गोपाल कृष्ण नहीं रहे। उन्हें मरना ही था। वो पिछले पांच बरस से मर रहे थे आहिस्ता-आहिस्ता। यह एक धीमी आत्महत्या थी। उनकी मौत मौजूदा निज़ाम की खामी की भी देन है। इस निज़ाम ने पढ़ने-लिखने और सोचने-समझने वालों के लिए स्पेस कम किया है। इस निज़ाम ने गोपाल को अकेला कर दिया। वह एक्टिविस्ट थे। वह काम करना चाहते थे। वह एक्टिव होना चाहते थे। वह अपने तईं स्पेस नहीं बना पा रहे थे। गोपाल की मौत मौजूदा समाज की देन है। यहां अब कोई किसी से मिलना नहीं चाहता। गोपाल को अपने पुराने साथी चाहिए थे, लेकिन उनसे स्नेह करने वाले लोग दूर बहुत दूर हो गए थे। जब वह मरे तो नितांत अकेले थे।
गोपाल फैजाबाद की बड़ी अहम शख्सियत थे। रहस्यों से भरे एक ऐसे राही जिसे मंजिल नहीं सफर की तलाश थी। वह रंगकर्मी थे। थियेटर एक्टर थे। पत्रकार थे। वक्ता थे। पॉलिटिकल थिंकर थे। इन सबसे अलग गोपाल बहुत अच्छे दोस्त थे। बहुत खराब बात थी कि उनके आखिरी वक्त में उनके साथ कोई दोस्त नहीं था। मंगलवार को अस्पताल में उन्होंने आखिरी सांस ली। वह शहरयार थे। हर गली-नुक्कड़ पर उनके दोस्त और परिचित थे। दोस्तों से घिरे रहने वाले गोपाल जी अपने आखिरी वक्त में नितांत अकेले थे।
उन्हें पूरे जीवन प्रेम की तलाश रही। सच्चे प्रेम की। ज्ञानी गोपाल पूरे जीवन यह समझ ही नहीं सके कि इस संसार में ‘सच्चा प्रेम’ जैसा कुछ होता ही नहीं। सच्चे प्रेम की तलाश में उन्होंने अपने इर्द-गिर्द एक छोटी सी दुनिया सजाई। खूब सारे दोस्तों वाली दुनिया। गोपाल को अकेलेपन से डर लगता था। वह हमेशा दोस्तों से घिरे रहना चाहते थे। यह विडंबना ही है कि मरते वक्त वह नितांत अकेले थे।
एक जमाने में चौक की टेढ़ी गली के एक छोटे से कमरे में हर शाम बीसियों लोग जमा होते। रात 10-11 बजे तक लोग जमे रहते। साहित्य, सियासत और नाटकों पर चर्चा होती। इनमें बड़ी संख्या पत्रकारों, साहित्यकारों और नाटककारों की होती। रेडियो के लोग भी होते। सियासी लोग भी होते। लेफ्ट के लोग, संघ के लोग, बीजेपी के लोग, शिवसेना के लोग, सपा-बसपा और कांग्रेस के लोग। यह गोपाल की ही कलाकारी थी कि इतने किसिम-किसिम के लोग एक जगह पर एक साथ जमा कर लेते। कभी-कहीं कोई विवाद नहीं हुआ। फिर भी मरते वक्त वह नितांत अकेले थे।
‘सच्चे प्रेम’ की तलाश में दोस्तों पर खूब पैसा खर्च किया। यह तयशुदा था कि उन्हें ठगा जाना ही था। वह ठगे गए खूब ठगे गए। बार-बार ठगे गए। उन्हें ठगने वाले उनके कुछ ‘प्रिय लोग’ थे। उन्हें सच्चा प्रेम तो मिला नहीं, लेकिन लाखों के कर्जदार हो गए। चार जोड़ी कपड़ों में जिंदगी गुजारने वाले गोपाल कृष्ण ने कभी खुद पर पैसे खर्च नहीं किए। उनके पास खुद की साइकिल तक नहीं थी, लेकिन कर्ज लाखों का था। ये कर्ज उन्होंने दूसरों की खुशियों के लिए लिया और उसे आखिरी वक्त तक चुकाते रहे। यह बहुत अहम था कि उनके परिवार ने बिना कोई सवाल किए उनका काफी कर्ज चुकता भी किया।
गोपाल दिल्ली में अन्ना के आंदोलन से जुड़े रहे। जब आम आदमी पार्टी का गठन हो रहा था तो वह उसका भी हिस्सा रहे। पद-प्रतिष्ठा और शोहरत को छोड़कर अचानक फैजाबाद लौट पड़े। मैं भी उन दिनों दिल्ली में सहारा न्यूज चैनल में था। अन्ना आंदोलन के दौरान वह संजय सिंह (आप नेता) के साथ सहारा के सेक्टर 11 स्थित कैंपस में आते। टीवी डिबेट में बोलते। मैंने कहा, अब यहीं मेरे पास रहिए। आप टीवी डिबेट के लिए परफेक्ट हैं। आपकी डिमांड भी है। एक दिन देर रात तक फ्लैट पर नहीं पहुंचे। मैंने फोन किया। जवाब मिला- मैं तो फैजाबाद आ गया। वह चुपके से चले गए थे। दिल्ली उनसे दूर हो गई। वह फिर कभी दिल्ली नहीं लौटे। वह फैजाबाद रहना चाहते थे। यहां उनके दोस्त थे। उनकी दुनिया थी। मगर मरते वक्त गोपाल नितांत अकेले थे।
इन सबसे पहले गोपाल ने ओशो के विचारों के साथ आसरा तलाशा। ओशो की भरी-पुरी दुनिया में कुछ साल गुजारने के बाद वो अपने संसार में लौट आए। वहां सब कुछ था मगर प्यार नहीं। सच्चा प्रेम नहीं था।
गोपाल सीपीआई-एमएल के भी करीब रहे। उसके कई सारे कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर शिरकत करते। पार्टी उन्हें सदस्य बनाना चाहती थी। यह शायद मार्च 1998 की दोपहरी की बात है। फैजाबाद में श्रम भवन पर पार्टी मेंबरशिप का फार्म भरा जा रहा था। उन्हें भी फार्म दिया गया। वह फार्म लेकर चले गए। फिर सीपीआई-एमएल की तरफ कभी नहीं लौटे। बाद में कहने लगे- यार मैं इतने बंधनों में बंध नहीं पाऊंगा। बाद में पार्टी को मुझसे दिक्कत होने लगेगी।
गोपाल का चीजों को देखने का अपना नजरिया और तरीका था। बीसेक साल पहले का दौर। शाम तीन-चार बजे अपनी गली से बाहर निकलते। उनका मकान चौक टेढ़ी गली में था। पैडल रिक्शे वाले को 50 रुपये देते और कहते शहर घुमाओ। रिक्शा सड़कों पर रेंगता रहता। इस दौरान कामेला खोसेसेला के उपन्यासों से लेकर, अल्बेयर कामू और बर्तोल्त ब्रेख्त के नाटकों पर चर्चा चलती रहती। पाश की कविताओं के अर्थ और महत्व पर बात होती। वह ब्रेख्त और पाश से बहुत प्रभावित थे।
उन्हीं दिनों की बात है। अकसर मेरे साथ रेलवे स्टेशन पर घंटों बैठे रहते। कहते यहां बैठकर जीवन को महसूस करो। यहां नजर आ रहा सफर और जिंदगी का सफर एक जैसा ही है। जीवन की गाड़ी छूट न जाए, इसलिए लोग बस दौड़ रहे हैं।
मुझसे शहर छूट गया और मैं नौकरी के लिए खानाबदोश हो गया। प्रिय मित्र गोपाल भी छूट गए। इस दौरान कभी उनसे बरेली में मुलाकात होती रही, कभी दिल्ली तो कभी लखनऊ में। फिर कभी इस तरह फुर्सत से बैठना नहीं हो सका। थोड़ा सा पाने के लिए सब छूटता गया। धीरे-धीरे गोपाल सबसे ही दूर हो गए और जब कल मंगलवार को उनका निधन हुआ तो वह नितांत अकेले थे।
कोई दोस्त है न रक़ीब है
तेरा शहर कितना अजीब है
(कुमार रहमान पत्रकार हैं और गोपाल कृष्ण के साथ अपने जीवन का लंबा सफर गुजारा है।)
+ There are no comments
Add yours