आज 16 अप्रैल का दिन बेहद महत्वपूर्ण है। सुप्रीम कोर्ट आज संसद से पारित वक्फ़ बिल के खिलाफ पेश की गई करीब 73 याचिकाओं को एक साथ क्लब कर उनकी सुनवाई शुरू कर रही है। दूसरी ओर, कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व पार्टी संगठन को मजबूती प्रदान करने की दिशा में पहली बार ठोस शुरुआत की ओर बढ़ रहा है। कई दशकों से कांग्रेस का पार्टी ढांचा पूरी तरह से लुंज-पुंज हालत में पड़ा हुआ था, लेकिन इस वर्ष पार्टी नेतृत्व ने इसके लिए अब तक की हवा-हवाई बयानबाजी के बजाय पूरे देश में जिला स्तर पर पार्टी के कामकाज को मजबूत बनाने पर जोर देकर एक गुरुतर काम को सिरे चढ़ाने की शुरुआत कर दी है।
अब आप कहेंगे कि इन दोनों का ईडी की कार्रवाई से क्या सरोकार? लेकिन फिर आपको इस तथ्य पर भी विचार करना होगा कि 2021 में जब ईडी पहले ही सोनिया और राहुल गांधी को समन कर घंटों पूछताछ कर चुकी है तो उसे इस मामले में पहली चार्जशीट दाखिल करने में 4 साल क्यों लग गये?
फिलहाल इस मामले में एमपी/एमएलए मामलों के स्पेशल जज, डॉ विशाल गोगने ने कल पीएमएलए एक्ट, 2002 की धारा 44 और 45 के तहत प्रवर्तन निदेशालय की ओर से दी गई शिकायत को मंजूरी दे दी है। यह मामला अब दिल्ली की राऊज एवेन्यू कॉम्प्लेक्स में प्रधान जिला एवं सेशन जज (सीबीआई) की निगरानी में 25 अप्रैल 2025 को सुना जाना है। इसके लिए कोर्ट ने ईडी से मामले की केस डायरी प्रस्तुत करने का निर्देश दिया है।
ईडी ने इस मामले में कांग्रेस की पूर्व अध्यक्षा, सोनिया गांधी, सदन में नेता प्रतिपक्ष, राहुल गांधी, सैम पित्रोदा, सुमन दुबे, सुनील भंडारी, यंग इंडिया और Dotex merchandise को आरोपी बनाया है। 2013 में पहली बार बीजेपी नेता सुब्रमनियम स्वामी द्वारा दाखिल याचिका पर ट्रायल कोर्ट के आयकर विभाग को मामले की जांच के आदेश के आधार पर ईडी ने 2017 से इस मामले को हाथ में लिया हुआ है।
कांग्रेस पार्टी की ओर से इसके खिलाफ तगड़ा प्रतिवाद देखने को मिल रहा है। दिल्ली सहित देश में तमाम जगहों पर कांग्रेस कार्यकर्ता सड़कों पर उतरकर अपना विरोध जता रहे हैं। इंडिया गठबंधन के सहयोगी दलों में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने साफ़ कहा है कि प्रवर्तन निदेशालय जैसी संस्था को तत्काल समाप्त कर दिया जाना चाहिए।
कल ही बिहार में विधानसभा चुनाव की तैयारियों के मद्देनजर कांग्रेस अध्यक्ष, मल्लिकार्जुन खड़गे के आवास पर राजद नेता, तेजस्वी यादव के साथ दोनों दलों के शीर्ष नेतृत्व ने चर्चा की थी, जिसके बाद यह तय हो गया कि बिहार में महागठबंधन मजबूती से एकजुट होकर चुनाव लड़ने जा रहा है। ऊपर से पशुपति पासवान के एनडीए से छिटककर विपक्ष के साथ जुड़ने की खबर ने भी एनडीए का समीकरण हिला डाला था।
लेकिन कल इस खबर ने राष्ट्रीय राजनीति में खलबली मचा दी थी, पर आज इस मामले पर कोई खास चर्चा नहीं है। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि राहुल गांधी या सोनिया गांधी, दोनों ही ने इस मुद्दे पर कोई टिप्पणी करने के बजाय अपने निर्धारित कार्यक्रमों पर ही अपना फोकस बनाये रखा है।
राहुल गांधी ने कल ही गुजरात के अपने तीसरे हालिया दौरे को अंजाम देते हुए जिला पर्यवेक्षकों के ओरिएंटेशन प्रोग्राम में सभा को संबोधित किया। इसके अलावा, ‘संगठन सृजन अभियान’ के तहत पार्टी को हर स्तर पर मजबूत करने और उचित रणनीति तैयार करने पर जोर दिया गया। आज भी राहुल गांधी ने अरवल्ली जिले के कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ बैठक कर जिला स्तर पर पार्टी संगठन को मजबूती देने और जिलाध्यक्षों को अधिकार संपन्न किये जाने की बात को दोहराया। जिले के कार्यकर्ताओं के साथ सवाल-जवाब के दौरान, राहुल गांधी ने स्पष्ट किया कि पार्टी गुजरात से इस अभियान की शुरुआत कर एक बड़े बदलाव की शुरुआत करने जा रही है।
जिला स्तर पर पार्टी संगठन का सशक्तिकरण किसी भी राजनीतिक दल का किस हद तक कायापलट कर सकता है, इस बात को बसपा और आप पार्टी के उद्भव और पतन में देखा जा सकता है। यहां तक कि भाजपा भी इस तथ्य से बखूबी परिचित है कि हाल के वर्षों में पार्टी और प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता में भारी कमी, भारी मशक्कत के बावजूद रैलियों में आम लोगों की उपस्थिति के अभाव के बावजूद भाजपा अपने जमीनी संगठन, बूथ लेवल पर मौजूद पन्ना प्रमुखों और आरएसएस स्वंयसेवकों की उपस्थिति के चलते ही अधिकांश हारी बाजी को पलटने में कामयाब होते रहे हैं। तृणमूल, वाम दलों, डीएमके और आम आदमी पार्टी को छोड़ दें तो विपक्ष इस मामले में लगातार फिसड्डी साबित हुआ है।
लेकिन 2014 आम चुनाव से लगातार हार और 2024 में मिली अपेक्षित सफलता ने कांग्रेस, विशेषकर राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे के सामने भविष्य का स्पष्ट खाका पेश कर दिया है। कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह काम यदि कांग्रेस 2024 आम चुनाव से पहले कर चुकी होती तो इतने ही जन-समर्थन में लोकसभा परिणामों को जमीन पर मौजूद संगठन के बल पर पलटा जा सकता था।
अब लौटते हैं वक्फ़ बिल पर सुप्रीम कोर्ट में चल रही बहस की ओर। यहां पर भी मोदी सरकार पहले से काफी खौफजदा है। हालांकि जिस वक्फ़ बिल को भाजपा 2024 से पहले अपने संख्या बल के आधार पर ही संसद में पारित करा सकती थी, उसने इस काम में अपने उन सहयोगी दलों को भागीदार बनने के लिए मजबूर किया, जो कल तक मुस्लिम वोटबैंक में हिस्सेदारी रखते थे और उनके हितों की वकालत किया करते थे।
जेडीयू, एलजेपी और टीडीपी को अपने फैसले का राजनीतिक खामियाजा तो भुगतना ही होगा, लेकिन केंद्र सरकार राज्यसभा में बिल के खिलाफ पड़े मतों से सकते में थी। सरकार का इरादा, वक्फ़ बिल के बहाने विपक्ष में बिखराव लाने का था, लेकिन विपक्ष एकजुट ही नहीं हुआ, बल्कि बीजद और वाइएसआर कांग्रेस जैसे दल भी विपक्ष के साथ जा मिले।
यह सब कांग्रेस नेतृत्व के प्रयासों के बगैर संभव हो सका, जिसके लिए कांग्रेस नहीं बल्कि विपक्ष को मोदी सरकार का शुक्रगुजार होना चाहिए। इसलिए, राजनीतिक समीक्षक कहीं न कहीं मान रहे हैं कि, सरकार ने अपनी भूल सुधार के लिए ही कहीं न कहीं ईडी को पिटारे से नेशनल हेराल्ड केस निकालने के निर्देश दिए।
हमें याद रखना चाहिए कि ईडी की इसी तहकीकात ने 2022 में कांग्रेस नेता, राहुल गांधी को राजनीतिक बियाबान में एक ऐसा कदम उठाने के लिए मजबूर कर दिया, जिसे सामान्य हालात में वे शायद ही कभी उठाते। ईडी-सीबीआई के बढ़ते शिकंजे, और लगातार दूसरी बार लोकसभा चुनावों में करारी हार के साथ- कांग्रेस के भीतर वरिष्ठ कांग्रेसियों के जी-23 गुट के रूप में बगावती सुरों का उठना, राहुल गांधी को ‘भारत जोड़ो यात्रा’ शुरू करने की दिशा में ले गया। इसके क्या परिणाम निकले, इसे कांग्रेस से बेहतर बीजेपी समझती है।
आज जब इसे नए सिरे से खड़ा करने की कवायद शुरु की गई है, तो इसके पीछे गांधी परिवार को घेरने से अधिक अन्य क्षेत्रीय दलों के क्षत्रपों के लिए चेतावनी संकेत कहीं अधिक समझ आता है। भाजपा और केंद्र सरकार को मालूम है कि राहुल गांधी के खिलाफ कार्रवाई करने का मतलब उन्हें लोकप्रिय बनाना होगा। इससे पहले भी मानहानि मामले में उनकी संसद सदस्यता, सांसद आवास और दो वर्ष की सजा को सिरे नहीं चढ़ाया जा सका।
लेकिन तृणमूल, डीएमके, झामुमो, सपा, राजद सहित तमाम इंडिया गठबंधन के सहयोगी दल ही नहीं बल्कि शामिल होने की सोच रखने वाले बाकी दलों के नेताओं को इससे साफ़ संकेत मिल जाता है कि यदि सरकार गांधी परिवार को ईडी के जरिये परेशान कर सकती है, तो उनकी क्या बिसात।
समस्या यह है कि देश के भीतर बेरोजगारी, अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई, चुनावों में जीत के लिए महिला समुदाय से किये वायदों से मुकरने की मजबूरी जैसी सैकड़ों समस्याएं तो मुहँ बाए खड़ी ही हैं, ऊपर से अमेरिका में पीएम मोदी के मित्र डोनाल्ड ट्रंप की राष्ट्रपति के रूप में दूसरी पारी ने उनकी विदेश नीति और विश्वगुरु की छवि के ही परखच्चे उड़ा दिए हैं। अब ट्रंप का तो कुछ किया नहीं जा सकता, लेकिन भारतीय जनमानस को कैसे इन वास्तविक हालात की तपिश से दूर रखा जाये और कांग्रेस विरोधी नैरेटिव को खड़ा कर स्थिति को सामान्य रखा जाये, इससे ज्यादा इस केस में कुछ नहीं बचा है।
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)