लॉकडाउन के बाद ज्यादातर बच्चे हुए पढ़ाई लिखाई से दूर: सर्वे

Estimated read time 1 min read

लॉकडाउन के क्रम में आदिम जनजातीय क्षेत्रों में प्राथमिक शिक्षा पर क्या और कैसा प्रभाव रहा ? जानने के लिए प्रख्यात अर्थशास्त्री एवं रांची विश्वविद्यालय के विजिटिंग प्रोफेसर “ज्यां द्रेज” के नेतृत्व में उनके एक सहयोगी लिबटेक इंडिया संस्था के सभिलनाथ पैकरा, सामाजिक कार्यकर्ता पल्लवी कुमारी और अफसाना की टीम द्वारा झारखण्ड के लातेहार जिला अंतर्गत महुआडांड़ प्रखंड के आदिम जनजातीय बहुल गांवों का दौरा किया गया। दौरे के बाद टीम ने बताया कि अपने सर्वे में हमने पाया कि जनजातीय क्षेत्र में शिक्षा की स्थिति काफी दयनीय है, यहां शिक्षा को लेकर काम करने की काफी ज्यादा जरूरत है। विद्यालय भवनों की स्थिति काफी जर्जर है, जिसमें काफी सुधार होना चाहिए, विद्यालयों में जो शिक्षक नियुक्त हैं, उनमें से बहुत कम ही पढ़ाने जाते हैं।

टीम बताती है कि 14 सितंबर 2021 को हम लोग कटहल टोली जाकर वहां की पढ़ाई की क्या स्थिति है ? उसको जानने का प्रयास किया। सबसे पहले हम लोग लालदेव कोरवा के यहां गये, तो उन्होंने बताया कि उनका एक बेटा है जिसको एक फर्ज़ी मर्डर के केस में फंसाया गया। उसके बाद हमने उनकी दो बेटियों सुखन्ति और दुखन्ति से बात की। उनसे पूछने पर पता चला कि वे पढ़ाई भूल चुकी हैं। लालदेव की एक बेटी रमनी कुमारी की हमने किताब चेक किया तो उसमें हमने पाया कि उसे छठवीं कक्षा में संस्कृत पढ़ाया जाता है, जबकि उसे हिंदी के कुछ अक्षर समझ में आते ही नहीं हैं।

इस सर्वे के क्रम में बीईओ (प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी) ने बताया कि महुआडांड़ ब्लॉक में छात्रों को ज्ञान सेतु की किताबें बांटी गई हैं, लेकिन कहीं-कहीं किताबें मिलीं और कहीं नहीं मिलीं।

टीम को कटहल टोली में बताया गया कि 12-15 बच्चे लॉकडाउन से पहले स्कूल जा रहे थे, फिर भी इस स्कूल को बंद किया गया। इस गांव में ऑनलाइन शिक्षा का कोई साधन लोगों तक नहीं पहुँचा है। माइल गांव में एक भी बच्चा ऑनलाइन शिक्षा की ओर अग्रसर नहीं मिला। वहां के ग्राम प्रधान से बात करने पर उन्होंने बताया कि बच्चों की जो शिक्षा है, वह लॉकडाउन के पहले काफी बेहतर थी। लेकिन लॉकडाउन के बाद बच्चे पढ़ाई को ज्यादा भूलते जा रहे हैं। वहां के ग्राम प्रधान पोलिका ठिठियो जो 2001 से स्कूल कमेटी के अध्यक्ष रह चुके हैं, वे काफी एक्टिव व्यक्ति हैं, गांव के बच्चों की पढ़ाई को हमेशा तरजीह देते रहे हैं। दिलीप खलखो यहां के हेड मास्टर हैं, उनका कहना है कि स्कूल की स्थिति काफी खराब है तथा स्कूल का भवन जर्जर हो चुका है। बरसात में स्कूल में बारिश का पानी भर चुका है। बच्चों के आने लायक बिल्कुल भी नहीं है, हर जगह से स्कूल का भवन टूट चूका है और छत टपक रहा है। वह इतना जर्जर हो चुका है कि कभी भी गिर सकता है। इसलिए वह बच्चों को स्कूल आने से मना करते हैं और खुद भी ऑफिस में नहीं बैठते हैं। पानी के टपकने के कारण वे बाहर टेबल और कुर्सी लगाकर बैठते हैं। खलखो बताते हैं कि अभी उन्हें इलेक्शन का काम दे दिया गया है, जिसके तहत वोटर लिस्ट में फोटो अपडेट एवं सुधार का काम करना है। जिसके कारण स्कूल के बच्चों की ओर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं।

दीमक खाएं पुस्तकों में से तस्वीरे निकालते बच्चे

टीम ने एक अन्य जगह पाया कि स्कूल के एक चापाकल (हैंडपंप) के पास बहुत सारी किताबें बिखरी पड़ी थीं और बच्चे उनमें से कुछ चित्र निकाल रहे थे। पूछने पर पता चला कि किताबों को दीमक ने खाया है। क्योंकि लॉकडाउन में बच्चे स्कूल नहीं आए, जिसके कारण पड़ी-पड़ी किताबों में दीमक लग गए। जिसे फेंक दिया गया है।

16 सितंबर 2021 को दोपहर 01 बजे के आसपास टीम ने ग्वालखाड़ के पहाड़ पर चढ़कर वहां के एक आदिम जनजाति के सदस्य सुरेंद्र कोरवा से मिले। उनका घर महुआडांड प्रखंड मुख्यालय से लगभग 14 किलोमीटर दूर है। वहां के स्कूल की भी स्थिति काफी खराब थी और जो पुराने स्कूल थे वहां पर चारों तरफ गाय के गोबर पड़े थे और गायों को वहां पर बांधा जाता था। स्कूल के शौचालय में झाड़ियां निकल आई थीं। वहां तक जाने लायक कोई रास्ता नहीं था, स्कूल की दीवारों पर दरार पड़ चुके थे, उनकी मरम्मत न करके उन्हें पिलर के द्वारा सपोर्ट दिया गया था। वह भी सुव्यवस्थित तरीके से नहीं किए गए थे, वे किसी भी वक्त गिर सकते थे। स्कूल के जो टीचर थे वे उस समय अनुपस्थित थे। वहां अनुसूचित जनजाति वाले लोग दो तरह के थे। एक था कोरवा और दूसरा था नगेसिया, जैसा कि सुरेंद्र कोरवा से पता चला कि वहां पर जाति प्रथा का प्रचलन है। क्योंकि जो नगेसिया हैं, वे अपने आप को ऊंची जाति के मानते हैं और कोरवा के साथ भेदभाव करते हैं। उनके बच्चों को मध्यान्ह भोजन योजना देते समय अलग-अलग बैठाकर दिया जाता था। नगेसिया के जो बच्चे हैं, उनसे उन्हें अलग बैठाया जाता था। कोरवा प्रजाति की महिलाएं जब झरने से पानी भरने जाती हैं, तो नगेसिया प्रजाति के लोग वहां से हट जाते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि पानी कोरवा जाति के लोगों के भरने से या छूने से उन पर गंदगी फैल सकती है। यह आदिवासी समाज के लिए काफी एक नया अनुभव था। क्योंकि अदिवासी समाज में भेदभाव व ऊंच-नीच की परंपरा नहीं है। यह केवल पुराने जमाने में हिंदू समाज में ही देखने को मिलता है। यदा-कदा यह परंपरा हिन्दू समाज में आज भी मौजूद है।

टीम ने प्रखण्ड शिक्षा पदाधिकारी महुआडांड़ के रंजन जी से पुन: मुलाकात की, तो पता चला कि ऑनलाइन शिक्षा का लिंक और पी.डी.एफ. पहले स्टेट के पास आता है, तब वह सभी प्रखण्ड शिक्षा पदाधिकारी के पास आता है, उसके बाद सरकारी टीचर को भेजा जाता है, फिर टीचर बच्चों तक पढ़ने की सामग्री पहुंचाते हैं। इसमें सबसे अव्यवहारिक बात यह पता चली कि ऑनलाइन शिक्षा के लिए बच्चों की जो टीम है उसमें शामिल बच्चों के गांवों की दूरी न्यूतम 02 किमी की है, अधिकतम की कोई सीमा नहीं है, जिस कारण शिक्षक सभी बच्चों के पास नहीं जा पाते हैं और न ही सभी बच्चें शिक्षक के पास आ पाते हैं।

टीम ने जब प्रखण्ड शिक्षा पदाधिकारी से स्कूल बिल्डिंग की जर्जर हालत की चर्चा की और उसकी मरम्मती को लेकर बात की, तो उन्होंने बताया कि प्रखण्ड में कई विद्यालय ऐसे हैं जो जर्जर हैं, जिन्हें मरम्मत कराने की जरूरत है। इसके लिए हर स्कूल के टीचर से आवेदन मंगाया गया है कि स्कूल भवन की स्थिति क्या है ? बीईओ बताते हैं कि वैसे भी शिक्षकों द्वारा भेजी गई रिपोर्ट पड़ी ही रहेगी क्योंकि जिले के पास इसके लिए कोई फंड नहीं है ना ही ब्लॉक के पास है। अत: जब तक स्टेट कोई फंड नहीं भेजता है तब तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं हो सकती है।

कुल मिलाकर टीम ने पाया कि महुआडांड़ में शिक्षा को लेकर काफी ज्यादा काम करने की जरूरत है और स्कूल जो है उसमें काफी सुधार की जरूरत है। जो शिक्षक हैं, उनमें से एक – दो को छोड़कर कोई वहां पर पढ़ाने के लिए जाता ही नहीं है, काफी पिछड़ा हुआ ब्लॉक है। दूसरी तरफ बच्चों के मां-बाप अपने बच्चों के भविष्य के बारे में सोचते हुए स्कूल खोलने के पक्ष में हैं।

बताते चलें कि महुआडांड जंगल झाड़, नदी, झरनों और प्राकृतिक संपदाओं से भरा पड़ा है। वैसे तो महुआडांड़ में सभी जाति के लोग निवास करते हैं। लेकिन जिले के इस प्रखंड की पहचान अति विशिष्ट आदिम जनजातियों का बहुल क्षेत्र के रूप में भी होती है। सरकार इन जनजातीय समुदायों को समाज की कथित मुख्यधारा से जोड़ने को लेकर हमेशा से प्रयासरत रही है। किन्तु प्रशासन के प्रयासों का जमीन पर कोई खास असर देखने को नहीं मिलता है। क्योंकि इनका प्रयास प्रायः कागजों तक ही सिमटा रहता है। आदिम जनजातीय समुदाय के कोरवा और बिरजिया जनजाति की औरतों को बरसात में अपने आंचल से दुधमुंहे बच्चों को पीठ पर लपेटे, सर पर सूखी लकड़ियों का गट्ठर लादे, सुबह सबेरे प्रखंड मुख्यालय की गलियों, चौराहों में भटकते देखा जा सकता है। लेकिन तकलीफ तब होती है, जब आप 12 या 14 साल के बच्चे को ठंड में ठिठुरते हुए लकड़ियों की बोझ में दबते चन्द रूपयों के लिए होटल और ठेले वालों से सौदा करते हुए दिखेंगे।

स्कूल छोड़ पेट की आग बुझाने के लिए लकड़ी बेचता लड़का

इस बाबत एक स्थानीय पत्रकार वसीम अख्तर बताते हैं कि एक सुबह मैं महुआडांड़ के बस स्टैंड पर चाय की दुकान पर चाय पी रहा था। बीते रात हुई बारिश के चलते सुबह मौसम ठंडा था। तभी मेरी नज़र लगभग 13 वर्ष के एक बच्चे पर पड़ी जो ठिठुरते कांधे पर सूखी लकड़ी के गट्ठर लिए ग्राहक की तलाश कर रहा था। नाम पूछने पर उसने दिनेश कोरवा एवं घर ग्वालखाड़ गांव बताया। मैंने अपने एक दोस्त को कहकर 150 रूपये में उसकी लकड़ी खरीदवाई, लकड़ी का बोझ कांधे से उतरा तो बच्चे के चेहरे पर थोड़ी चमक नजर आई। तब मैं पूछा पढ़ाई करते हो। उसका जवाब सुनकर सीने में एक हुक सी हुई। उसने कहा – कौन पढ़ाएगा मुझे। उस बच्चे के बारे में जब मैंने जानकारी एकत्रित की, तो पता चला कि उसके पिता का नाम राजेश कोरवा है। उन्हें राशन तो मिलता है, लेकिन स्थिति ठीक नहीं होने से यह कार्य करता है। 14 किलोमीटर चलकर मुख्यालय बाजार आता है। इस बच्चे की तरह और भी कोरवा बिरजिया के बच्चे बाजार के गलियारों में सूखी लकड़ियों का बोझा उठाए घूमते नजर आते हैं।

(झारखण्ड से वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

You May Also Like

More From Author