जब बेदी और मंटो में ख़तो-किताबत बंद हो गई

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अफ़साना निगार राजिंदर सिंह बेदी का दौर वह हसीन दौर था, जब उर्दू अदब में सआदत हसन मंटो, कृश्न चंदर, इस्मत चुग़ताई और ख़्वाजा अहमद अब्बास जैसे महारथी एक साथ अपने अफ़सानों से पूरे मुल्क में धूम मचाए हुए थे। इन सबके बीच एक प्यार भरी नोक-झोंक भी चलती ही रहती थी। एक बार मंटो ने बेदी को एक ख़त लिखा। ख़त का मज़मून कुछ इस तरह से था, ‘‘बेदी! तुम्हारी मुसीबत यह है कि तुम सोचते बहुत ज़्यादा हो। मालूम होता है कि लिखने से पहले सोचते हो, लिखते हुए सोचते हो और लिखने के बाद भी सोचते हो।’’ बहरहाल अब ख़त का ज़वाब देने की बारी बेदी की थी।

कुछ अरसा बीता, बेदी ने जब मंटो के कुछ अफ़सानों में लाउबालीपन (लापरवाही) देखा, तो उन्हें लिखा, ‘‘मंटो तुम में एक बुरी बात है और वह यह कि तुम न लिखने से पहले सोचते हो और न लिखते वक्त सोचते हो और न लिखने के बाद सोचते हो।’’ बेदी समग्र में यह वाक़या ‘अफ़सानवी तजरबा और इज़हार के तख़लीकी मसाइल’ लेख में दर्ज है। इसके बाद मंटो और बेदी में ख़तो-किताबत बंद हो गई। बाद में पता चला कि उन्होंने बेदी की तनक़ीद का उतना बुरा नहीं माना, जितना इस बात का ‘‘कि वे लिखेंगे ख़ाक! जबकि शादी से परे उन्हें किसी बात का तजरबा ही नहीं।’’

उर्दू अदब में राजिंदर सिंह बेदी की शिनाख़्त अफ़साना निगार के तौर पर है। उन्होंने सिर्फ़ एक उपन्यास ‘एक चादर मैली सी’ लिखा और वह भी संग—ए—मील है। साल 1962 में छपे इस उपन्यास को 1965 में साहित्य अकादमी अवॉर्ड से नवाज़ा गया। बाद में इस उपन्यास पर इसी नाम से एक फ़िल्म भी बनी, हालांकि वह बहुत क़ामयाब साबित नहीं हुई। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि ‘एक चादर मैली सी’ सबसे पहले ‘नुकूश’ पत्रिका के कहानी विशेषांक में शाया हुआ था। पाठकों की बेहद पसंदगी और मांग पर बाद में यह अलग से छपा।बेदी ने कुछ नाटक भी लिखे। उनके नाटकों का पहला संग्रह ‘बेजान चीज़ें’ शीर्षक से 1943 में छपा। 1982 में छपी किताब ‘मुक्तिबोध’ में राजिंदर सिंह बेदी के लेख, संस्मरण और भाषण शामिल हैं। इस किताब में पाठकों को बेदी के लेखन के दीगर पहलू देखने को मिलते हैं।

किताब के ‘अफ़सानवी तजरबा और इज़हार के तख़लीकी मसाइल’ लेख में फ़न और अदब के तआल्लुक से राजिंदर सिंह बेदी ने क्या ख़ूब लिखा है, ‘‘फ़न किसी शख़्स में सोते की तरह से नहीं फूट निकलता। ऐसा नहीं कि आज रात आप सोएंगे और सुबह फ़नकार होकर जागेंगे। यह नहीं कहा जा सकता कि फ़लां आदमी पैदाइशी तौर पर फ़नकार है, लेकिन यह ज़रूर कहा जा सकता है कि उसमें सलाहियतें हैं, जिनका होना बहुत ज़रूरी है।

चाहे वो उसे जिबिल्लत (सहजवृत्ति) में मिले और या वह रियाज़त (अभ्यास) से उनका इक्तिसाब (अर्जन) करे। पहली सलाहियत तो यह है कि वह हर बात को दूसरों के मुक़ाबले में ज्यादा महसूस करता हो, जिसके लिए एक तरफ़ तो दादो-तह्सीन (प्रशंसा) पाए और दूसरी तरफ ऐसे दुख उठाए जैसे कि उसके बदन पर से ख़ाल खींच ली गई हो और उसे नमक की कान (खान) से गुजरना पड़ रहा हो। दूसरी सलाहियत यह कि उसके कामो-दहन (दांत और मुंह) उस चरिंद (शाकाहारी पशु) की तरह से हों, जो मुंह चलाने में ख़ुराक को रेत और मिट्टी से अलग कर सकें। फिर यह ख़्याल उसके दिल के किसी कोने में न आए कि घासलेट या बिजली का ज़्यादा ख़र्च हो गया या काग़ज़ के रिम के रिम ज़ाया हो गए। वह जानता हो कि कुदरत के किसी बुनियादी क़ानून के तहत कोई चीज़ ज़ाया नहीं होती।

फिर वह ढीठ ऐसा हो कि नक्शे-सानी (दूसरा ख़ाका) को हमेशा नक्शे-अव्वल (पहला ख़ाका) पर तरजीह दे सके। फिर अपने फ़न से परे की बातों पे कान दे – मसलन मौसीक़ी और जान पाए कि उस्ताद आज क्यों सुर की तलाश में बहुत दूर निकल गया है। मुसव्विरी के लिए निगाह रखे और समझे कि विशी-वाशी में खुतूत (रेखाएं) कैसी रानाई (सुंदरता) और तवानाई (ऊर्जा) से उभरे हैं। अगर यह सारी सलाहियतें उसमें हों, तो आख़िर में एक मामूली सी बात रह जाती है और वह यह कि जिस एडिटर ने उसका अफ़साना वापस कर दिया है, नाअह्ल (अयोग्य, मूर्ख ) है।’’

बेदी न तो एक बंधे-बंधाए ढांचे में लिखने के क़ायल थे और न ही उन्होंने अपना लेखन किसी विचारधारा में क़ैद होकर लिखा। कृश्न चंदर और ख़्वाजा अहमद अब्बास के बेश्तर लेखन में जहां वैचारिक आग्रह साफ दिखाई देता है, तो वहीं बेदी किसी भी तरह के मंसूबाबंद लेखन के सख़्त ख़िलाफ़ थे। इस बारे में उनका साफ़ कहना था, ‘‘आख़िर क्या किसी का दिमाग़ ये सोच कर बैठता है कि बस इसी ढांचे पर छांट-छांट कर बात लिखेगा। वही लिखेगा जो उनके उसूलों पर फिट बैठता है। नहीं जी। हर आदमी का अपना एक फ़लसफ़ा होता है और दुनिया के सारे हादिसात वो क़बूल करता है और उसकी तहरीर में वो उसके ज़ेहन की छलनी से छनकर आता है।

ख़्याल कोई चीज़ नहीं, वो एक पैटर्नलेस बहाव है। पुरअस्रार ही है। ये जो मार्क्सवादी समाज के सोशलिस्ट पैटर्न की बात करते हैं, उसमें अगर मुझे कोई चीज़ नापसंद है, तो वो है रेजिमेंटेशन।’’ अलबत्ता एक अदीब से वे इस बात की ज़रूर उम्मीद करते थे, ‘‘अदीब फ़िलॉस्फ़र होता है। अगर वो समझता है कि उसके चारों तरफ़ जो रवायतें या अक़ीदे हैं, उनकी बुनियाद ग़लत है, तो ज़रूरत है कि उनके ख़िलाफ़ लिखा जाए। किसी बिलीफ को तोड़ा जाए, चोट की जाए और नए मौजूआत सामने लाए जाएं। इसी में अदब की कामयाबी है।’’

(जाहिद खान वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल एमपी के शिवपुरी में रहते हैं।)

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