बाबरी मस्जिद-अयोध्या विवाद पर मशहूर फिल्मकार आनंद पटवर्धन की ‘राम के नाम’ (In the name of god) 1991 नामक डॉक्यूमेंट्री फिल्म भारतीय सिने इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई थी। जहां तक याद पड़ता है यह फिल्म मुंबई के बम ब्लास्ट के बीच में वोर्ली के नेहरु प्लेनेटोरियम में रिलीज की गई थी।
यह एक फिल्म के साथ ऐतिहासिक दस्तावेज भी है, जिसे देश के प्रबुद्ध लोगों ने तो कम से कम एक बार तो जरुर ही देख रखा होगा। आज इस फिल्म को जारी हुए 31 साल बीत चुके हैं, लेकिन पता नहीं कैसे आज अचानक नींद से जागकर यूट्यूब को इसके कंटेंट को लेकर दिक्कत हो गई है।
6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहाए जाने से पहले ही इस विवाद के गहराते जाने को डॉक्यूमेंट करने की सूझ-बूझ रखने वाले आनंद पटवर्धन की इस फिल्म में इतिहास के पात्र खुद एक-एक बात की गवाही देते हैं, जिसे भारत के प्रत्येक नागरिक को देखना बेहद जरुरी है।
ऐसा इसलिये, क्योंकि पिछले 3 दशक से भी अधिक समय बीत चुका है, जबसे भारत अपनी ही पहचान को खोकर एक ऐसे झंझावात से गुजर रहा है जिसमें उसके अपने ही वजूद को खुद खत्म करने की भस्मासुरी बेखुदी बनी हुई है। इस भष्मासुरी खब्त से निजात कब मिलेगी देश को, यह तो अब वक्त के हवाले छोड़ दिया जाए, लेकिन अब तो इतिहास के उन सजीव साक्ष्यों तक को कहीं न कहीं छुपाने, मिटाने की जुगत चल रही है।
राम के नाम फिल्म को नाबालिगों को न देखने देने की यह मुहिम इसी की एक बानगी नजर आती है। अपने फेसबुक पेज पर आनंद पटवर्धन ने जानकारी साझा करते हुए इस फिल्म के बारे में यूट्यूब के द्वारा जारी दिशानिर्देश को टैग किया है।
31 वर्ष पहले सेंसर बोर्ड द्वारा फिल्म को ‘यू’ प्रमाणपत्र दिए जाने के बाद नींद से जागकर फिल्म के ट्रेलर पर ‘उम्र की सीमा’ लगाये जाने वाले तुगलकी फरमान पर आनंद पटवर्धन सवाल उठाते हुए इसे हिंदुत्व ब्रिगेड की धुन पर नाचने का आरोप लगा रहे हैं।

इस बात को सभी जानते हैं कि किस प्रकार राजीव गांधी के शासनकाल में शाहबानो मामले में मुस्लिम दकियानूसी जकड़बंदी के आगे घुटने टेकने के बाद आरएसएस भाजपा ने इस मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस और हंगामा खड़ा कर दिया था। तुरंत ही हिंदू फिरकापरस्ती को साधने की फ़िराक में राजनीति के नौसिखिये राजीव गांधी ने झटपट बाबरी मस्जिद में कई दशकों से विवादित राम जन्मभूमि का ताला खुलवाकर कई दशकों से बंद जिन्न को बोतल से बाहर निकालने का काम किया।
यह फिल्म राम मंदिर आंदोलन के तैयार होने और उसमें समाज के विभिन्न लोगों की पृष्ठभूमि और विभिन्न राजनीतिक धार्मिक दलों की क्रिया-प्रतिक्रिया को प्रमाणिक रूप से दस्तावेजीकरण करती है। भविष्य के गर्भ में क्या है, उसका आभास जिन कुछ लोगों को था उसमें गिने-चुने लोगों में से एक रहे आनंद पटवर्धन की इस फिल्म को भारत ही नहीं विश्व में सराहा गया। 1992 में बेस्ट डाक्यूमेंट्री के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित ‘राम के नाम’ को बेस्ट इन्वेस्टिगेटिव डाक्यूमेंट्री का राष्ट्रीय फिल्म अवार्ड; न्यों, स्विट्ज़रलैंड का एकुमेनिअल पुरस्कार, 1993; फ़्राइबर्ग इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, स्विट्ज़रलैंड का बेस्ट डाक्यूमेंट्री पुरस्कार, 1993 सहित 1992 में जापान के यामागाता इंटरनेशनल डाक्यूमेंट्री फिल्म फेस्टिवल में सिटीजन पुरस्कार हासिल है।
ऐसे में, यह बात बेहद अहम हो जाती है कि जिस फिल्म के रिलीज के 28 साल बाद एक यूट्यूबर कुणाल कामरा द्वारा अपने यूट्यूब चैनल में डाला जाता है, उसे पिछले 3 वर्षों में 21,00,000 से अधिक बार देखा गया हो, 94,000 से अधिक लाइक और 18,000 से अधिक कमेंट हों, उसे यूट्यूब ने आखिर कैसे 3 दशक बाद अचानक से 18 वर्ष से कम उम्र के दर्शकों के लिए अनुचित देख लिया। यह कहीं न कहीं आनंद पटवर्धन की आशंका को सही ठहराती है कि यूट्यूब ने भी भारत में सत्ता के आगे घुटने टेक दिए हैं और वह भी अब गोदी मीडिया की तरह कहीं न कहीं अपने व्यावसायिक हितों को आगे रखते हुए भारत के आम लोगों और लोकतांत्रिक चेतना को भोथरा करने की मुहिम में अपनी भूमिका निभाने को तत्पर हैं।
(रवींद्र पटवाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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