पश्चिम का नंगा, खूंखार और दैत्याकार चेहरा एक बार फिर दुनिया के सामने आ गया है। सभ्यता की आड़ में ये कितने बर्बर हैं उसकी खुली बयानी इजराइल और पश्चिम से उसको मिल रहा यह समर्थन है। ये लोकतंत्र और मानवाधिकार की खाल ओढ़े भेड़िए थे, भेड़िए हैं और भेड़िए बने रहेंगे। इजराइल मामले ने एक बार फिर इस बात को साबित कर दिया है। दुनिया को लूट कर खुद को समृद्ध करने का उन्होंने जो रास्ता अख्तियार किया था वह अलग-अलग रूपों में जारी रहा। और उसी को स्थायी रूप से बनाए रखना और उसके रास्ते में जो रोड़ा बने उसको आतंकी और मानवाधिकार विरोधी घोषित कर रास्ते से हटा देना, यही इनकी नीति रही है।
एक दौर में लूट के इस कारोबार को उन्होंने दुनिया के तमाम देशों को कॉलोनी बना कर पूरा किया। और जब उन देशों में जागरूकता आयी और लोगों को अपनी स्वतंत्रता और वजूद का ज्ञान हुआ तो उन्हें फौज-फाटा लेकर भागना पड़ा। लेकिन लूट के धंधे को चलाने और पश्चिमी देशों की जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी उनकी कंपनियों ने अपने हाथ में ले ली। और पूरी दुनिया में पूंजीवादी व्यवस्था के तहत संचालित कंपनियों के जरिये मुनाफे का यह कारोबार चलता रहा और फिर बाद में दैत्याकार कॉरपोरेट ने इस जिम्मेदारी को संभाल लिया।
अमेरिका का यही असली राक्षसी रूप है। जिसमें वह अपने बिल्कुल घृणित और पाशविक चेहरे के साथ इजराइल मामले में सामने आया है। उसे दुनिया में मानवाधिकारों और लोकतंत्र की बड़ी ‘चिंता’ रहती है। और इस मामले में वह अपने सबसे बड़े दुश्मन चीन को हमेशा निशाने पर रखता है। और इसके नाम पर तो उसने कितने देशों में सीधा हस्तक्षेप किया है और कई देशों को तो बिल्कुल तबाह कर दिया है। इसमें लैटिन अमेरिका से लेकर मध्यपूर्व तक के देश शामिल हैं। लेकिन अब जबकि फिलिस्तीन में छोटे-छोटे मासूम बच्चों तक की हत्याएं हो रही हैं। और अस्पतालों तक को इजराइली हवाई हमलों का निशाना बना दिया गया है। और मां-बाप अपने मासूम बच्चों के क्षत-विक्षत शव पॉलिथीन में भरकर रोते-बिलखते ले जा रहे हैं, तब मानवाधिकारों के इस आका का दिल नहीं पसीज रहा है।
युद्ध के भी अपने नियम होते हैं। आज तक किसी युद्ध में शायद ही किसी अस्पताल या फिर स्कूल को निशाना बनाया गया हो। आखिर मरीजों और मासूम बच्चों से भला किसी की क्या दुश्मनी हो सकती है? इसके लिए तमाम अंतरराष्ट्रीय कानून बने हैं जो युद्ध के दौरान इस तरह के स्थानों को किसी भी कीमत पर निशाना न बनाने की गारंटी देते हैं। लेकिन उन सारे कानूनों, नियमों, परंपराओं और नैतिकताओं को ताक पर रखकर इजराइल ने बैप्टिस्ट अस्पताल में जो किया है उसे बर्बरता कहकर संबोधित करना भी उसको छोटा करके देखना है।
लेकिन अमेरिका अभी भी पूरी ताकत के साथ इस घृणित और बर्बर कार्रवाई को अंजाम देने वाले इजराइल के साथ खड़ा है। उसका विदेश मंत्री पिछले एक हफ्ते से मध्यपूर्व में डेरा डाले हुए है। वह इस बात की गारंटी कर रहा है कि इजराइल के खिलाफ और फिलिस्तीन के पक्ष में मध्यपूर्व का कोई दूसरा देश न खड़ा हो। इस कड़ी में वह कतर से लेकर जॉर्डन और मिस्र से लेकर बहरीन तक की यात्राएं कर रहा है। और फिर इजराइल में जाकर हमले और युद्ध की अगली रणनीति तैयार कर रहा है। इस प्रक्रिया में इजराइल को न केवल नैतिक और मनोबल के स्तर पर हौसला दे रहा है। बल्कि अपने जहाजी बेड़े को इलाके में उतारकर उसे पूरी तरह से भौतिक रूप से सक्रिय सहयोग और समर्थन कर रहा है। इसके जरिये इजराइल को यह संदेश दे रहा है कि वह पूरी तरह से उसके साथ है।
उसका यह कदम ऐसे देशों को परोक्ष तौर पर धमकी है कि वह अगर इस युद्ध में फिलिस्तीन की तरफ से उतरेंगे तो उन्हें सबसे पहले अमेरिका के इन जहाजी बेड़ों का सामना करना पड़ेगा। और जब लगा कि बात केवल एंटनी ब्लिंकेन की यात्रा से पूरी नहीं होगी तो अब खुद मोर्चा संभालने आज अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन पहुंच गए हैं।
लेकिन अब पूरी दुनिया जान चुकी है कि बाइडेन के हाथ फिलिस्तीनी मासूम बच्चों के खून से रंगे हैं। इस शख्स को शर्म नहीं आती कि इसने इजराइली बच्चों के सिर काटने के डॉक्टर्ड और फैब्रिकेटेड वीडियो पर तुरंत प्रतिक्रिया जाहिर की। और सच्चाई सामने आने के बाद इसके ह्वाइट हाउस को इसकी तरफ से माफी मांगनी पड़ी। और अब जबकि फिलीस्तीन में मरने वाले 3500 से ऊपर लोगों में तकरीबन एक तिहाई मासूम बच्चे हैं और अस्पतालों के मरीज और डाक्टर तक को नहीं छोड़ा जा रहा है। तब भी उनके पक्ष में बाइडेन का एक बयान तक न आना उनकी कलई खोल देता है। उल्टे यूएन में जब रूस और उसके सहयोगी देशों की तरफ से युद्धबंदी का प्रस्ताव लाया जाता है तो अमेरिका और उसके सहयोगी उसको रोक देते हैं।
इजराइल के इतिहास से परिचित लोगों को यह पता ही होगा कि वह अमेरिका और पश्चिमी देशों का अपना पैदा किया हुआ बच्चा है। और उसकी सुरक्षा के लिए वह किसी भी हद तक जा सकते हैं। 1948 में यहूदियों को वहां बसाने और यूएन से इजराइल को मान्यता दिलाने के बाद इजराइलियों और अरबों के बीच सीधे-सीधे तीन युद्ध हो चुके हैं। इनमें 1948 के उस युद्ध के अलावा 1967 और 1973 के युद्ध इसमें शामिल हैं। लेकिन सारे युद्धों में अरबों को मात खानी पड़ी थी। और हर युद्ध के बाद इजराइल फिलिस्तीनियों के नये इलाकों पर कब्जा करता चला गया और सामान्य परिस्थितियों में भी उसने इस काम को जारी रखा। जिसका नतीजा है कि फिलिस्तीन अब सिमट कर गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक के चंद टुकड़ों में रह गए हैं। और उनकी पूरी जमीन इजराइल ने छीन ली है।
इजराइल यह आखिरी लड़ाई लड़ रहा है जिसमें उसकी मंशा फिलिस्तीनियों को इन इलाकों से भी खदेड़ कर उन पर कब्जा कर लेने की है। और इस मामले में ब्रिटेन, अमेरिका से लेकर जर्मनी और फ्रांस तक इजराइल के साथ हैं। दरअसल अमेरिका समेत पश्चिमी देशों की मध्य-पूर्व की पूरी नीति ही इजराइल को ध्यान में रखते हुए बनती रही है। उसमें अमेरिका ने इस बात को सुनिश्चित किया था कि इजराइल के खिलाफ मध्य पूर्व के अरब देशों मे कोई बड़ी गोलबंदी न होने पाए। उसके लिए उसने कई स्तरों पर काम किया। शीत युद्ध के दौर में सीधे हस्तक्षेप की गुंजाइश न होने पर उसने मध्य-पूर्व के देशों को आपस में लड़ाने के जरिये इस काम को पूरा किया। जिसमें शिया-सुन्नी विवाद को सबसे ज्यादा हवा दी गयी। और जिसका नतीजा यह रहा है कि ईरान और इराक के बीच एक दशक से भी ज्यादा समय तक युद्ध चला।
और इस बीच सऊदी अरब से लेकर मिस्र तक तमाम देशों को अपने पक्ष में करके इजराइल विरोधी उनके रवैये पर वह पानी डालता रहा। और समाजवादी रूस के ढहने के बाद उसने इस काम को सीधे अपने हाथ में ले लिया और फिर उन-उन देशों को निशाना बनाया जो समाजवादी रूस के करीबी थे या फिर पश्चिमी देशों के खिलाफ। इसमें इराक, सीरिया अफगानिस्तान, लीबिया समेत बाद के दौर में ईरान को भी उसने शामिल कर लिया। और फिर बारी-बारी से इन देशों को अलग-अलग तरीके से निपटाना शुरू कर दिया।
किसी को घातक हथियार रखने के बहाने जो बाद की जांच में बिल्कुल झूठ निकला, तो किसी को आतंकवाद का समर्थन करने और किसी पर न्यूक्लियर हथियार रखने का आरोप लगाकर। और जो कुछ सऊदी अरब जैसे धनी देश बचे तो उनको अब्राहम समझौते के तहत इजराइल से दोस्ती के नये रास्ते पर ले जाने की उसने कोशिश की। और इस तरह से इजराइल को उसने मध्यपूर्व में बिल्कुल सुरक्षित करने का भरपूर प्रयास किया। लेकिन इस कड़ी में जो सबसे ज्यादा मार खाता जा रहा था वह था फिलिस्तीन। और आने वाले दिनों में उसके वजूद तक को खत्म करन की तैयारी कर ली गयी थी। हमास का यह हमला अपने इसी वजूद को फिर से जिंदा करने और अमेरिका-इजराइल को उनके मंसूबों में सफल न होने देने के हिस्से के तौर पर देखा जा रहा है। हालांकि भारी नुकसान के बाद भी उसको एक हद तक इस दिशा में सफलता मिली है।
किसी को लग सकता है कि इस युद्ध से अमेरिका को नुकसान हो रहा है। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था की तीन धुरी हैं। पहला डॉलर, दूसरा उसकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां और तीसरा मिलिट्री इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स। हालांकि तीनों अपने-अपने स्तर पर संकटग्रस्त हैं। और उसी का नतीजा है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था गहरे आर्थिक संकट के दौर से गुजर रही है। उसके ऊपर 33 ट्रिलियन डॉलर का कर्ज है। जबकि उसकी कुल अर्थव्यवस्था 21 ट्रिलियन डॉलर की है। ऐसे में इस कर्जे का बोझ और चीन-रूस के नेतृत्व में उभरती नई ताकत और दुनिया के स्तर पर उनकी गोलबंदी ने अमेरिका के इस वर्चस्व को खुली चुनौती दे दी है। अभी जब हम यह लेख लिख रहे हैं तो चीन में उसके नेतृत्व में रूस समेत अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के 140 देशों के प्रतिनिधि बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव यानि बीआरआई पर बैठक कर रहे हैं। इससे समझा जा सकता है कि दुनिया का रुझान क्या है और वह किसके नेतृत्व में आगे बढ़ना चाहती है। सबसे ज्यादा इसको लेकर अगर कोई चिंतित है तो वह अमेरिका है।
ऐसे में युद्ध उसके लिए एक नई उम्मीद बन कर आया है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि जब-जब पूंजीवादी अर्थव्यवस्था संकट में पड़ती है तो उसे युद्ध का सहारा लेना पड़ता है। 1929 की मंदी को उसने दूसरे विश्वयुद्ध के जरिये हल किया था। और अब जबकि एक बार फिर उसके सामने संकट आया है तो उसने अपने मिलिट्री इंडस्ट्रियल कॉम्पलेक्स को फिर से मुनाफे के सबसे भरोसे वाले कारोबार में बदलने के लिए यूक्रेन और अब उसके बाद इजराइल का मोर्चा खोल दिया है। इससे न केवल युद्ध में शामिल देश हथियार खरीदेंगे बल्कि दुनिया के स्तर पर हथियारों के कारोबार में वृद्धि हो जाएगी। अनायास नहीं भारत के साथ तमाम दूसरे देश अमेरिका समेत पश्चिमी देशों के हथियारों की दुकान के सामने कतार में खड़े हैं।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के फाउंडिंग एडिटर हैं।)
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