सिंघु बॉर्डर पर एक दलित शख्स की हत्या की घटना को बहुतेरे लोग गुरु ग्रन्थ साहब की बेअदबी से जोड़कर सही ठहराने लगे। वह उस रफ जस्टिस (मॉब लींचिंग) के हक में खड़े हो गए जिसमें आरोपी को अपनी बेगुनाही साबित करने का एक मौका तक नहीं मिलता। यह ट्रेंड इतना खतरनाक है कि दस लोग किसी एक को पकड़कर पीट पीट कर मार दें और फिर कह दें कि यह गुरु ग्रन्थ साहिब या गीता-कुरान की बेअदबी कर रहा था। पीट पीटकर मारने वालों को उस मरने वाले के कृत्य के सबूत देने की जरूरत भी नहीं पड़ती। फिर लोगों का एक हुजूम उन रफ मॉब लिंचर्स के हक में खड़ा हो जाता है। वे इतिहास से फूहड़ तर्क निकाल निकालकर मॉब लींचिंग की घटना को जस्टिफाई करने लगते हैं। अरे जनाब, उस आरोपी को तो आपने बेरहमी से पहले ही मार दिया, उसको अपनी बात रखने का या अपने आपको बेगुनाह साबित करने का एक मौका दिए बगैर। एक पत्रकार को ऐसे लोगों की गोद में नहीं बैठना चाहिए।
फिर झूठे नरेटिव के सहारे अपने हित साधने वाले लोगों की फौज होती है। ये लोग उस दिन फ़र्ज़ी सेक्युलर और नास्तिक बनते हैं और फिर उस घटना के सहारे उस पूरे के पूरे धर्म को टारगेट पर ले लेते हैं। साथ में ये भी बताते हैं कि उनका बहुसंख्यक धर्म (भारत के मामले में हिन्दू) कितना सहिष्णु है। मुस्लिमों के मामले में हम देख चुके हैं कि अगर अमानवीय घटना को अंजाम देने वाला मुस्लिम है तो पूरे के पूरे मुस्लिम धर्म को टारगेट पर ले लिया जाता है। अब सिक्खी वाले मामले में भी दिख रहा है कि इस घटना के सहारे कैसे ये लोग सिखों और सिक्खी को टारगेट कर रहे हैं। क्या पत्रकार को ऐसे लोगों की गोद में बैठना चाहिए।
एक तीसरी जमात होती है जिन्हें अपनी पोलिटिकल करेक्टनेस के हिसाब से तथ्यों को पेश करना और छुपाना आता है और अपनी दुकानदारी चलानी आती है। जैसे इस घटना में अपने आपको दलित हितैषी घोषित कर चुके कई लोग और पत्रकार कह रहे हैं कि लखबीर सिंह को इसलिए मार दिया गया कि वह दलित था और इसने धार्मिक ग्रन्थ को छू लिया। उनके नरेटिव की पड़ताल करेंगे तो आप पाएंगे कि उन्होंने जो तथ्य परोसे हैं वो बिल्कुल सच हैं, जैसे लखबीर सिंह दलित थे। लेकिन वह एक तथ्य यह छुपा गए कि लखबीर को मारने वाले भी ज्यादातर दलित ही थे। उनका काम अपनी पोलिटिकल करेक्टनेस के हिसाब से सिलेक्टेड तथ्यों को बरतना है ताकि उनकी दुकानदारी चलती रहे। क्या एक पत्रकार को उनकी गोद में बैठ जाना चाहिए?
चौथे गज़ब लोग हैं। वह दोनों हाथों में लड्डू रख सकते हैं। वह दोनों पालों के साथ सहमत दिखते हैं। दोनों क्या, सभी पालों के साथ सहमत दिखते हैं। उनका ‘एट लार्ज’ अपनी विश्वसनीयता बनाए रखनी है। किसान नेताओं ने सिंघु की घटना पर जो किया है उसको बारीकी से देखना। समझ आएगा कि मैं किस और इशारा कर रहा हूँ। तो क्या इन लोगों की गोद में बैठ जाए पत्रकार।
आखिर में बस यही कहूंगा कि सबके अपने पाले तय हैं। किसी को सही और गलत से मतलब नहीं। अपनी पोलिटिकल करेक्टनेस की चाशनी से मतलब है और अपनी दुकानदारी चलाने के लिए चाहिए आधे अधूरे तथ्यों भर से। कई लोग तो सिर्फ समाज में सयाना (समझदार) दिखने के चक्कर में यह सब ज्ञान झाड़ते रहते हैं।
ऐसे में एक पत्रकार को ऐसे सभी पाले वाले लोगों को नमस्ते बोलकर अकेले पड़ जाना चाहिए। ऐसे पत्रकार को एक बार स्टेट रगड़ देती है तो दूसरी बार जनता।
(मनदीप पुनिया गांव सवेरा के संपादक हैं।)
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