गोदी मीडिया के तमाम प्लेटफॉर्म चुनाव संचालन नियमों में किए बदलाव को चुनाव आयोग की कारस्तानी बता रहे हैं, जबकि यह सब केंद्र सरकार ने किया है। चुनाव आयोग के पास नियमों में बदलाव की शक्ति नहीं है, वह सिर्फ सिफारिश कर सकता है। तो यही हुआ है। चुनाव आयोग की ही सिफारिश पर केंद्र सरकार ने 20 दिसंबर को चुनाव आयोग के संचालन नियमों में संशोधन करके चुनावी दस्तावेजों के एक हिस्से तक जनता की पहुंच को प्रतिबंधित कर दिया है।
चुनाव आयोग (ईसी) की सिफारिश के बाद केंद्रीय कानून मंत्रालय ने यह कदम उठाया है। चुनाव आयोग ने अपने दावे या सफाई में कहा है कि संशोधन का मकसद इलेक्ट्रॉनिक डेटा तक पहुंच को प्रतिबंधित करना है। यह सवाल भी उठ रहा है कि बदलाव से आखिर फायदा किसे होने वाला है। यह सवाल भी उठ रहा है कि आखिर केंद्र सरकार को पारदर्शिता से डर क्यों लगता है!
लेकिन विपक्ष और पारदर्शिता कार्यकर्ता इसे सूचना के अधिकार और चुनावी स्वतंत्रता पर हमला बताकर इसका विरोध कर रहे हैं।
क्या था, क्या किया
चुनाव आयोग (EC) की सिफारिश पर कानून मंत्रालय ने ‘द कंडक्ट ऑफ इलेक्शन रूल’- 1961 के नियम 93(2)(A) में बदलाव किया है। नियम 93 कहता है- ‘चुनाव से जुड़े सभी दस्तावेज सार्वजनिक रूप से उपलब्ध रहेंगे।’ इसे बदलकर अब किया गया है, ‘चुनाव से जुड़े सभी दस्तावेज ‘नियमानुसार’ सावर्जनिक रूप से उपलब्ध रहेंगे’।
केंद्र ने क्यों बदले नियम?
दरअसल इस बदलाव की जरूरत केंद्र को तब महसूस हुई, जब पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने अपने हाल के एक आदेश में चुनाव आयोग को आदेश दिया कि वह हरियाणा विधान सभा चुनाव के सभी दस्तावेजों को साझा करे। आदेश में कहा गया कि इन दस्तावेजों में नियम 93(2) के तहत सीसीटीवी फुटेज आदि डिजिटल डेटा भी शामिल होंगे। यह आदेश याचिकाकर्ता और मुखर अधिवक्ता महमूद प्राचा की याचिका पर आया था।
कायदे से, नियमों में बदलाव के लिए सफाई केंद्र सरकार के कानून मंत्रालय को देनी चाहिए थी, लेकिन अघोषित रूप से यह चुनाव आयोग की तरफ से दी गई। चुनाव आयोग का कहना है कि नियम में चुनाव पत्रों का उल्लेख है। लेकिन, चुनावी सामग्री और दस्तावेज विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को संदर्भित नहीं करते हैं। इस अस्पष्टता (ambiguity) को दूर करने और मतदान की गोपनीयता के उल्लंघन और किसी व्यक्ति द्वारा कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग करके मतदान केंद्र के अंदर के सीसीटीवी फुटेज के संभावित दुरुपयोग से बचने के लिए नियम में संशोधन किया गया है। आयोग का तर्क है कि सीसीटीवी फुटेज को साझा करने से भारी नुकसान हो सकता है, खासकर संवेदनशील इलाकों में। इसके अलावा, दूसरे सभी दस्तावेज सावर्जनिक जांच के लिए उपलब्ध रहेंगे।
दूसरी तरफ पारदर्शिता के तरफदारों और सूचनाधिकार कार्यकर्ताओं का मानना है कि जहां तक चुनावों का सवाल है, नियम 93 सूचना के अधिकार के समान है और इसमें कोई भी बदलाव नागरिकों के चुनाव प्रक्रिया के बारे में जानने के अधिकार को चोट पहुंचाता है। सूचनाधिकार कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज ने अपने एक इंटरव्यू में कहा है कि नियमों में यह संशोधन चुनाव संचालन की पारदर्शिता को ही प्रतिबंधित कर देगा। राष्ट्रमंडल मानवाधिकार पहल के निदेशक वेंकटेश नायक का कहना है कि शुरुआती जांच से पता चलता है कि संशोधन का मकसद संसदीय और राज्य विधानसभा चुनावों के दौरान बड़ी संख्या में तैयार होने वाले दस्तावेजों तक नागरिक मतदाताओं को पहुंच के अधिकार को प्रतिबंधित करना है। इनमें से कई चीजों का चुनाव नियमों के संचालन में विशेष रूप से उल्लेख नहीं किया गया है। क्योंकि, समय-समय पर चुनाव आयोग अपनी निर्देश-पट्टिकाओं और प्रकाशित पुस्तिकाओं में इसे नवीनीकृत करता रहता है।
वेंकटेश ने एक अखबार को दिए इंटरव्यू में कहा कि हाल के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में मतदान प्रतिशत को लेकर विवाद उठा था। यह विवाद मतदान के समय को लेकर था, क्योंकि चुनाव नियमों में इसका कोई विशेष उल्लेख नहीं है। चुनाव आयोग की एक व्यवस्था है कि जो मतदाता, चुनाव समाप्त होने की समय-सीमा के भीतर पंक्ति में लग जाएगा तो उसे मतदान कराया जाएगा। ऐसी स्थिति में पीठासीन अधिकारियों की डायरी तथा चुनाव अधिकारियों की रिपोर्ट आदि से ही सही स्थिति का पता चलता है। लेकिन, इस संशोधन का उद्देश्य ऐसे दस्तावेजों और विभिन्न चुनाव अधिकारियों द्वारा दाखिल की जाने वाली कई अन्य रिपोर्टों और रिटर्न तक पहुंच को रोकना है।
कांग्रेस की मांग
हालांकि, कांग्रेस ने चुनाव नियमों में बदलाव के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके केंद्र सरकार के संशोधन को रद्द करने की मांग की है। कांग्रेस के नेता जयराम रमेश ने कहा कि यह संशोधन चुनाव सामग्रियों को प्राप्त करने के नागरिकों के अधिकार को प्रतिबंधित करता है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा है कि यह कदम चुनाव आयोग की संस्थागत सत्यनिष्ठा को तबाह करने का सोचा-समझा षड्यंत्र है, जबकि समाजवादी पार्टी तथा अन्य वामदलों ने चुनाव आयोग पर दूसरे दलों को नजरअंदाज करके एकतरफा निर्णय के जरिए बहुदलीय लोकतंत्र को कमजोर करने का आरोप लगाया है।
फिलहाल, मामला शीर्ष अदालत में चला गया है और देश को इंतजार है कि वहां से कैसा आदेश आता है। लेकिन, लंबे अरसे से चुनाव आयोग पर केंद्र सरकार की ‘गुलामी’ करने का आरोप लगता रहा है। चुनाव तिथियों में बदलाव करने की बात हो या केंद्रीय नेताओं के जहरीले भाषणों को नजरअंदाज करने या फिर केंद्र के हिसाब से चुनाव संचालित करने, देखा गया है कि चुनाव आयोग हमेशा केंद्र सरकार के इशारे पर नाचता रहता है। हाल ही में, चुनाव नियमों में बदलाव से भी इस सच्चाई को बल मिलता दिखाई दे रहा है। चुनाव आयोग फिलहाल, कोई सीधा और संतोषजनक उत्तर दे पाने में असमर्थ दिखाई दे रहा है।
(राम जन्म पाठक वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं।)
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