जुलाई, 2024 के मध्य में पूरी दुनिया में उस समय सनसनी दौड़ गई जब पेरूवियन अमेजन का आदिवासी समुदाय माशिको पिरो घने जंगलों से निकलकर नदी के खुले तट पर दिखाई दिये। पर्यावरण और आदिवासी समुदाय पर काम करने वाले वैज्ञानिकों ने बताया कि ऐसा पहले भी देखा गया था लेकिन यह छिटपुट होने वाली घटनाएं थीं और संख्या बेहद कम होती थी। इस बार नदी के खुले तट पर काफी बड़ा समूह दिखाई दिया था। इसलिए इस क्षेत्र में काम करने वाले वैज्ञानिक और सामाजिक कार्यकर्ता काफी चिंतित हुए।
भारत में उस समय मीडिया में, खासकर हिंदी में इस घटना को एक ‘अजूबा’ की तरह पेश किया गया और रोचक बनाने के नाम पर इसमें हद दर्जे की असंवेदनशीलता भी प्रदर्शित की गयी। लेकिन, इस क्षेत्र में काम करने वालों ने पर्यावरण में आ रहे बदलाव, जंगल की कटाई और इसमें दखल की नीति को लेकर अपना कड़ा विरोध दर्ज करते हुए मांग किया कि अमेजन के जंगलों में जिस तरह से छेड़छाड़ हो रही है, उसे तुरंत रोका जाना चाहिए। अमेजन का जंगल ब्राजील, पेरू सहित कई देशों की सीमाओं में फैला हुआ है।
ब्राजील की दक्षिणपंथी सरकार ने बड़े पैमाने पर जंगलों को नष्ट किया था। लकड़ियों की जरूरत और कथित विकास के दावों में अन्य देश भी इसमें पीछे नहीं रहे हैं। पिछले 6 सालों से अमेजन के पर्यावरण में काफी बदलाव देखा गया है। इसके अतिरिक्त अलनीनो का असर भी इस इलाके पर पड़ा है। तापमान में हो रही वृद्धि को यहां साफ देखा जा सकता है। खासकर, जंगलों में लगने वाली आग काफी भयानक हो चुकी है।
लेकिन, यहां यूरोपीय उपनिवेशवाद की 200 साल पुराना ‘सभ्य’ बनाने वाला तर्क काम नहीं करता जिससे ‘विकास’ कार्यों को उचित ठहराया जा सके। भारत में यह तर्क 2011-12 में कांग्रेस की यूपीए सरकार खुलेआम दे रही थी। जबकि, आरएसएस यही काम पिछली कई पीढ़ियों से उन्हें आदिवासी की जगह ‘वनवासी’ बनाने और उन्हें हिंदू बनाने में लगी हुई है। अब भी विकास को इन्हीं संदर्भों में परिभाषित और व्याख्यायित किया जा रहा है। यह अकारण नहीं है कि खुद सरकार की अपनी रिपोर्ट भी, जो 2010 में आई, वह जमीनों के अधिग्रहण और कब्जा को अंग्रेजों के बाद सबसे बड़ी जमीन की लूट बताया था।
विकास की जरूरतों का औपनिवेशिक मॉडल भारत में अब भी बरोकटोक न सिर्फ चल रहा है, इसे शहर के मध्य और उच्च वर्ग के किसी के भी मुंह से सामान्य तौर पर सुना जा सकता है। इन सभी का अंतिम परिणाम हम 1950 से चल रहे विकास की परियोजनाओं के संदर्भ में देखें तो यही आदिवासी समुदाय ही रहा है और खुद सरकारी रिपोर्ट बताती भी रही हैं कि सभी विस्थापितों और प्रभावितों का पुनर्वास और व्यवस्थापन नहीं हो सका।
कांग्रेस नेता जयराम रमेश के एक सवाल के जवाब में केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने जब कई पन्ने का जवाब दिया, तब यह अखबार की सुर्खियों का हिस्सा बन गया। यह सवाल और जवाब भारत के सबसे संवेदनशील इलाका माने जाने वाले अंडमान निकोबार द्वीप में अधिसंरचनात्मक विकास परियोजनाओं की मंजूरी को लेकर थी। उन्होंने लिखित जवाब में बताया कि यह परियोजना सुरक्षा हितों को लेकर है। इस पत्र में, जैसा कि इंडियन एक्सप्रेस ने उद्धृत किया है, लिखा हैः ‘इम्पॉवर्ड समिति अपने निरीक्षण में पाया है कि आदिवासी जनसंख्या के हितों, खासकर शोम्पेन, जो बेहद असुरक्षित आदिवासी समूह है, पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा और आदिवासियों के विस्थापन की अनुमति नहीं है।’’
इस परियोजना में मालवाहक बंदरगाह, एक अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा, एक बिजली उत्पादन केंद्र, एक बसावट और इससे जुड़ी संरचनाओं का निर्माण शामिल है। केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव अपने जवाब में बताते हैं कि इस द्वीप पर इस निर्माण से जैविक विविधता, अर्थव्यवस्था, कोरल संरचनाएं, आदिम जनजाति और वन्य जीवन का पूरी तरह से ख्याल रखा जाएगा।
माननीय केंद्रीय मंत्री ने जो जवाब दिया है, उसे किसी भी परियोजना के संदर्भ में, खासकर एनजीटी जैसे संस्थानों से सहमति हासिल करते समय आसानी से पढ़ा जा सकता है। जब वह कहते हैं कि इन विकास परियोजनाओं से निकोबार को ‘बाधित या विस्थापित’ नहीं किया जाएगा, तब यह सवाल उठता ही हैः कैसे? यह परियोजना समुद्र से लेकर जमीन तक पसरी हुई है। इसमें मालवाहक पोत आने हैं और अंतर्राष्ट्रीय हवाई जहाज भी, यहां बसावट भी होनी है और बिजली उत्पादन संयंत्र भी लगना है।
लगभग 72 हजार करोड़ रुपये की यह ग्रेट निकोबार परियोजना जयराम रमेश के अनुसार इस द्वीप की 15 प्रतिशत जमीन को अपने अधिकार में लेगी। इनके अनुसार इतनी बड़ी परियोजना के लिए न सिर्फ पर्यावरणविदों के साथ सलाह मशविरा और बहस में शामिल कराना चाहिए था, बल्कि वहां के जनजातीय समूहों की हिस्सेदारी भी सुनिश्चित करना चाहिए था।
जवाब में केंद्रीय मंत्री बताते हैं कि 1976 में प्रशासन द्वारा अनुमोदित अंडमान आदिम जनजाति विकास समिति से सहमति ली गई है। ‘द हिंदू’ का दावा है कि इस समिति ने अपनी सहमति वापस ले ली थी। यहां बताना भी जरूरी है कि जंगल अधिकार कानून के तहत किसी भी स्थानीय जनजाति को न तो जमीन दी है और न इस संदर्भ को अनुमोदित किया है। पर्यावरण विभाग से ही जुड़ी संस्था जो समुद्री तटों के प्रबंधन पर काम करती है, ने इस क्षेत्र को सबसे संवेदनशील क्षेत्र घोषित कर रखा है।
ऐसा लगता है कि भारत में विकास की जो नीतियां अपनाई गई हैं, वह अपनी औपनिवेशिक मानसिकता, प्रबंधन और योजना से किसी भी सूरत में बाहर नहीं आना चाहतीं। वह विकास को एक ऐसे मिशन की तरह देखती हैं, जिसमें पूंजी की प्रधानता उसके कच्चा माल दोहन पर अधिक है। यह भारत में औपनिवेशिक दासता की निरंतरता की तरह ही है। हम ज्यादा दूर नहीं, पिछले 30 सालों को विकास के इतिहास के पन्नों को पलटें, वहां पूरे मध्य भारत में न सिर्फ औपनिवेशिक पूंजी का सबसे बड़ा खेल दिखता है, इन्हीं इलाकों में भारतीय राज्य का सबसे बड़ा बल प्रयोग भी दिखता है।
ये वही इलाके हैं, जहां सर्वाधिक आदिवासी समुदाय निवास करता था। पिछले 30 सालों में जितने बड़े पैमाने पर पर्यावरण का नाश और आदिवासियों का विस्थापन हुआ है, वह पूरी दुनिया में सर्वाधिक है। इन्हीं पिछले 30 सालों में अर्थव्यवस्था के वे पन्ने भी हैं जिसमें बार बार बताया गया है, और यह बताने वाले खुद विश्व बैंक, मुद्रा कोष और भारत के वित्तीय संस्थान और इससे जुड़े बुद्धिजीवी ही हैं कि जिस अनुपात में पूंजी लगती है, उस अनुपात में रोजगार सृजित नहीं होता है।
यह पूंजी निवेश के अनुपात में पुनर्निवेश की गति को तेज नहीं करता है, जबकि ज्यादातर मामलों में यह गति, विस्तार में स्थिर बना रहता है। इसका ज्यादा खेल शेयर बाजार और संपत्तियों के निर्माण में रहता है, मसलन जमीनों और बने बनाये संस्थानों पर कब्जा। यह अपनी कार्यपद्धति में सामान्य तौर पर राजनीतिक सत्ता का खुलेआम प्रयोग करता है जिसका अंतिम परिणाम क्रोनी कैपिटलिज्म की तरह सामने आता है।
यदि हम माधव गाडगिल के ही शब्दों का इस्तेमाल करें, जो पूंजी निवेश और विकास का विरोध नहीं करते हैं और उसे पर्यावरण के संदर्भ में रखकर ही इसे देखना चाहते हैं; किसी भी विकास की योजना में लागू होने वाले क्षेत्र में कम से कम चार स्तर को निभाना चाहिए। पहला, पूंजी, दूसरा, वहां का समुदाय, तीसरा, पर्यावरण और चौथा राज्य। आज के संदर्भ में राज्य और पूंजी एक एकीकृत व्यवस्था में बदल गई है।
इसमें राज्य पूंजी के हितों के लिए अक्सर ही समुदाय के संसाधन से विस्थापित और कानूनी प्रक्रिया में आमतौर पर उसे संसाधनहीन बनाने की ओर जाते हुए दिखती रही है। राज्य का दावा हमेशा ही विस्थापितों को दावों से भिन्न दिखने के इतिहास को हम किसी और तरीके से व्याख्यायित कर ही नहीं सकते। पर्यावरण इस प्रक्रिया में एक ऐसा मूक पक्ष है जिसकी आवाज चंद लागों के माध्यम से ही आ पाती है।
भारत में पर्यावरण और समुदाय के बीच के रिश्ते को देखने का नजरिया अंग्रेजों द्वारा दी गई सबसे भयावह विरासत है। इसे एक समाज और आर्थिक व्यवस्था द्वारा न देखा जाना अंततः एक पूरी सभ्यता के विनाश का कारण साबित होती है। यहां सभ्यता का अर्थ सिर्फ रहन सहन नहीं है, इसमें भाषा एक अहम हिस्सा है। अंडमान निकोबार द्वीप समूह सिर्फ इतिहास और आदिम जीवन के पन्ने ही नहीं हैं, वह वहां रह रहे समाज की अपनी निर्मिती है। वहां उसकी अपनी भाषा और पर्यावरण है।
इसकी अपनी भौगोलिक संरचना है। हम जितना ही इन शब्दावलियों, इससे जुड़ी संरचनाओं और परिघटनाओं से अलग रहेंगे उतना ही हम खुद को एक तानाशाह मानसिकता में बदलते जाएंगे। अंततः उपनिवेशवाद की उसी मानसिकता से ग्रस्त होते जाएंगे, जिसका कब्जा ही मुख्य नारा था। धर्म और सर्वोच्च होने की मानसिकता इसे और भी भयावह बनाती है। विकास की यह दिशा पिछले 30 सालों में ही सही, हमें कहीं नहीं ले गई है। ऐसे विकास पर पुनर्विचार की जरूरत है। कम से कम हम इस तरफ पहल कर ही सकते हैं।
(अंजनी कुमार लेखक और टिप्पणीकार हैं।)