राजनीति की धमनियों में है युवा खून की दरकार

Estimated read time 1 min read

यदि कोई बीमार है, पचास तरह की बीमारियां हैं, जुकाम से लेकर सारे शरीर में दर्द, दिल भी खराब, जिगर भी कमजोर, किडनी भी ठीक काम नहीं कर रही, तो क्या करेंगे? जाहिर है डॉक्टर ही देखेगा। डॉक्टर अकेले नहीं, बल्कि सुपर स्पेश्लिस्ट की टीम, जो शरीर के अलग-अलग भाग का परीक्षण कर आपसी सहमति से मिलकर इलाज करेंगे।

यदि अनेकों बीमारियों से ग्रस्त व्यक्ति को सुंदर महंगे कपड़े पहना दिए जाएं तो क्या वह सुंदर-स्वस्थ दिख सकता है? आपका जवाब होगा नहीं। हमारे देश में भी पचासों तरीके की समस्याएं हैं, सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी है।

पढ़ाई और इलाज का ठीक इंतजाम नहीं है। अच्छी पढ़ाई और इलाज इतने महंगे हो गए हैं कि आम आदमी उन तक नहीं पहुंच सकता। किसान दुखी है, पेट्रोल, डीजल, बिजली, गैस बहुत महंगे हो चुके हैं। रेल और बसों का बुरा हाल, अपराधों पर लगाम नहीं, मजदूर खिन्न, व्यापारी रुष्ट हैं। हमारे आस-पड़ोस गंदगी की भरमार के साथ तमाम बीमारियां तथा हर जगह भ्रष्टाचार हो, तब क्या करेंगे?

एक ही जवाब है कि नेताओं को कोसेंगे, उन्हें गालियां देंगे। नेताओं में अधिकतर भ्रष्ट और अपराधी आने लगे हैं। आंकड़े कहते हैं कि हमारे प्रत्येक सदन में हत्या-बलात्कार तक के अपराधी माननीय बने बैठे हैं। नेताओं को गालियां देते रहें और स्थिति को बद से बदतर होते रहने दें, या, इसे ठीक करने के लिए कुछ करेंगे? सब यही सोचते रहें कि हम क्या कर सकते हैं? शायद कभी भगवान् जी अवतार लेंगे तब तक ऐसे ही चलने दें, हजारों वर्ष से सिर्फ इंतजार ही कर रहे हैं!

सभी कारणों को खोजने के लिए गहन चिंतन करने का प्रयास करें, आप पाएंगे कि भारतीय लोकतंत्र में सबसे बड़ा किरदार नेता का है। सत्ता पक्ष के निर्देशों का पालन या मंत्रिमंडल द्वारा दी गई नीतियों को लागू करने का दायित्व नौकरशाही का है। प्रति वर्ष लाखों युवा-युवतियों में से मात्र 300-400 का चयन शीर्ष नौकरशाही में होता है। ये कठिन ज्ञान परीक्षा से गुजरते हैं, परंतु सेवा में आने के बाद इनको निर्देश नेताओं से ही मिलते हैं। यह तथ्यात्मक सत्य है कि नेता के लिए कोई परीक्षा-प्रशिक्षण नहीं होता है, जिसका नतीजा हम सब देख रहे हैं।

यह बहस निरर्थक है कि नेताओं का भी ज्ञान जांचा जाए। नेतृत्व के लिए पढ़ाई से अधिक व्यावहारिक ज्ञान चाहिए। हमारे महापुरुषों में अनेक बिना पढ़े या कम पढ़े रहे हैं, परंतु उनका ज्ञान स्तर ऊंचा रहा है। कबीर दास जी की सोच की तुलना किसी भी डिग्री से नहीं की जा सकती। स्वतंत्रता संग्राम में कुछ बहुत पढ़े तो कुछ कम पढ़े थे, परंतु विलक्षण मस्तिष्क के स्वामी थे। स्वतंत्रता के तत्काल बाद के नेताओं के बौद्दिक स्तर तुलनात्मक अच्छे थे।

हमारी रिचर्स टीम ने विगत बीस बर्षों के दसवीं और बारहवीं के परीक्षा परिणामों के बाद अत्यंत आश्चर्यजनक नतीजा पाया। स्टेट, सीबीएसई या आईसीएसई बोर्ड के टॉप रैंक या मेरिट होल्डर रहे परीक्षार्थीयों से पूछा गया कि वे क्या बनना चाहेंगें तो उत्तर आईएएस, इंजीनियर या डॉक्टर में ही आए।

देश को होनहार नेतृत्व की जरूरत है, परंतु किसी ने नहीं कहा कि वे भविष्य में नेता बनकर देश की सेवा करेंगे या वैज्ञानिक बनकर देश का मान बढ़ाएंगे। इसे असुरक्षा की भावना या ऊंची नौकरी में रोजगार की चाहत कह सकते हैं, क्योंकि जिस ब्रेन की देश को जरूरत है, वह ब्रेन तो भाग रहा है। जब टॉपर नेता बनने का ख्याल नहीं करेंगे, तो नेता वही बनेंगे जो आज आ रहे हैं, फिर आप उन लोगों को क्यों गालियां दे रहे हो जो आपकी ही देन हैं?

यदि इंटलिजेंट, अनुशासित, सदचरित्र और गहराई से सोचने वाले देश के लीडर की पंक्ति में नहीं आना चाहेंगे तो अपराधी-भ्रष्टाचारी उस खाली स्थान पर कब्जा लेंगे और हम सोचते रहेंगे कि जब-जब पाप का बोझ बढ़ेगा तब भगवान् अवतार लेंगे! यदि अच्छे समझदार तथा इंटलिजेंट थिंकर राजनीति में आएंगे तो अपराधी, गुंडे, मवाली और भ्रष्टाचारी हाशिये पर सरकते चले जाएंगे और वह दिन दूर नहीं होगा जब वे अलग-थलग पड़े होंगे। कक्षा में आगे की पंक्तियां खाली नहीं रहतीं, यदि टीचर का फेवरेट विद्यार्थी किसी दिन नहीं आया तो बैकबेंचर उस स्थान को घेर लेता है।

स्वतंत्रता संग्राम में नेता-कार्यकर्ता जेल जाते थे। तब जेल में राजनीतिक गोष्ठियां होती थीं। स्वतंत्रता के बाद कुछ दलों ने इन गोष्ठियों की परंपरा को जारी रखा तथा पार्टी का कैडर बनाया। अब पचास वर्षों से यह काम भी बंद है। सिविल सर्विस की कोचिंग में राजनीतिक पहलुओं को अच्छे से छुआ जा रहा है, परंतु युवा वर्ग उसे कंपटीशन पार करने का एक विषय मान कर अध्ययन कर रहा है। सफलता या असफलता के बाद वे अपने करियर या वैकल्पिक करियर में खो जाते हैं।

उस राजनीतिक ज्ञान का लाभ देश सुधार की नीतियां बनाने में नहीं लग पाता, ठीक उसी तरह जैसे इंजीनियर या डॉक्टर आईएएस बनने के बाद अपने उस चिंतन-ज्ञान को आगे न बढ़ा कर ब्यूरोक्रेसी के वांछित कार्य ‘सांमजस्य’ में लग जाते हैं। यदि सिविल सर्विस में असफल रह गए युवा उस राजनीतिक ज्ञान का प्रयोग करते हुए राजनीतिक में आएं, तब भी, देश को दिशा मिलेगी तथा अपराधी और भ्रष्टाचारी हतोत्साहित होंगे। लोकतंत्र में जब अच्छा विकल्प मिलेगा तो चुनाव में भी अच्छे लोग जीत कर आएंगे।

(गोपाल अग्रवाल समाजवादी चिंतक व लेखक हैं और आजकल मेरठ में रहते हैं।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author