हमारी भी बड़ी मजबूरी है क्योंकि अन्ना आन्दोलन से पहले ही हम जैसे लोग जो हर सरकार में सदा स्थायी विपक्ष की भूमिका निभाते आए हैं, पॉलिसी लेवल के अलावा फेल्योर एक्जीक्यूशन पर मनमोहन सिंह सरकार की आलोचना करते थे।
फिर भी हिन्दुस्तान जैसे मुल्क में एक पूंजीवादी आधार पर कैसे अच्छी सरकार चले यही लब्बोलुआब मनमोहन सिंह का रहा जिसमें बहुत कुछ अच्छा हुआ, कुछ नहीं हुआ, कुछ चाहते हुए भी अच्छा नहीं हो सका तो कुछ न चाहते हुए भी बहुत बुरा हुआ।
बहुत से लोग यह नहीं जानते होंगे कि अमीरों की अमीरी स्थिर गरीबी/गरीबों के रहते ज़िंदा नहीं रहती, मौजूदा हालत में सबसे पहले पूंजीवाद को पैदल चलने वाला गरीब नहीं चाहिए उसे कम से कम साईकिल चलाने वाला गरीब चाहिए।
एक समय बाद उसे स्कूटर चलाने वाला गरीब चाहिए फिर कार चलाने वाला गरीब। इसी तरह जीवन के हर स्तर और आवश्यकता में गतिशीलता रहनी चाहिए ताकि अमीरी बनी रहे और बढ़ती रहे।
मजबूरी यह थी कि इसके खिलाफ कोई मॉडल नहीं आया और जो आया वो टिक नहीं सका जो राजनैतिक दल या विचारक नए मॉडल को लाने का दावा करते थे, वो सैद्धांतिक बहसों और सीमित प्रदर्शनों में उलझे रहे और आगे नहीं बढ़ सके।
चाहे वो समाजवादी हों या साम्यवादी, गांधीवादियों के बारे में तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता। क्यों व्यवहारिक रूप से गांधी मॉडल पर जो काम करने की ज़रूरत थी, वो गांधीवादियों से नहीं हो सकी और गांधीवादी मठों में उलझकर रह गए, और गांधी को सेमिनार का मुद्दा बना दिया।
दुनिया में राजनीति, बिजनेस, नई तकनीकी डिफेंस के तौर तरीके, अलग-अलग मुल्कों के गुट और उनके हितों के बढ़ती घरेलू मांग के बीच एडजस्टमेंट करना एक बड़ी चुनौती रहा था। इस मामले में मनमोहन सिंह की सरकार इन चुनौतियों से अच्छी तरह निपटी।
पूरी दुनिया में रक्षा उत्पादन और सुरक्षा बजट विकास की ज़रूरत पैदा करता है। यह मजबूरी भी है। यह ट्रिकल डाउन थ्योरी का उलट मॉडल रहा जिसमें सेवा और सहायता के लिए सबसे निचले वर्ग को टारगेट किया था।
इसी थ्योरी को मोदी सरकार ने पलट कर फिर अपर क्लास को कर और अन्य छूट/सहायता देकर आगे बढ़ाया। इसलिए मनमोहन सरकार ने इन दबावों में जो काम किए उसको नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
उनकी सरकार ने मुल्क में मिडिल क्लास को जो सपोर्ट किया, सातवें पे कमीशन और आर्थिक उदारीकरण से लाखों करोड़ों परिवारों को अच्छी नौकरी से अच्छी तनख्वाह, घर मकान कार और विदेश यात्रा का मौका मिला। (यह बात दूसरी है कि यही क्लास अन्ना और उनकी टीम के केजरीवाल, रामदेव वगैरह के आंदोलन के फर्ज़ी नारों को लगाने के लिए आगे आया।)
मिडिल कलास और कुछ हद तक निचले वर्ग के स्किल्ड बेरोजगारों को विदेश में काम करने का मौक़ा मिला, जिससे विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ा और नए पूंजी निवेश से नए रोजगार बढ़े।
एक बात और ज़रूरी है कि तमाम अच्छी स्कीमों के बावजूद एक्जीक्यूशन लेवल पर मनमोहन सरकार अपेक्षित सफलता नहीं प्राप्त कर सकी, इसके लिए कांग्रेस पार्टी का भी दोष रहा। वो इन कार्यक्रमों को जनता तक नहीं ले जा सकी, और न विपक्षी दलों की राज्य सरकारों पर यह दबाव बना सकी कि वो इन योजनाओं को ढंग से क्रियान्वित कर सकें।
इसका परिणाम यह हुआ कि मनरेगा, शिक्षा का अधिकार, नेशनल हेल्थ मिशन और आरटीआई, जैसे कानून और योजनाएं न तो ढंग से लागू हो सकीं और न कांग्रेस पार्टी इसका लाभ ले सकी।
कई राज्यों में जहां ढंग से मनरेगा लागू नहीं हो सकी, वहीं हेल्थ मिशन लूट का साधन बन गई। यूपी में मायावती के समय के हालात सब जानते ही हैं। आज मोदी सरकार के प्यादे और संघी भक्त को जो फ्री का राशन खा रहे हैं, वो मनमोहन सरकार के खाद्यान्न सुरक्षा कानून के तहत मिल रहा है।
और उनके बच्चे अच्छे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं, वो भी मनमोहन सरकार के शिक्षा के अधिकार के कानून से मिल रहा है। यहां तक कि सस्ती जेनेरेक दवाईयां उपलब्ध कराने की जो योजना मनमोहन सरकार ने बनाई थी उसे मोदी सरकार ने भाजपा का ठप्पा लगाकर लांच कर दिया और हर बोर्ड पर अपनी फोटो जैसे राशन के थैले पर छपी थी वैसी छपवा दी।
बस ऐसा समझ लीजिए कि विकास की मौजूदा अंधी दौड़ में मुल्क लग गया था, नहीं लगता तो कोई पूछता नहीं इसलिए विश्वगुरू का सपना मोदी सरकार देखने की हिम्मत कर रही है।
इसके अलावा देश के संसाधनों पर आदिवासियों और कमजोरों के अधिकार की पैरवी करने वाले मनमोहन सिंह सरकार ने आदिवासियों दलितों कमजोर वर्गों और मुसलमानों पर अत्याचार के नए हथकंडे और रास्ते खोले, आदिवासियों, गांव पंचायतों, कमजोरों की जमीनों की लूट के नए तरीके निकले।
पिछली सरकारों में दलित और आदिवासियों पर अत्याचार करने वाले अधिकारियों पर कोई कार्यवाही न करके उनको प्रमोशन दिए गए।
उनके गृहमंत्री चिदम्बरम ने फर्ज़ी इस्लामिक फोबिया गढ़कर मुस्लिम नौजवानों से जेलें भर दीं, फर्ज़ी मुठभेड़ों के नाम मासूम कत्ल हुए। जो सिलसिला चिदम्बरम ने शुरू किया वो अभी भी चल रहा है।
विकास की मजबूरी कह लें या पूंजीवादी व्यवस्था की ज़रूरत मनमोहन सिंह की सरकार पर भले ही अंतरराष्ट्रीय संगठनों का दबाव रहा फिर भी उस समय न तो आज की जैसी संसाधनों की बेहिसाब लूट हुई और न जनता के हर हिस्से की बदहाली जिसके कारण पूरा मुल्क असहाय की हालत में फंसा हुआ है।
(इस्लाम हुसैन गांधीवादी कार्यकर्ता हैं और काठगोदाम, नैनीताल में रहते हैं)
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