दिल्ली चुनाव: पूर्वांचली वोटर किसके साथ, इसके बंटने पर कौन फंसेगा?

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दिल्ली विधान सभा चुनाव की दुंदुभी देश के कई राज्यों तक सुनाई पड़ रही है। पांच फरवरी को होने वाले चुनाव मे सरकार बनाने की दावेदारी आप कर रही है, लगे हाथ बीजेपी का भी दावा कोई कमजोर नहीं है। दिल्ली के चारों तरफ लगभग बीजेपी की मजबूत मौजूदगी है। राजस्थान में बीजेपी सरकार चला रही है और हरियाणा में तो उसकी जड़ें मजबूत हैं ही। केंद्र में मोदी की सरकार है और यूपी में योगी की सरकार है।

उधर बिहार में नीतीश कुमार की अगुवाई वाली एनडीए की सरकार है। यूपी और बिहार सरकार की चर्चा इसलिए जरूरी है क्योंकि इन्हीं दोनों राज्यों से दिल्ली की आबादी बढ़ी हुई है। दिल्ली में इन्हें पूर्वांचली के नाम से जानते हैं। यह एक ऐसा समूह है जो हकीकत में तो किसी का नहीं है। खुद का भी नहीं। अपनों का भी नहीं लेकिन इन पूर्वांचलियों के नाम पर दिल्ली की सरकार बनती है और बिगड़ भी जाती है। 

कहते हैं कि दिल्ली में पूर्वांचलियों की आबादी 50 लाख से ज्यादा है। सच क्या है इसकी किसी को खबर नहीं। सरकार को भी नहीं। लेकिन इतना साफ है कि दिल्ली की राजनीति को पूर्वांचली प्रभावित करते हैं। पूर्वांचली जिस पार्टी की डोर पकड़ते हैं, उस पार्टी की सरकार बन जाती है। पिछले दो चुनाव में पूर्वांचलियों का वोट आप के साथ गया था, बाकी दलों का सूपड़ा साफ हो गया। कांग्रेस तो गर्त में चली गई और बीजेपी कहीं की नहीं रही। लेकिन बीजेपी के पास केंद्र की ताकत थी और अब भी है इसलिए उसने आप की सरकार को दंतहीन बना दिया।

यह अजीब बात कि दिल्ली में चुनी हुई सरकार के पास कुछ भी नहीं है। पानी, बिजली और शिक्षा के सिवा। बाकी ने और सीवर की सफाई का काम नगर निगम के पास है जो अब आप के पास गया है। बीजेपी का सालों तक नगर निगम पर कब्जा   था। दिल्ली में नगर निगम का काम कैसा रहा यह सब जानते ही हैं। लेकिन आज वही बीजेपी आप पर दोष मढ़ रही है कि ‘आप’ वाली नगर निगम ने दिल्ली का कबाड़ा कर दिया। भगत लोग खूब नारे लगा रहे हैं, इस बार दिल्ली को बदल देंगे। बीजेपी की सरकार आ रही है। दिल्ली की किस्मत बदल रही है। कुछ ऐसे ही नारे गूंज रहे हैं।    

खेल बेजोड़ है। चुनी हुई सरकार के पास कोई ताकत नहीं। सारी ताकत उप राज्यपाल के पास है यानी गृहमंत्री के पास। यह भी कह सकते हैं कि दिल्ली की सत्ता अमित शाह के पास है। लेकिन दिल्ली की जनता केंद्र सरकार से यह नहीं पूछती कि उसने वोट तो आप को दिया था, फिर आप की सरकार कहाँ है? देश का कोई बाकी मुख्यमंत्री भी इस पर कोई सवाल नहीं करता। ऐसे में सवाल यह भी है कि दिल्ली में चुनाव की जरूरत क्यों है? इस चुनाव का मकसद क्या है? फिर जनता को इससे लाभ क्या है? कोई भी संतोषप्रद उत्तर आपको नहीं मिल सकेगा।

इसी दिल्ली की असली ताकत को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक मामला गया था। एक बार का फैसला चुनी हुई सरकार के पक्ष में गया और बाद के फैसले में पूरी ताकत उपराज्यपाल के हवाले कर दी गई। किसी दूसरे राज्य में इस तरह की कहानी होती तो कोई मुख्यमंत्री बन सकने की कोशिश भी नहीं करता। सच तो यही है कि मौजूदा समय में अभी दिल्ली की जो स्थिति है उसमें चुनी हुई सरकार के पास कुछ भी नहीं है। कह सकते हैं कि दिल्ली उपराज्यपाल के हाथ में है और उनकी ही सरकार चलती है जिसे आम भाषा में राष्ट्रपति शासन कहते हैं। 

बावजूद इसके दिल्ली में चुनाव हो रहे हैं। आप की सरकार फिर बनी तो वही होगा जो अब तक होता रहा है। और बीजेपी की सरकार बन गई तो सरकार फिर केंद्र के जरिये संचालित होगी। पुलिस भी उनकी ही होगी और सभी व्यवस्थाएं भी बाकी राज्यों की तरह चलती रहेंगी। और अगर कांग्रेस की सरकार बन गई तो फिर क्या होगा? क्या उपराज्यपाल कांग्रेस की सरकार को चलने देगा? हरगिज़ नहीं। फिर दिल्ली में एक नया बवाल भी खड़ा हो सकता है और उस बवाल की कहानी कहाँ तक जाएगी यह कौन जानता है?

लेकिन हम बात तो पूर्वांचली समाज की कर रहे थे। यह समाज इस बार क्या करेगा? किसको वोट डालेगा। सब एकजुट होकर फिर से आप के साथ जायेंगे या फिर पाला बदलकर बीजेपी को सत्ता सौंप देंगे? या इस बार वह कांग्रेस पर दांव लगाएगा? अभी कुछ साफ़ नहीं है। लेकिन इतना साफ है कि तीनों दल पूर्वांचली को बटोरने के लिए हांफ रहे हैं। बिहार और यूपी गए अपने गांव से उन्हें बुलाया जा रहा है। आने का खर्च भी दिया जा रहा है।

खाने-पीने की व्यवस्था भी की जा रही है। दिल्ली से गए कई नेता पूर्वांचल के इलाकों में अपनी-अपनी पार्टी के लिए पूर्वांचलियों को समझा रहे हैं, लालच दे रहे हैं। कोई मंदिर का पाठ पढ़ा रहा है तो कोई धर्मनिरपेक्षता और संविधान की दुहाई दे रहा है। कोई शिक्षा और सेहत की बात कर रहा है। पूर्वांचल के गावों में दिल्ली का चुनाव एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है। 

यह सब क्यों हो रहा है इसकी भी पड़ताल जरूरी है। दिल्ली 70 विधान सभाओं में 20 सीटों पर तो सीधा पूर्वांचलियों का दखल है। जिसे चाहे उसे वे जिता सकते हैं। और ऐसा करते भी रहे हैं। 20 सीटें ऐसी भी हैं जहां पूर्वांचली बेहतर प्रभाव रखते हैं। कह सकते हैं कि दिल्ली की सरकार बनाने और बिगाड़ने में पूर्वांचली समाज का बड़ा असर है। यही कारण है कि कोई भी राजनीतिक दल इस वर्ग को नाराज नहीं करना चाहता। 

आम आदमी पार्टी ने 12 पूर्वांचलियों को मैदान में उतारकर इस वोट बैंक को साधने की रणनीति बनाई है। भाजपा ने केवल पांच पूर्वांचलियों को टिकट दिया है, लेकिन उसने मनोज तिवारी, रवि किशन और दिनेश यादव निरहुआ को स्टार कैम्पेनर बनाकर पूर्वांचलियों को अपने खेमे में करने की रणनीति अपनाई है। कांग्रेस भी कन्हैया कुमार जैसे लोगों को स्टार कैम्पेनर बनाकर इस वर्ग को अपनाने की कोशिश कर रही है। ऐसे में यह दिलचस्प होगा कि इस बार यह वर्ग किसकी तरफ मुड़ता है।

दरअसल, दिल्ली में सबसे कमजोर तबके से लेकर ऊंचे पदों तक पूर्वांचली लोग देखे जाते हैं। ऑटो चलाने वाले, अन्य ड्राइवर, श्रमिक वर्ग, रेहड़ी-पटरी पर काम करने वाले छोटे दुकानदार, छोटी-मोटी नौकरी करने वाले ज्यादातर इसी वर्ग से आते हैं। दिल्ली की झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले मतदाताओं का सबसे बड़ा वर्ग इन्हीं पूर्वांचलियों से आता है। यूपी और बिहार में यही वर्ग नरेंद्र मोदी की ताकत बनता है और भाजपा का झंडा लेकर चलने वालों में यही वर्ग सबसे आगे रहता है। यही वह वर्ग है जो हिन्दू धर्म के नाम पर कुछ भी करने को तैयार है और यही वह वर्ग है जिसे साधने के लिए चुनावी पार्टियां रेवड़ियां बाटती हैं।

आज की तारीख में इस वर्ग में आप की दखल ज्यादा ही और फिर बीजेपी इस वर्ग में ज्यादा प्रभाव रखती है। यही वर्ग कभी कांग्रेस की ताकत हुआ करती थी लेकिन समय के साथ यह वर्ग आज कांग्रेस का दामन छोड़ चुका है। कांग्रेस अब फिर से इस वर्ग को साधने के लिए ईमानदार प्रयास तो कर रही है लेकिन राजनीति में ईमानदारी कैसी? राजनीति तो एक बटमारी है। जो जितना बड़ा बटमार उसकी उतनी बड़ी हैसियत। कांग्रेस इसमें आज टिक नहीं पा रही है। इस बार भाजपा ने झुग्गियों के बदले पक्के मकान देने का वादा कर इस वोटर वर्ग को अपने साथ लाने की रणनीति अपनाई है। गरीबों के बीच पक्के मकान का आकर्षण उन्हें भाजपा के पक्ष में मोड़ने में अहम भूमिका निभा सकता है।

भाजपा ने इस चुनाव में लक्ष्मी नगर से अभय वर्मा, करावल नगर से कपिल मिश्रा, विकास पुरी से डॉ. पंकज कुमार सिंह, किराड़ी से बजरंग शुक्ला और संगम विहार से चंदन चौधरी को टिकट दिया है। भाजपा की तुलना में आम आदमी पार्टी ने लगभग एक दर्जन पूर्वांचली प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है। इनमें सबसे बड़े चेहरे गोपाल राय बाबरपुर से चुनाव मैदान में हैं, जबकि द्वारका से विनय मिश्रा, किराड़ी से अनिल झा, बुराड़ी से संजीव झा, पटपड़गंज से अवध ओझा, राजेंद्र नगर से दुर्गेश पाठक और मालवीय नगर से सोमनाथ भारती भी आम आदमी पार्टी के बड़े पूर्वांचली चेहरे चुनाव मैदान में हैं। इनके अलावा मॉडल टाउन से अखिलेश पति त्रिपाठी, रोहतास नगर से सरिता सिंह, शालीमार बाग से वंदना कुमारी भी इस चुनाव में अपना भाग्य आजमा रहे हैं।    

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता 2014 के दौरान अपने चरम पर थी। उनकी इसी लोकप्रियता के दौर में दिल्ली में 2015 में विधानसभा चुनाव हुए थे। लोग यही मानकर चल रहे थे कि मोदी की लोकप्रियता के सहारे भाजपा दिल्ली में भी बड़ी जीत हासिल करने में कामयाब रहेगी। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था, लेकिन अरविंद केजरीवाल की मुफ्त बिजली-पानी की आंधी में मोदी की लोकप्रियता नहीं टिकी और केजरीवाल ने इन्हीं पूर्वांचलियों की मदद से दिल्ली की 70 में 67 सीटें जीतने का अद्भुत ऐतिहासिक रिकॉर्ड बना दिया।

अब मुद्दे की बात तो यह है कि इस बार के चुनाव में पूर्वांचली क्या करेंगे? किसके साथ जायेंगे? कहने के लिए बीजेपी पूर्वांचल मोर्चा भी चला रही है। बीजेपी के पास बड़े पूर्वांचल के नेता भी हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी को काफी लाभ भी हुआ है। लेकिन सच तो यही है कि विधान सभा चुनाव में पूर्वांचली समाज बंट जाएगा। बड़ा हिस्सा आप के साथ खड़ा होगा जबकि बाकी हिस्सा बीजेपी और कांग्रेस की तरफ़ चला जाएगा।

बीजेपी को बाकी अन्य समाज का वोट मिल सकता है लेकिन बीजेपी सरकार बनाएगी यह अभी दूर की कौड़ी लग रही है। आप भी अकेले सरकार इस बार शायद ही बना सके। उसे सरकार बनाने के लिए कुछ अन्य विधायकों की जरूरत हो सकती है। और कोई बड़ा चमत्कार हुआ तो कांग्रेस इस बार कुछ बेहतर कर सकती है और अगर दर्जन भर सीट पर भी कांग्रेस की जीत हो गई तो फिर किसी के लिए सरकार बनाना आसान नहीं होगा। यही वजह है कि बीजेपी और आप एक ही सूत्र पर काम कर रहे हैं कि पूर्वांचली बंटे नहीं। बंट गए तो आप और बीजेपी का खेल फंस जाएगा और खेल फंसा तो कांग्रेस का खेल शुरू हो जाएगा।

(अखिलेश अखिल वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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