किसी भी देश में जो मौजूदा समाज व्यवस्था होती है उसी जड़ें वहां के धर्म और संस्कृति में निहित होती हैं। वहां की राजनीति और अर्थव्यवस्था भी उसी पर आधारित होती है। इसी वर्ष (2024) में प्रकाशित स्वदेश कुमार सिन्हा की पुस्तक ”धर्म, समाज और संस्कृति का राजनीतिक अर्थशास्त्र” इसकी तस्दीक करती है। इसमें लेखक ने सिर्फ भारत का ही नहीं बल्कि वैश्विक परिदृश्य को लिया है। लेखक का कैनवास विस्तृत है।
भारतीय लोकतंत्र और समाजवाद के संदर्भ में लेखक का कहना है ‘’…आजादी के बार नेहरू और डॉ. भीमराव अंबेडकर सहित उनके नेताओं ने धर्मनिरपेक्षता लोकतंत्र तथा समाजवादी समाज की रचना का स्वप्न देखा था और जिसकी अभिव्यक्ति भारतीय संविधान में भी निहित है। आज संघ परिवार इन मूल्यों को तिरोहित करके देश को एक हिंदूवादी फासीवादी राष्ट्र मेंं बदलना चाहता है उसे इसमें कुछ हद तक सफलता भी मिली है।
उसके इस एजेंडे का विरोध करने वाली ताकतें; चाहे वह गांधीवादी हों, समाजवादी हों, कम्युनिस्ट या अंबेडकरवादी हों अथवा उदारवादी बुद्धिजीवी हों। अल्पसंख्यकों के साथ-साथ इन सभी का भी दमन या उत्पीड़न किया जा रहा है। लेखकों, पत्रकारों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं को झूठे मुकद्दमो में फंसाकर जेल भेजा जा रहा है। उन्हें देशद्रोही बताया जा रहा है।…’’
जहां तक धर्म की बात है तो भारत धार्मिक देश नहीं है। यह धर्म निरपेक्ष है। लेखक अपने एक लेख में लिखते हैं – ‘’ भारत के संविधान की प्रस्तावना में 42वें संविधान संशोधन के बाद ‘पंथ निरपेक्ष’ शब्द जोड़ा गया। लेकिन ‘धर्मरिनपेक्ष’ शब्द का प्रयोग भारतीय संविधान के किसी भाग में नहीं किया गया। वैसे संविधान में कई ऐसे अनुच्छेद मौजूद हैं जो भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र साबित करते हैं मसलन संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 के बीच में वर्णित धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार।”
लेखक ने हिन्दू धर्म की कमियों पर भी निष्पक्ष और निर्भयता से कलम चलाई है। हिंदू धर्म में महिलाओं और दलितों को दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता है। वे अपने एक लेख ”गीता प्रेस: धर्म, धंधे और शोषण का अर्थशास्त्र” में लिखते हैं – ”यहां पर (गीता प्रेस) में सारा काम पुरुष ही करते हैं। संभवत: इसका कारण यह है कि हिन्दू व्यवस्था में महिलाएं घर का काम जैसे घर संभालना, बच्चे पालना आदि काम करती हैं और पुरुष बाहर से पैसा कमाने का काम करते हैं। देश में भले ही 75 साल पहले संविधान लागू हुआ था पर यहां पर अभी तक मनुस्मृति के कानून ही चल रहे हैं जिसे यहां के लोग बड़े गर्व से स्वीकार करते हैं।” लेखक इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ”धर्म, धंधे और शोषण के अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को समझे बिना हम आज के हिन्दुत्व की राजनीति को नहीं समझ सकते।’’
लेखक ने हिन्दू धर्म की बुराईयों को बेबाकी से उजागर किया है। जहां कथित उच्च जाति के हिन्दू अपने धर्म को सनातन बताते हुए गर्व करते हैं और पुराणों, उपनिषदों, वेदों, मनुस्मृति, रामायण (रामचरित मानस) और महाभारत को अपने पवित्र ग्रंथ मानते हैं उन्हीं से उदाहरण देकर लेखक ने धर्म के नाम पर हो रही अमानवीयता की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है।
उदाहरण के लिए : रामायण के अनुसार शंबूक नाम के एक शूद्र की हत्या राम ने ब्राह्मणों के कहने पर कर दी। क्योंकि उन्होंने राम से शिकायत की थी कि एक शूद्र तपस्या कर रहा है। इसी प्रकार महाभारत में भी एक प्रसंग आता है जब एक जनजाति युवक एकलव्य को द्रोणाचार्य ने केवल इसलिए शिक्षा नहीं दी कि वह निम्न जाति का था लेकिन जब वह अपने दम पर सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बन गया तब द्रोणाचार्य ने छल से उसका अंगूठा गुरुदक्षिणा में मांग लिया जिससे वह फिर कभी धनुष न चला सके। इस प्रकार द्रोणाचार्य ने ब्राह्मण और क्षत्रिय धर्म की रक्षा की। इस तरह के ढेरों वृतांत हिन्दू धर्म के पुराणों और लोककथाओं में भरे पड़े हैं।
पुस्तक : धर्म समाज और संस्कृति का राजनीतिक अर्थशास्त्र
लेखक : स्वदेश कुमार सिन्हा
प्रकाशक : न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, C-515, बुद्ध नगर, इन्द्रपुरी,
नई दिल्ली-110012
प्रकाशन वर्ष : 2024
पृष्ठ संख्या : 291
मूल्य : ₹ 500
यहां प्रसंगवश बताते चलें कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन के बेटे उदयनिधि स्टालिन की ‘सनातन धर्म’ पर टिप्पणी पर काफी विवाद हुआ था। डीएमके नेता उदयनिधि स्टालिन ने 2 सितंबर 2023 को चेन्नई में आयोजित एक कार्यक्रम में सनातन धर्म को कई सामाजिक बुराईयों के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए इसे समाज से खत्म करने की बात कही थी। उन्होंने कहा -”सनातन धर्म लोगों को जाति और धर्म के नाम पर बांटने वाला विचार है, इसे खत्म करना मानवता और समानता को बढ़ावा देना है। जिस तरह हम मच्छर, डेंगू, मलेरिया और कोरोना को खत्म करते हैं, उसी तरह सिर्फ सनातन धर्म का विरोध करना ही काफी नहीं है, इसे समाज से पूरी तरह खत्म कर देना चाहिए।’’ लेखक कहते हैं कि उदयनिधि तथा कुछ अन्य लोगों के इन बयानों से देश भर में सियासी घमासान मचा लेकिन भाजपा ने इसे भी लाभ हानि के तराजू पर तौला। क्योंकि डीएमके विपक्षी गठबंधन इंडिया का एक हिस्सा है। इस बहाने उसने विपक्षी गठबंधन पर निशाना साधा तथा उसे हिन्दू विरोधी बताया।’’
लेखक ‘मजहबी हिंसा की जड़ें’ शीर्षक अपने लेख में हिन्दू धर्म के बारे में लिखते हैं – ” हिन्दू धर्म अपने आप में कोई संगठित धर्म नहीं था। यहां पर कबीलाई आदिम समाजों के साथ-साथ विभिन्न संप्रदायों तथा धर्मों का समूह था, इसमें प्राचीन समय से ही पशुबलि तथा मानवबलि का व्यापक प्रचलन था लेकिन सबसे बड़ी हिंसा तो वर्ण और जाति व्यवस्था में निहित थी, जिसके शीर्ष पर ब्राह्मण थे, और इसके नीचे क्रम में दो अन्य जातियां थीं तथा सबसे नीचे दलित-पिछड़ी तथा आदिम जातियां थीं, जो जानवरों से भी बदतर गया-गुजरा जीवन जीती थी। कमोवेश हिन्दू धर्म में वर्ण-जाति की यह निर्मम व्यवस्था आज भी जारी है।”
लेखक समसामयिक विषयों पर अपनी पैनी नजर रखते हैं। उन्होंने हर सामयिक विषय पर अपनी कलम चलाई है। आज तानाशाही की तरह व्यवहार कर रही सरकार अपने हिसाब से छात्रों को इतिहास पढ़ाना चाहती है। इस संबंध में लेखक का एक लेख काबिले-गौर है – ‘मुगलों का इतिहास हटाने के बहाने दलित-बहुजनों पर जुल्म का पाप छिपाने की कोशिश’। लेखक का साफ कहना है – ”बीते दिनों केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के अधीनस्थ एनसीईआरटी द्वारा दसवीं, ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा के पाठ्यक्रमों में बदलाव की खबरें चर्चा में रहीं। हालांकि जिस मामले पर सबसे अधिक जोर दिया गया यह इतिहास की किताब से मुगल शासकों से संबंधित अध्याय रहा। लेकिन हकीकत यह है कि इसके अलावा भी सरकार ने डॉ. अम्बेडकर द्वारा किए गये आंदोलन व संविधान निर्माण में उनकी अहम भूमिका तक को नजरअंदाज किया गया है।”
लेखक समाज के हर वर्ग पर अपनी निष्पक्ष नजर रखते हैं। वे अपने एक लेख ‘अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी की दुनिया सबसे बदहाल’ शीर्षक में लिखते हैं – ”देश की आबादी में दलित 16-17 प्रतिशत और 7-8 प्रतिशत आदिवासी हैं। …इस वास्तविकता से नजर चुराना नामुमकिन है कि दलित पिछड़े तथा जनजातीय समाज से जुड़े लोगों के साथ सदियों से कैसा अमानवीय व्यवहार होता रहा है। वे छुआछूत, अलगाव सहित अनेक प्रकार के सामाजिक विभेदों के शिकार होेते रहे हैं।… आज देश में स्थिति यह है कि अधिकांश दलित असंगठित क्षेत्र के श्रमिक हैं जहां गुजारे लायक तथा निरंतर आय की गारंटी नहीं होती।…वे यौन शोषण सहित हर तरह के शोषण तथा लूट के शिकार हो रहे हैं। उनके साथ अशिक्षा, भूमिहीनता, विस्थापन और सामाजिक भेदभाव भी है।”
लेखक इस सामाजिक गैर-बराबरी और अन्याय पर अपने विचार प्रकट करते हुए अपने एक लेख में इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं – ”आज जरूरत इस बात की है कि दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक और जनजाति समाज के लोग तथा प्रगतिशील चेतना से लैस उच्च जाति के बुद्धिजीवी भी जब तक इन अमानवीय मूल्यों के खिलाफ संघर्ष के लिए खड़े नहीं होंगे; तब तक हमारा समाज इस घोर अनैतिकता के दलदल में धंसा रहेगा।”
प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने अपने लेखन को 6 अध्यायों में विभाजित किया है। जिसमें अध्याय एक में संस्मरण हैं, अध्याय दो में कला साहित्य और विचार वाले लेखों को रखा गया है। अध्याय तीन में इतिहास और इतिहासकारों से संबंधित लेखों का संकलन है। अध्याय चार में भारतीय और विश्व राजनीति पर वैचारिक लेख सम्मिलित किए गए हैं। अध्याय पांच में बहुजन विमर्श है। अध्याय छह में पुस्तक समीक्षाओं को रखा गया है।
कुल मिलाकर लेखक ने सभी महत्वपूर्ण विषयों का समावेश इस पुस्तक में किया है। लेखक का दृष्टिकोण व्यापक है। उन्होंने वैश्विक समस्याओं से लेकर देश की हर वर्ग, समाज, साहित्य, राजनीति, आर्थिक व्यवस्था, सामाजिक बुराईयों आदि अनेक विषयों को अपनी इस पुस्तक में समेटने का प्रयास किया है। इसलिए सामानय पाठक से लेकर बुद्धिजीवी पाठकों तक सबके लिए सामग्री इस पुस्तक में दी गई है। पुस्तक सीधी सरल और रोचक भाषा में लिखी गई है। अत: अपठनीय है। एक बार जरूर पढ़ी जानी चाहिए।
(राज वाल्मीकि स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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