इतने तन्हा तो हम कभी भी न थे!

1948 की बात है: द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद नवगठित संयुक्त राष्ट्रसंघ अभी नया-नया ही था। कश्मीर के सवाल पर एक ऐसा प्रस्ताव लाया गया, जो इसके भारत में विलय की सच्चाई को नकारने वाला और भारत के खिलाफ था। उस समय के समाजवादी सोवियत संघ ने इसे ‘वीटो’ कर दिया।

1971: बांग्लादेश का मुक्ति संग्राम अपने निर्णायक दौर में था। यह अब कोई छिपी बात नहीं कि इसमें भारत की सामरिक भूमिका क्या थी। अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने पहले भारत को धमकाया। जब भारत इस धमकी से नहीं डिगा, तो उसने सारी कूटनीतिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर सातवाँ बेड़ा हिंद महासागर में भारत के सीने पर लाकर खड़ा कर दिया। शीतयुद्ध के उस दौर में सोवियत संघ ने तत्काल अपनी सैन्य पनडुब्बियों का पाँचवाँ बेड़ा अमेरिकी युद्धपोतों के नीचे तैनात कर घोषणा की कि भारत पर हमला सोवियत संघ पर हमला माना जाएगा। इसके बाद अमेरिका का सातवाँ बेड़ा दबे पाँव वापस लौट गया।

1971 में ही: बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में भारत की भूमिका को लेकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत के खिलाफ एक निंदा प्रस्ताव लाया गया। सोवियत संघ एक बार फिर भारत की ढाल बनकर खड़ा हुआ और ‘वीटो’ का इस्तेमाल किया। कुल मिलाकर, सोवियत संघ ने भारत के पक्ष में छह बार ‘वीटो’ का उपयोग किया, जिनमें से पाँच बार कश्मीर और पाकिस्तान से संबंधित मुद्दे थे, और एक बार गोवा को पुर्तगाल से आजाद कराने के लिए किए गए ‘पुलिस एक्शन’ के खिलाफ लाए गए प्रस्ताव को लेकर था।

एक बार फिर 1971: धर्म के नाम पर बने पाकिस्तान के मात्र 24 वर्षों में ही दो टुकड़ों में बँट जाने के बाद, पाकिस्तान ने इस्लामिक देशों के संगठन-ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन (OIC)-को अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की कोशिश की। जब पाकिस्तानी प्रस्ताव पेश किया जा रहा था, तभी फिलिस्तीन मुक्ति संगठन (PLO) के प्रमुख यासर अराफात ने खड़े होकर भारत का पक्ष इतने जोरदार तरीके से रखा कि पाकिस्तानी दलील धरी रह गई।

इस्लाम के नाम पर बने देश के दो टुकड़े होने की गुहार के बावजूद, इस्लामिक देशों ने भारत के खिलाफ कोई कार्रवाई तो दूर, किसी भी तरह का प्रस्ताव पारित करने से इनकार कर दिया। ध्यान रहे, पिछले आधी सदी से अधिक समय में OIC में कश्मीर का मुद्दा बार-बार उठाया गया, लेकिन एक साझा संगठन के रूप में इन इस्लामिक देशों ने पाकिस्तानी रुख से सहमति नहीं दिखाई।

मान-प्रतिष्ठा और स्वीकार्यता की वजह: ऐसे कई उदाहरण गिनाए जा सकते हैं कि जब-जब भारत मुश्किल में पड़ा, तब-तब अमेरिका को छोड़कर ज्यादातर दुनिया भारत के साथ खड़ी हुई। दशकों तक भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन का सर्वस्वीकार्य नेता रहा। बड़ी आर्थिक या सामरिक शक्ति न होने के बावजूद उसकी ऐसी स्वीकार्यता और मान-प्रतिष्ठा इसलिए थी कि वह संवैधानिक, समावेशी लोकतंत्र और बहुलतावादी धर्मनिरपेक्षता की एक अनूठी मिसाल था, जो नवस्वतंत्र देशों में कम ही देखने को मिलती थी। इसके साथ ही, भारत की स्वतंत्र विदेश नीति ने उसे गरीब देशों पर साम्राज्यवादी दबदबे के खिलाफ आवाज उठाने वाले देश की पहचान दी।

95 देश घूमे, फिर भी आज अलग-थलग कैसे? आज वही भारत लगभग अलग-थलग खड़ा है। यह तब है, जब अपने 11 साल के प्रधानमंत्रित्व में 88 विदेश यात्राओं में कुल 95 देश घूमकर नरेंद्र मोदी विश्व के सबसे अधिक विदेश यात्रा करने वाले राष्ट्रप्रमुख बन चुके हैं।

भारत और पाकिस्तान के बीच हाल के टकराव में, दुनिया के देशों का रुख मुख्यतः तटस्थ रहा और तनाव कम करने की सलाहें व हिदायतें देने तक सीमित रहा। संयुक्त राष्ट्र, G-7 और अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने दोनों देशों से आपसी बातचीत और संघर्षविराम की अपील की। भारत ने जो कभी नहीं होने दिया, वहाँ तक बात पहुँची कि ज्यादातर देशों ने दोनों देशों के बीच मध्यस्थता की पेशकश कर दी। युद्ध के बीचोंबीच IMF ने पाकिस्तान को एक अरब डॉलर का ऋण मंजूर कर एक अलग संदेश दिया। BRICS और SAARC समूहों ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

पहलगाम में आतंकी हमले के बाद भारत की पाकिस्तान में सैन्य कार्रवाई को लेकर रूस की प्रतिक्रिया भी अब तक की परंपरा से अलग थी। रूसी राष्ट्रपति के प्रवक्ता दिमित्री पेस्कोव ने कहा, “भारत हमारा रणनीतिक साझेदार है। पाकिस्तान भी हमारा साझेदार है। हम दिल्ली और इस्लामाबाद दोनों से संबंधों को महत्व देते हैं।”

भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर और रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव के बीच बातचीत की जानकारी देते हुए रूसी विदेश मंत्रालय ने कहा, “रूसी विदेश मंत्री ने दिल्ली और इस्लामाबाद से द्विपक्षीय वार्ता के जरिए विवाद खत्म करने की अपील की है।” यह इतिहास में पहली बार हुआ, जब रूस ने भारत और पाकिस्तान को एक ही पलड़े में रखकर तौला। रूस-यूक्रेन युद्ध पर दिन में दो बार बयान देने वाले ब्रिटेन, फ्रांस और यूरोपीय संघ के बयान भी इसी दिशा में थे। इन सभी ने आतंकी हमले की निंदा तो की, लेकिन भारत और पाकिस्तान को बराबर रखते हुए तटस्थ सलाह दे दी।

पश्चिम एशिया – जिसे वैश्विक उत्तर का मीडिया मध्य-पूर्व कहता-के भारत के परंपरागत मित्र देश या तो तटस्थ और समदर्शी मुद्रा में दिखे या उनमें से कई, जो पहले ऐसा नहीं करते थे, पाकिस्तान के साथ हमदर्दी जताते पाए गए। भारत का परंपरागत मित्र तुर्की -अब तुर्किये-बावजूद इसके कि स्वयं मोदी इसके राष्ट्रपति एर्दोआन से आठ बार मिल चुके हैं, न केवल भारत के साथ नहीं रहा, बल्कि तटस्थ भी नहीं रहा। सैन्य टकराव के बीच इसने पाकिस्तान को ड्रोन और हथियार भी मुहैया कराए।

भारत के साथ कौन था? दुष्ट राष्ट्र माना जाने वाला इजरायल, जिसके साथ भारत के दशकों तक संबंध नहीं रहे, और तालिबान शासित अफगानिस्तान, जिसके साथ भारत के कूटनीतिक संबंध तक नहीं हैं। इन दोनों का साथ भारत की साख बढ़ाने से ज्यादा उसे कमजोर करने वाला साबित हुआ।

पड़ोस में इतना सन्नाटा क्यों था, भाई? दुनिया भर में हमेशा सम्मान के साथ देखे जाने वाले देश का मई 2025 में दिखा यह चिंताजनक अलगाव केवल वैश्विक स्तर पर ही नहीं था; पड़ोसी देशों के साथ तो यह और भी गहरा था। चीन से समर्थन की उम्मीद पहले ही खत्म हो चुकी थी, लेकिन परंपरागत रूप से भारत के साथ रहे अन्य पड़ोसी देशों की इस सैन्य टकराव में भूमिका को दर्ज करना जरूरी है, ताकि इसकी वजहों की पड़ताल कर सबक लिया जा सके।

भारत के सबसे करीबी माने जाने वाले श्रीलंका ने कहा, “हम अपनी समुद्री या भौगोलिक सीमा का इस्तेमाल नहीं होने देंगे। भारत और पाकिस्तान दोनों के साथ हमारे रिश्ते हैं।” जो देश सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक और अन्य रूपों में हजारों वर्षों से भारत का स्थायी मित्र रहा, वह नेपाल भी इस बार भारत के साथ नहीं था। जिस बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में भारत की अहम भूमिका थी और जिसकी आजादी के बाद अधिकांश समय भारत-समर्थक ताकतें सत्ता में रहीं, वह भी साथ नहीं था, बल्कि ठीक से देखा जाए तो खिलाफ ही था। म्यांमार, यहाँ तक कि भूटान और मालदीव तक खुलकर भारत के साथ नहीं खड़े हुए।

‘नेबरहुड फर्स्ट’ के बाद भी ऐसा क्यों? पहले पड़ोसियों से शुरू करते हैं, क्योंकि पड़ोसी होते हैं, उन्हें चुना या बदला नहीं जा सकता। ज्यादा पुरानी बात नहीं, केवल 11 साल पहले, जब नरेंद्र मोदी ने पहली बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी, तब उन्होंने सभी पड़ोसी देशों के सरकार प्रमुखों को, यहाँ तक कि पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को भी आमंत्रित किया था। यह घोषणा की गई कि भारत की विदेश नीति में पड़ोसी देशों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाएगी।

इस नीति को औपचारिक रूप से ‘नेबरहुड फर्स्ट’ यानी ‘पड़ोसी पहले’ का नाम दिया गया। जोर-शोर से दावा किया गया कि यह विदेश नीति का मूल आधार होगा। अमेरिका या नाइजीरिया जैसे दूर-दराज के देशों की तुलना में दक्षिण एशिया के पड़ोसी देशों-श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार, नेपाल आदि-के साथ संबंधों को अधिक महत्व दिया जाएगा और उनके हितों को प्राथमिकता दी जाएगी।

इसका असर भी दिखा। प्रधानमंत्री के रूप में अपनी पहली यात्राओं के दौरान अगस्त 2014 में नेपाल, मार्च 2015 में श्रीलंका और जून 2015 में बांग्लादेश में नरेंद्र मोदी का बड़े पैमाने पर स्वागत हुआ। इन देशों के आम लोगों से सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली। पाकिस्तान के साथ कूटनीति की नई साहसी पहल करते हुए मोदी ने सबको चौंका दिया, जब 25 दिसंबर 2015 को वे बिना किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के, रूस से लौटते वक्त हवाई जहाज को बीच में मोड़कर ढेर सारी बनारसी साड़ियों और पठानी सूटों के साथ नवाज शरीफ की पोती की शादी में शामिल होने लाहौर पहुँच गए। शरीफ के घर पहुँचकर वे इतने भावुक हुए कि उनकी माँ के पाँव तक छू लिए।

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को भारत बुलाकर 17 सितंबर 2014 को साबरमती में झूला झुलाया गया। डोकलाम और सीमा पर तनाव के बावजूद 2014 से 2024 तक दस वर्षों में दोनों नेताओं की 20 मुलाकातें हो चुकी हैं। श्रीलंका को राजनीतिक अस्थिरता और हाल के आर्थिक संकट से उबारने में भारत की मदद निर्णायक थी। मालदीव की अर्थव्यवस्था भारत पर निर्भर रही है और यह एकमात्र देश है, जहाँ भारत की सेना की मौजूदगी रही है और आज भी है। भूटान और म्यांमार के साथ परंपरागत गहरे रिश्ते हैं, जिन्हें याद दिलाने की जरूरत नहीं।

‘नेबरहुड फर्स्ट’ की घोषित नीति के एक दशक बाद भी यह हाल क्यों? सारी नाटकीयता और प्रतीकात्मकता के बाद भी किसी पड़ोसी के साथ रिश्ते मजबूत नहीं हुए। जैसे पहले थे, वैसे भी नहीं रहे।

फूँ-फाँ और फूफागिरी के साइड इफेक्ट्स: विदेश नीति देश की होती है, जो निरंतरता और पारस्परिक सम्मान पर टिकी होती है। यह संकीर्ण सोच और कूपमंडूक कूटनीति से नहीं चलती। न फूँ-फाँ करने से सधती है, न बात-बात पर रूठने वाले फूफा बनने से। कोई देश छोटा या बड़ा नहीं होता-हर देश संप्रभु होता है। अपने देश की नीतियाँ तय करने का अधिकार उसी का है। निकटता उन्हीं देशों के बीच गहरी होती है, जो गरिमामय दूरी बनाए रखने का शऊर रखते हैं।

नेपाल की चुनी हुई संविधान सभा का काम है कि वह किस तरह का संविधान बनाए, अब तक एकमात्र हिंदू राष्ट्र रहने के बाद उसमें धर्मनिरपेक्षता जोड़े। नेपाल के मधेसी समुदाय की चिंताओं को हल करना वहाँ की सरकार का काम है। दिल्ली में बैठकर सार्वजनिक रूप से निर्देश देना और आर्थिक नाकाबंदी करवाना अहंकारपूर्ण रवैया था, जिसके वही नतीजे निकले, जो निकलने थे। जबरन बड़ा भाई बनने की कोशिश से नेपाली जनता आहत हुई।

इतिहास में पहली बार इतने बड़े पैमाने पर भारत-विरोधी प्रदर्शन हुए। अब कालापानी, लिपूलेख, लिंपियाधुरा और सुस्ता सहित 606 वर्ग किलोमीटर के सीमा विवाद पर तनाव बढ़ रहा है। मालदीव में एक नेता और उसकी पार्टी के साथ नत्थी होने का खामियाजा भुगतना पड़ा। नए राष्ट्रपति ने भारतीय सेना को हटाने की मांग उठाई और इस टापू देश में ‘इंडिया आउट’ अभियान शुरू हो गया।

भूटान, जो सामरिक, विदेशी और आर्थिक मामलों में भारत पर निर्भर है, उसने भी भारत को बोझ बताने की भाषा शुरू कर दी। सांप्रदायिक मुहिम में बांग्लादेशियों को निशाना बनाने सहित अन्य कारणों से बांग्लादेश के साथ बढ़ती दूरी इस हद तक पहुँच गई कि भारत ने उसके व्यापार के लिए अपने हवाई अड्डों और बंदरगाहों के इस्तेमाल पर रोक लगा दी। उधर, बांग्लादेश पहली बार पाकिस्तान के साथ अपने रिश्ते सुधारने में जुट गया है।

छवि में गिरावट: भारत की पहचान ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की थी-एक खुले लोकतंत्र, स्वतंत्र मीडिया और प्रेस, अभिव्यक्ति की संवैधानिक गारंटी, सभी समुदायों में सौहार्द और सांप्रदायिक सद्भाव की। आज उसी भारत की छवि एक नत्थी मीडिया, भीड़-हत्याओं, सत्ता में बैठे लोगों द्वारा चलाए जा रहे नफरत भरे अभियानों और सोशल मीडिया पोस्ट्स पर गिरफ्तारियों वाले देश की बन गई है। मोदी सरकार इस सच्चाई को भारत में दिखाने से रोक सकती है, लेकिन दुनिया इसे जानती है।

अमेरिका की मातहती: इस कलुषित सोच के अलावा, भारत के इस अलगाव का एक बड़ा कारण ट्रंप के अमेरिका की पूँछ से बंधना भी है। अंधभक्तों को छोड़कर दुनिया को पता है कि साम्राज्यवादी अमेरिका का दुनिया पर प्रभुत्व कायम करने का अपना धूर्त एजेंडा है। भले ही मोदी सारी शर्म-हया छोड़कर, कूटनीतिक मर्यादाओं को लाँघकर कितने ही इवेंट कर लें, अमेरिका अपनी कुटिलता नहीं छोड़ेगा। उसके व्यापारिक और सैन्य गठबंधनों में कनिष्ठ बनना अनिष्टकारी ही था। जूनियर बनकर खुद को पार्टनर समझना कितना बड़ा भ्रम था, यह भारत की संप्रभुता और सम्मान को सार्वजनिक रूप से अपमानित करके ट्रंप ने स्पष्ट कर दिया।

इस कुसंगति ने भारत को किस दशा में पहुँचा दिया, यह इन अपमानजनक बयानों पर मोदी सरकार की चुप्पी और ठीक इन्हीं बयानों के बीच मुकेश अंबानी के ट्रंप के साथ डिनर ने उजागर कर दिया। मोदी के चहेते कॉरपोरेट्स की अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के साथ गलबहियाँ ने लेनिन की उक्ति को याद दिला दिया कि किसी देश की विदेश नीति उसकी आंतरिक नीति का विस्तार और प्रतिबिंब होती है।

निष्कर्ष: इस तन्हाई का जिम्मेदार हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता और कॉरपोरेट का गठजोड़ है, जिसने भारत को इस चिंताजनक एकांत में ला खड़ा किया है। बीमारी की पहचान होना उसके उपचार की दिशा में बढ़ने में मददगार होता है।

(बादल सरोज लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं)

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