‘खेल रत्न’ से क्यों जुदा हुआ ‘भारत रत्न’?

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मेजर ध्यानचंद अपनी मौत के 42 साल बाद भी खेलों की प्रेरणा बनने को जिन्दा हैं तो यही उनकी अहमियत है। मगर, 1928 में ही ओलंपिक में 14 गोल कर ‘हॉकी के जादूगर’ का तमगा ले चुके इस अजर-अमर खिलाड़ी के लिए यह कतई सम्माननीय नहीं हो सकता कि ‘भारत रत्न’ राजीव गांधी का नाम हटा या मिटा कर मेजर ध्यानचंद जोड़ दिया जाए। खेल रत्न अवार्ड से ‘भारत रत्न’ को जुदा करने की यह स्थिति मेजर ध्यानचंद के जीवन की सबसे बड़ी पीड़ा को भी बयां करती है कि उन्हें ‘भारत रत्न’ नहीं मिला। ध्यानचंद के बेटे अशोक ध्यानचंद की जुबां में यह पीड़ा बयां हुई है।

वर्तमान प्रधानमंत्री ने ऐसा क्यों किया? क्या सिर्फ इसलिए कि खेल का सर्वोच्च पुरस्कार किसी खिलाड़ी के नाम पर होना चाहिए? अगर हां, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव ने इस आधार को क्यों नहीं उचित माना? तत्कालीन विपक्ष और खासकर बीजेपी के नेतृत्व ने भी नरसिंहाराव के फैसले का विरोध नहीं किया था। क्या अटल बिहारी वाजपेयी को यह बात पता नहीं थी कि राजीव गांधी ने कभी हॉकी, क्रिकेट या कबड्डी नहीं खेली है? या लालकृष्ण आडवाणी इससे अनभिज्ञ थे?

खेल रत्न अवार्ड में ‘राजीव गांधी’ जोड़ने या हटाने वाले भी खिलाड़ी नहीं

राजीव गांधी का खेल से कोई नाता नहीं था और इसलिए खेल के सर्वोच्च सम्मान में उनका नाम नहीं होना चाहिए- अगर इस थ्योरी को मान लें तो सवाल यह उठता है कि क्या  खेल  रत्न अवार्ड में राजीव गांधी जोड़ने वाले प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहा राव और 30 साल बाद उनका नाम हटाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खेल के इस सर्वोच्च सम्मान के नाम का फैसला कैसे कर सकते हैं? खिलाड़ी नहीं होने की वजह से इनमें ये योग्यता तो आ नहीं सकती। यह क्यों नहीं मान लेना चाहिए कि इन राजनेताओँ के पास भी ‘खेल की समझ नहीं है।

राजीव गांधी खिलाड़ी नहीं थे लेकिन खेल से जुड़े हुए नहीं थे- यह कैसे कहा जा सकता है? सच यह है कि खेल का हिस्सा दर्शक भी होते हैं, खेल प्रबंधक भी और नीति निर्धारक नेता भी- चाहे वे विपक्ष में हों या फिर सत्ता पक्ष में। खेल समाज का हिस्सा है और राजनीति समाज से दूर रहकर नही होती। खेल नीतियां बनाने में, देश-विदेश के दौरे, ओलंपिक आदि में हिस्सा लेने समेत तमाम फैसले नेता ही करते हैं जिनमें खेल से जुड़े सभी लोगों की भावनाएं होती हैं। खेल को लेकर जो व्यापक समझ अतीत में राजनेताओँ के पास रही है उस समझ में ग्रहण लग गया लगता है।

भारत रत्न तेंदुलकर क्यों नहीं?

अगर प्रश्न ही उठाने हों तो प्रश्न यह भी उठ सकता है कि हॉकी के जादूगर के नाम वाले खेल रत्न से बाकी खेलों के जादूगर कैसे सम्मानित हो सकते हैं? खेल में कोई भारत रत्न है तो वह क्रिकेट से है। फिर खेल रत्न अवार्ड सचिन तेंदुलकर के नाम पर क्यों नहीं होना चाहिए? मेजर ध्यानचंद जिस ओलंपिक विजेता भारतीय टीम के सदस्य थे उस टीम के कप्तान जयपाल सिंह मुंडा के नाम पर यह अवार्ड क्यों नहीं होना चाहिए? क्या इसलिए कि आदिवासी समुदाय से होने के कारण उनका कोई नामलेवा नहीं रहा? शतरंज, कबड्डी, एथलीट हर क्षेत्र से ऐसे सवाल उठ सकते हैं। इन सवालों का जवाब ही तो तत्कालीन पीवी नरसिंहाराव लेकर आए थे जिसका समर्थन अटल-आडवाणी समेत पूरे विपक्ष ने किया था- राजीव गांधी खेल रत्न अवार्ड!

देश के लिए शहादत से बड़ी प्रेरणा भी कोई हो सकती है! एक राजनेता जिन्हें आजाद हिन्दुस्तान में सबसे बड़ा बहुमत मिला, जो देश में कंप्यूटर क्रांति का जनक है और जो राजनेता का कर्त्तव्य निभाते हुए चुनाव के दौरान जनता से वोट मांगते हुए विदेशी साजिश व हमले का शिकार हो गया। ऐसे व्यक्तित्व सिर्फ खेल ही नहीं जीवन के हर क्षेत्र में प्रेरणा होते हैं।

यह कैसी सोच है- खिलाड़ी ही बन सकते हैं खेल की प्रेरणा?

राजीव गांधी के नाम को खारिज कर देश के वर्तमान नेतृत्व ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि कोई परमवीर चक्र विजेता भी खेल और खिलाड़ियों की प्रेरणा नहीं बन सकता। खेल के लिए प्रेरणा वही बन सकते हैं जो खिलाड़ी हैं! मगर, इस सोच में खोट है। खेल से इतर जीवन में भी खिलाड़ी प्रेरक हुआ करते हैं और खेल में भी खेल से बाहर के लोग प्रेरणा बन जाते हैं।

पड़ोसी देश पाकिस्तान में जियाउल हक का उदाहरण लें। क्रिकेट डिप्लोमेसी के जरिए उन्होंने खेल के राजनीतिक इस्तेमाल की कला विकसित की। इमरान ख़ान ने जिया उल हक से ही प्रेरणा ली। आज खुद इमरान खान प्रधानमंत्री बनकर दूसरों को प्रेरित कर रहे हैं। राजीव गांधी क्रिकेट मैच देखने पाकिस्तान चले जाया करते थे। परवेज मुशर्रफ और अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इस सिलसिला को आगे बढ़ाया। ऐसे मौकों पर खेल और खिलाड़ी सबके लिए प्रेरक होते हैं राजनेता।

बीजेपी ही नहीं कांग्रेस की सोच भी बदल गयी!

सोच बीजेपी की ही नहीं, कांग्रेस की भी बदल चुकी है। 1991 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मौत के बाद विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने सार्वजनिक उद्गार प्रकट किया था- “मैं जिन्दा हूं तो राजीव गांधी की वजह से जिन्दा हूं।” उन्होंने कहा था कि राजीव गांधी को दिया गया गोपनीयता का वचन वे तोड़ रहे हैं और दुनिया को बता रहे हैं कि किस तरह उन्होंने सरकारी व्यवस्था के लिए अनुकूल परिस्थिति बनाकर अमेरिका में उनका इलाज कराया। अटल बिहारी वाजपेयी के उन बयानों को याद करें तो राजीव नहीं होते तो विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी की जिन्दगी का ही खेल खत्म हो जाता।

30 साल बाद पहले बीजेपी नेतृत्व की सोच को वर्तमान नेतृत्व पलटने में लगा हुआ है। प्रश्न यह भी है कि कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व तत्कालीन नरसिंहा राव सरकार के फैसले का बचाव क्यों नहीं कर पा रहा है? कांग्रेस भी खेल रत्न अवार्ड से राजीव गांधी का नाम हटाए जाने का स्वागत कर रही है। क्यों? क्योंकि वह पूछ सके कि अहमदाबाद में मोदी स्टेडियम क्यों है या दिल्ली में अरुण जेटली स्टेडियम क्यों है? स्पष्ट है कि 30 साल में सिर्फ बीजेपी नहीं, कांग्रेस भी बदल गयी है और दोनों की सोच एक-जैसी है कि खेल हस्तियों के नाम से ही खेलों से जुड़े सम्मान होने चाहिए।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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