देश कि ध्वस्त अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी,भीषण मंहगाई और सरकार कि चतुर्दिक असफलता से एमपी, बिहार विधानसभा चुनाव से शुरू होकर बंगाल चुनाव तक प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और जनाधार में लगातार गिरावट से कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को सत्ता मिलने की राजनीतिक आहट महसूस हो रही है और इसका प्रमाण महाराष्ट्र से लेकर उत्तराखंड में भाजपा छोड़कर कांग्रेस में शामिल होने से सामने आ रहा है।मगर लाख टके का सवाल है कि सूट बूट कि सरकार से हम दो, हमारे दो कि सरकार कह कर प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी को लगातार घेरने वाले राहुल गाँधी और उनकी कांग्रेस पार्टी हम दो हमारे दो यानि अडानी और अंबानी से कैसे निपटेगी?नोटबंदी ,जीएसटी और गलत नीतियों के कारण बेपटरी अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने का उनका रोडमैप क्या होगा?यह पब्लिक डोमेन से नदारद है।
सवाल उठ रहा है किक्या कांग्रेस कथित आर्थिक सुधार के नाम पर क्रोनी पूंजीवाद से मोनोपोली पूंजीवाद की नीतियों पर आगे चलेगी या पंडित जवाहर लाल नेहरु की मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीतियों में जो गलतियाँ हुई थीं उसे सुधारकर देश को आगे ले चलेगी? यदि नेहरु की समाजवादी आर्थिक नीतियों को सुधारवादी फेल बता रहे हें तो हकीकत में आर्थिक सुधार कि कथित नीतियां उससे भी ज्यादा असफल सिद्ध हुई हैं क्योंकि नेहरु सरकार ने देश की सम्पत्ति बनाया और अटल सरकार से अब मोदी सरकार तक में इन्हें राष्ट्रीय बेशर्मी के साथ बेचा जा रहा है।
कार्ल मार्क्स और मार्क्सवाद अपनी जगह पूरी तरह सही है, लेकिन उसे इंप्लीमेंट करने वाले लोगों के चाल, चरित्र और चेहरे में खोट था, जिसके कारण पूरी दुनिया में मार्क्सवाद पर दक्षिणपंथी शक्तियों को सवाल उठाने का मौका मिल गया। उसी तरह आजादी के पहले से ही और आजादी के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू की समाजवादी आर्थिक नीतियां अपनी जगह पूर्णतया सही थीं, क्योंकि देश एक नए स्वरूप में राजे, रजवाड़ों, नवाबों, बादशाहों के चंगुल से निकलकर लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में उभर रहा था और बहुत ज्यादा गरीबी और आर्थिक गैर बराबरी थी। लेकिन कालांतर में इसे लागू करने वाले कतिपय लोगों की नियत में खोट, व्यक्तिगत स्वार्थ और चुनाव में लोकलुभावन घोषणाएं करके सत्ता में किसी भी कीमत पर आने के लालसा के कारण जो आर्थिक दुर्गति शुरू हुई उससे समाजवादी आर्थिक नीतियों और धर्मनिरपेक्षता पर सवाल उठा और देश 1991 में अचानक आर्थिक सुधार के नाम पर दक्षिणपंथ की गोद में बैठ गया।
वर्ष 1991 में पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में विश्व बैंक रिटर्न डॉ मनमोहन सिंह की युगलबंदी ने बिना राष्ट्रीय बहस कराये आर्थिक उदारीकरण की धुर दक्षिणपंथी नीतियों को लागू करना शुरू कर दिया ।इसके पीछे कहीं ना कहीं सोवियत संघ के विघटन और गोर्बाचोव के आर्थिक सुधारों जिसे पेरेस्त्रोइका का नाम दिया गया की पृष्ठभूमि भी जिम्मेदार रही।
तबसे देश लगातार आर्थिक उदारीकरण और आर्थिक सुधार की दिशा में आगे बढ़ रहा है हालांकि अटल बिहारी वाजपेई के कार्यकाल में और मनमोहन सिंह के कार्यकाल में देश मंदी की चपेट में था और आर्थिक उदारीकरण पर गंभीर सवाल भी उठे थे । लेकिन तब भाजपा ने इसे पॉलिसी पैरालिसिस का नाम दिया और 2014 के चुनाव चुनाव में मनमोहन सिंह नीत यूपीए पालसी पैरालिसिस और प्रशासनिक भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई और देश की जनता नरेंद्र मोदी के अच्छे दिनों के सपनों में बह गई । लेकिन नोटबंदी से जीएसटी तक आते आते देश अर्थव्यवस्था का बंटाधार हो गया और अच्छे दिन मुंगेरीलाल के हसीन सपने बन के रह गए।
आर्थिक सुधार के नाम पर क्रोनी पूंजीवाद को बढ़ावा मिला और मोदी राज में यह दो घरानों, अंबानी और अडानी के बीच मोनोपोली पूंजीवाद में बदल गयी।इसे कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी सूट बूट की सरकार से लेकर हम दो हमारे दो कि सरकार तक की संज्ञा दी और मोदी सरकार को लगातार कटघरे में खड़ा किया । लेकिन वर्ष 2019 का लोकसभा चुनाव या वर्तमान लोकसभा का ढाई साल का कार्यकाल लगभग बीत गया हो राहुल गांधी और कांग्रेस ने कोई वैकल्पिक आर्थिक नीति या तत्सम्बन्धी नीतिगत घोषणा नहीं की कि यदि 2024 में कांग्रेस के लीडरशिप में सरकार बनी तो हम हम दो हमारे दो के मोनोपोली पूंजीवाद से कांग्रेस कैसे निपटेगी?
भारतीय राजनीति कि हकीकत है कि बीजेपी और कांग्रेस में कोई खास अंतर नहीं है, दोनों एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। दोनों की आर्थिक नीतियां एक सी हैं, केवल मजहब को लेकर की जाने वाली राजनीति पर दोनों का स्टैंड अलग-अलग है।. जहां बीजेपी वैचारिक रूप से दक्षिणपंथ की पक्षधर मानी जाती है, वहीं कांग्रेस नेहरु इंदिरागांधी की नीतियों से अलग हटकर दक्षिणपंथ की पक्षधर बन गयी है।
वर्ष 2019 के आम चुनावों के लिए बीजेपी और कांग्रेस ने अपने-अपने घोषणा पत्र जारी किये थे है। दोनों ने अर्थव्यवस्था, शिक्षा, किसान, स्वास्थ्य, रक्षा समेत कई अहम मसलों पर बड़े वादे किए थे।दोनों का जोर अर्थव्यवस्था पर था क्योंकि देश की कई बड़ी समस्याओं का हल अर्थव्यवस्था के सुधार में छिपा है। आर्थिक उदारीकरण से लेकर जीएसटी तक कई बड़े कदम उठाए गए हैं। आगे के लिए दोनों पार्टियों ने कई बड़े वादे किए थे।
नोटबंदी और जीएसटी को लेकर कांग्रेस लगातार मोदी सरकार की आलोचना करती रही है। ऐसे में कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर भी कई बड़े ऐलान किए थे।मसलन जीएसटी नियमों की समीक्षा कर असली और आसान फॉर्मेट वाला ‘जीएसटी 2.0’ लाया जाएगा।रीयल एस्टेट (सभी सेक्टर), पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स, तंबाकू, शराब आदि को जीएसटी 2.0 के दायरे में लाया जाएगा।वित्त वर्ष 2020-21 तक राजकोषीय घाटा जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का तीन फीसदी किया जाएगा।पहले साल में डायरेक्ट टैक्स कोड का नियम लाएंगे।स्टार्टअप्स पर लगने वाले एंजेल टैक्स खत्म किए जाएंगे।2019 से 2024 के बीच 10 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से बाहर निकाला जाएगा। 2030 तक भारत को गरीबी मुक्त कर दिया जाएगा।
बीजेपी के घोषणा पत्र में कहा गया था कि जीएसटी को और आसान बनाने के लिए सभी पक्षों के साथ विचार-विमर्श जारी रहेगा।2030 तक हम भारत को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाएंगे।2025 तक भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर और 2032 तक 10 ट्रिलियन डॉलर तक ले जाएंगे।2047 तक आजादी की 100वीं वर्षगांठ से पहले भारत को विकसित देश बनाया जाएगा।टैक्स में छूट पर और तेजी से काम करेंगे।
कांग्रेस ने मोदी सरकार के आर्थिक सुधारों, जो नरसिम्हाराव सरकार के समय से ही शुरू आर्थिक नीतियों का विस्तार है, के विकल्प में अपनी नई वैकल्पिक आर्थिक नीतियों की घोषणा के बजाय मोदी सरकार की ही आर्थिक नीतियों को थोड़े सुधार के साथ आगे बढ़ाने की घोषणा की थी जिसे जनता ने पूरी तरह ख़ारिज कर दिया ।कमोवेश यही स्थति अभी भी है।सरकार की चतुर्दिक असफलता से नकारात्मक वोट पाकर कोई भी भाजपा को सत्ता से बाहर कर दे पर उसके पक्ष में सकारात्मक समर्थन अभी भी कहीं दिख नहीं रहा है।
कांग्रेस कार्यसमिति ने 16 अक्टूबर को दिल्ली में संपन्न अपनी बैठक में देश की अर्थव्यवस्था में निरंतर गिरावट पर गंभीर चिंता व्यक्त की है। 2020-21 में अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट के बाद, मोदी सरकार ने वी-शेप रिकवरी की बात की थी। लेकिन सभी संकेतक बताते हैं कि हर क्षेत्र संकट के दौर से गुजर रहा है। मंदी और महामारी के दौर में जो रोजगार और नौकरियां खोई हैं, उनकी रिकवरी अभी तक नहीं हुई है।इस दौरान जो छोटे और मझोले काम धंधे बंद हुए हैं, वे अभी तक नहीं खुल सके हैं। लाखों परिवारों पर रोजी-रोटी और महंगाई की दोहरी मार पड़ी है।लेकिन इसमें किसी वैकल्पिक नीति पर चर्चा तक नहीं हुयी।
पिछले कुछ समय से कांग्रेस अध्क्ष राहुल गांधी बीजेपी की आर्थिक नीतियों के जवाब में कांग्रेस की ओर से कुछ अलग किस्म की आर्थिक नीतियां पेश करने पर जोर दे रहे हैं, ताकि जनता को दोनों दलों के बीच के मुख्य अंतर को आसानी से समझाया जा सके। राहुल गांधी ने लगातार मोदी सरकार की छवि गरीब-विरोधी और पूंजीपति-समर्थक बनाने की हरसंभव कोशिश की है।लेकिन राहुल गाँधी कांग्रेस कि तरफ से अभी तक भाजपा से अलग वैकल्पिक आर्थिक नीति कि स्पष्ट घोषणा नहीं कर सके हैं।
इसलिए आम जनता में यह विश्वास नहीं हो पा रहा है की कांग्रेस की सरकार मोदी की सरकार से अलग आर्थिक नीतियां अपनायेगी और अडानी और अंबानी से राष्ट्रीयकरण या किसी अन्य उपाय से निपटेगी। यही मोदी जी आर्थिक सुधार के नाम पर पूरे देश की संपत्तियों को जिस तरह ओने पौने दाम पर बेच रहे हैं और अपने चहेतों के बीच चैरिटी की तरह वितरण कर रहे हैं उसे कैसे वापस लाया जाएगा,इस पर भी अभी तक कोई रोडमैप कांग्रेस या राहुल गाँधी ने देश से साझा नहीं किया है।
(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)
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