं, उस पर फ्रंटल attack करना होगा, तथा एक खुशहाल और विकसित गौरवशाली राष्ट्र का अपना विजन जनता के सामने पेश करना होगा। न सिर्फ आर्थिक-सामाजिक न्याय के प्रश्नों पर वरन राष्ट्र निर्माण के हर पहलू पर पॉजिटिव काउंटर-नैरेटिव पेश करना होगा।
यह स्वागतयोग्य है कि किसानों ने भी 13 फरवरी को दिल्ली कूच का ऐलान कर दिया है और तमाम जनांदोलन की ताकतें तथा नागरिक समाज भी सचेत और सक्रिय है।
युवाओं के लिए योग्यतानुसार सुनिश्चित रोजगार, करोड़ों खाली पड़े सरकारी पदों पर नियमित भर्ती, किसानों के लिए MSP, कर्जमाफी और पेन्शन, सभी महिलाओं, गरीबों के खाते में न्याय योजना के तहत पर्याप्त कैश ट्रांसफर (DBT), राजस्थान की चिरन्जीवी योजना की तर्ज पर सबके लिए इलाज, उच्चतम स्तर तक सस्ती सुलभ और अच्छी शिक्षा, जाति-जनगणना के साथ सभी स्तरों पर सुसंगत सामाजिक न्याय, सभी भूमिहीनों-दलितों-आदिवासियों के लिए जीवन-निर्वाह योग्य जमीन, OPS की बहाली जैसे मुद्दों पर सरकार बनते ही समयबद्ध क्रियान्वयन की ठोस गारंटी द्वारा विपक्ष मोदी-गारंटी की हवा निकाल सकता है।
भारत जोड़ो न्याय यात्रा इसे जन-जन तक पहुंचाने का अवसर बन सकती है। INDIA गठबंधन जोरदार राजनीतिक अभियान द्वारा जनकल्याण तथा राष्ट्र-निर्माण के अपने वैकल्पिक नैरेटिव को जन-जन तक पहुंचा सका, तो ‘विकसित भारत’ अभियान का वही हस्र हो सकता है जो 2004 में वाजपेयी सरकार के ‘शाइनिंग इण्डिया’ का हुआ था।
(लाल बहादुर सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे हैं।)