लेह। गांधी के दांडी मार्च से प्रेरित लद्दाखियों की पश्मीना मार्च मांग और घोषणा केंद्र सरकार के गले की हड्डी बन गई है। जब सोनम वांगचुक के नेतृत्व में लद्दाखियों ने 7 अप्रैल को पश्मीना मार्च की घोषणा की तो केंद्र सरकार और लद्दाख में उसके स्थानीय प्रतिनिधियों के माथे पर पसीना आ गया। घबराहट में केंद्रीय गृहमंत्रालय ने इसे किसी भी कीमत पर न होने देने का निर्णय लिया। लद्दाखियों को धमकियां दी गईं और हर तरीके से दबाव बनाया गया कि वे इसे रद्द कर दें। सरकार के दबाव में 7 अप्रैल के पश्मीना मार्च को स्थगित कर दिया गया।
उसके बाद पश्मीना मार्च की अगली तारीख 17 अप्रैल तय की गई। नरेंद्र मोदी सरकार घबरा उठी, उसने धमकी दी कि यदि पश्मीना मार्च होगा, तो लद्दाख में धारा 144 लागू कर दी जाएगी और इंटरनेट सेवा बंद कर दी जाएगी। इसका सीधा मतलब था कि लद्दाख की अर्थव्यवस्था को ठप्प कर दिया जाएगा और लद्दाखियों की रोजी-रोटी के सबसे बड़े स्रोत पर्यटन को ठप्प कर दिया जाएगा। यह ऐसी धमकी थी, जिसका लद्दाखियों के लिए बहुत बड़ा मायने था। इसका मतलब होता उनकी पूरे साल के आय के मुख्य स्रोत से उन्हें वंचित कर देना।

सवाल यह है कि आखिर क्या है पश्मीना मार्च और केंद्र सरकार इससे क्यों इतना डर रही है? इसके बारे में जनचौक से बात करते हुए सोनम वांगचुक बताते हैं कि पश्मीना मार्च का उद्देश्य चरवाहों और ग्रामीणों के साथ भारत-चीन सीमा की उस जगह तक जाना था, जहां 2020 के पहले लद्दाख के चरवाहे भेंड़-बकरियों को चराने जाते थे, जहां चारागाह मौजूद हैं। चारागाह पश्मीना ऊन देने वाली बकरियों के लिए सबसे जरूरी चीज है। ये चारागाह लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल ( LAC) के अंदर आते थे। हम जानते हैं कि लद्दाख क्षेत्र में भारत और चीन की सीमा का एक बड़ा हिस्सा है।
1962 के युद्ध के बाद दोनों देशों के बीच कई दौर की बात-चीत के बाद यह तय हुआ था कि दोनों देश की सेना सीमा विवाद सुलझने से पहले उन स्थानों तक ही रहेगी जहां उसका कब्जा है। जिसे वास्तविक नियंत्रण रेखा ( लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल) कहा गया है। दोनों देशों की वास्तविक नियंत्रण रेखा के बीच एक बड़ा क्षेत्र ऐसा था, जिसे दोनों देशों में किसी का नियंत्रण नहीं माना जाएगा।
इस दायरे में दोनों देशों की सेना गश्त करेगी और देखेगी किसी भी देश की सेना वास्तविक नियंत्रण रेखा ( LAC) का उल्लंघन न करे और न ही कोई स्थायी निर्माण करे। लद्दाख के लोग भारत की इस वास्तविक नियंत्रण रेखा तक आराम से आते-जाते थे, वहां के चारागाहों में अपनी भेड़-बकरियां चराते थे। पश्मीना ऊन देने वाले इन भेड़ों को पालने के लिए यह चारागाह सबसे जरूरी स्थल थे।

भारत-चीन की सेनाओं के बीच गलवान (लद्दाख) झड़प के बाद चरवाहों और अन्य लोगों को अब वहां जाने नहीं दिया जा रहा है। चरवाहों को भारत की पहले की वास्तविक नियंत्रण रेखा से 15 किलोमीटर पहले ही भारतीय सैनिकों द्वारा रोक दिया जा रहा है। कुछ चरवाहे जब अपनी भेड़-बकरियां लेकर किसी तरह वहां गए तो चीनी सैनिकों ने उन्हें खदेड़ दिया और उनके साथ मार-पीट भी की। इस झड़प और मारपीट का वीडियो वायरल हुआ था। चीन की सीमा से सटे मान-मरे गांव के लोगों ने जनचौक से बात-चीत में साफ-साफ कहा कि हम पहले अपनी भेड़-बकरियों को लेकर जहां तक जा सकते थे, अब हमें वहां जाने नहीं दिया जा रहा है। पहले हम जहां अपनी भेड़-बकरियां आराम से चरा सकते थे, अब हम वहां जा भी नहीं सकते हैं।
हमारा चारागाह हमसे छीन लिया गया है। इन गांवों के जिन लोगों से जनचौक की टीम ने बात किया, उनमें कोई भी ऑन द रिकॉर्ड बात करने के लिए तैयार नहीं था। सभी डरे-सहमे हुए थे। एक व्यक्ति ( नाम नहीं लिखा जा सकता, वीडियो मौजूद) की बात जनचौक की टीम ने रिकॉर्ड कर लिया। उन्होंने विस्तार से बताया कि कैसे हम पहले कम से कम आठवीं फिंगर तक आराम से जाते-आते रहते थे, लेकिन अब हमें दूसरी फिंगर तक भी नहीं जाने दिया जा रहा है।
पहले के दिन को याद करते हुए उन्होंने कहा कि पहले तो हम बारहवीं फिंगर तक जाते थे। धीरे-धीरे भारतीय सेना पीछे हटती गई। अब हालात यह हो गया है कि हम अपने (भारतीय) चारागाहों तक नहीं जा सकते। उनकी इन बातों की पुष्टि गांवों के अन्य लोगों ने भी की, लेकिन डरे-सहमे हुए।

लद्दाख के किसी भी व्यक्ति से बात कीजिए वह यह स्वीकार करता है कि चीन ने 1962 के बाद 2020 में भी भारत ( लद्दाख) के बडे़ हिस्से पर कब्जा कर लिया। भाजपा के पूर्व विधायक और जम्मू-कश्मीर सरकार में मंत्री रहे शेरिंग दोरजे जनचौक से बात-चीत में नाम लेकर बताते हैं कि किन भारतीय जगहों पर 2020 (गलवान झड़प) के बाद चीन ने कब्जा किया है, जिसे नरेंद्र मोदी की सरकार ढंकने-छुपाने की कोशिश कर रही है।
भारतीय जमीन पर चीन के कब्जे को नरेंद्र मोदी सिरे से नकारते हैं, वे कहते हैं, न कोई घुसा, न कोई घुसा हुआ है। उनके इस दावे को विदेश मंत्री जयशंकर और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह भी जोर-जोर से दुहराते रहते हैं। इस मामले के विशेषज्ञ बहुत सारे प्रमाणों के साथ कहते हैं कि चीन ने कम से कम 2000 वर्ग किलोमीटर भारतीय जमीन पर कब्जा किया है। सुब्रमण्यम स्वामी दावे के साथ कहते हैं कि चीन ने कम से कम 4,000 वर्ग किलोमीटर कब्जा किया है।
सोनम वांगचुक और अन्य लोगों ने जनचौक से बात-चीत में यह खुलकर स्वीकार किया कि पश्मीना मार्च का सबसे बड़ा मकसद नरेंद्र मोदी के इस झूठ को उजागर करना था और है कि चीन ने भारत (लद्दाख) में न घुसा है और न घुसा हुआ है। लद्दाख के लोग यह सवाल पूछते हैं कि यदि चीन घुसा नहीं और न घुसा हुआ है, तो क्यों हमारे चरवाहों को भारतीय सेना उन स्थानों पर नहीं जाने दे रही है, जहां वे 2020 से पहले आमतौर जाते-आते रहते थे। अपनी भेड़-बकरियां चराते थे।

लद्दाख के लोग खुलेआम कहते हैं कि सरकार पश्मीना मार्च किसी कीमत पर इसलिए नहीं होने दे रही है, क्योंकि उनका यह झूठ पूरी तरह खुलकर सामने आ जाएगा कि चीन ने भारत की (लद्दाख) किसी भी जमीन पर कब्जा नहीं किया है। चीन कब्जे के सच को छुपाने के लिए और झूठ के उजागर होने से बचने के लिए केंद्र सरकार पश्मीना मार्च नहीं होने दे रही है। वे लोग सवाल करते हैं कि यदि चीन न घुसा है और न घुसा हुआ है, तो फिर हमें वहां जाने दीजिए, जहां हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी 2020 तक जाते रहे हैं।
नरेंद्र मोदी सरकार के लिए भारत-चीन सीमा मामलों के जानकारों, देश-दुनिया के सामरिक विशेषज्ञों और विपक्षी पार्टियों के इस आरोप को खारिज करना थोड़ा आसान था कि चीन ने 2020 में भारत के एक बडे़ हिस्से कब्जा कर लिया है। लेकिन पश्मीना मार्च तो मौका-मुआयना का मार्च था। जिससे खुलकर सच्चाई सामने आ जाती या आ आएगी कि सीमा पर वास्तविक स्थिति क्या है? पश्मीना मार्च दूध का दूध पानी का पानी कर देता। अपनी सारी ताकत लगाकर जिस तरह केंद्र सरकार ने पश्मीना मार्च रोका या रोकने पर उतारू है, वह इस बात का सबूत है कि सिर्फ दाल में कुछ काला ही नहीं, बल्कि पूरी की पूरी दाल ही काली है।
(लेह और चीन के बॉर्डर से लौटकर डॉ. सिद्धार्थ की रिपोर्ट।)
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