Friday, April 26, 2024

दलित उत्पीड़न: सामने आया ‘देवभूमि’ का दानवी चेहरा

पिछले एक महीने में उत्तराखंड के चम्पावत जिले में दलित समुदाय के साथ हुई दो घटनाओं के बाद यह सोचने पर विवश कर दिया है कि अपने को खुले दिल दिमाग का बताने वाले उत्तराखंड के समाज में दलितों से विद्वेष का स्थाई भाव अभी भी जमा हुआ है। जिसको एक जाने माने एक्टिविस्ट ने दलितों के ख़िलाफ़ अंडर करेन्ट का नाम दिया है।

उत्तराखंड में नेपाल की सीमा से सटे चम्पावत जिले के देवीधुरा के पास केदारनाथ गांव में दर्जी का काम करने वाले दलित रमेश राम की गत 28 नवम्बर को एक शादी में हत्या हो गई थी। तो पिछले पखवाड़े चम्पावत में सूखीढांग इंटरकालेज में दलित भोजन माता की नियुक्ति के बाद सवर्ण बच्चों के खाना न खाने की घटनाएं हुई हैं। चम्पावत में हुई इन घटनाओं से पहले भी अनेक ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं जिससे इस धारणा को बल मिलता है। 

हालिया एक घटना में चम्पावत के गांव में एक दलित टेलर की हत्या केवल इसलिए  हो गई क्योंकि सवर्णों की बारात में गए दलित टेलर ने अपने हाथ से खाना निकालने का दुस्साहस किया था। यह घटना स्तब्धकारी है। केदारनाथ गांव के निवासी रमेश राम  अपने मकान मालिक के घर शादी में गए थे। शाम को जब घर वापस नहीं आए तो उनके बेटे ने  फोन किया तो दूसरे आदमी ने फोन उठाकर बताया कि वो शादी में व्यस्त हैं।

जबकि रमेश राम के साथ शादी में अपने हाथ से खाना निकालने पर हुए विवाद पर उनके साथ मारपीट कर दी थी। बुरी तरह से घायल रमेश राम को कुछ लोग लोहाघाट के अस्पताल में छोड़कर चले गए, बाद में उन्हें चम्पावत के जिला अस्पताल और फिर वहां से हल्द्वानी नैनीताल के सुशीला तिवारी अस्पताल में रिफर कर दिया गया। जहां इलाज के दौरान रमेश राम की मृत्यु हो गई। बताते हैं कि हल्द्वानी अस्पताल ले जाते हुए रमेश ने अपने बेटे को घटना की जानकारी दी थी।

इस दुखद और कलंकित करने वाली घटना के बाद अनेक संगठनों ने इसकी निंदा की है। कुछ सामाजिक संगठनों ने उच्चाधिकारियों से मिलकर घटना में शामिल दोषियों पर कड़ी कार्रवाई करने की मांग की है। चम्पावत के जिला मुख्यालय में इस घटना के विरोध में जुलूस भी निकाला है। भीम आर्मी के चन्द्र शेखर रावण का चम्पावत का दौरा इस घटना की गम्भीरता को बताता है।

इसी तरह सूखीढांग इन्टर कालेज में दलित भोजनमाता की नियुक्ति के बाद सवर्ण बच्चों के खाना बहिष्कार और प्रत्युत्तर में दलित बच्चों के सवर्ण भोजनमाता के साथ का बना न खाने की जो घटना हुई है वह उत्तराखंड में गम्भीर सामाजिक बीमारी की ओर इशारा कर रही है। इससे पहले भोजनमाता के चयन में जिस तरह स्थानीय सवर्ण समाज ने तिकड़म की, वह बहुत निराशाजनक है। 

स्कूल में दलित भोजनमाता का चयन और नियुक्ति नियमानुसार चयन मानकों के आधार पर हुई थी। जिसके बाद सवर्ण समाज के कुछ लोगों की कथित शह पर सवर्ण छात्रों ने दलित भोजन माता के साथ के बने खाने का बहिष्कार कर दिया। दलित भोजन माता के साथ के बने खाने का बहिष्कार ही नहीं हुआ बल्कि इसका मीडिया इवेंट बनाकर अधिकारियों पर दबाव बनाया गया।  जिसके बाद अधिकारियों ने कथित जांच के बाद दलित भोजन माता की नियुक्ति को नियम विरुद्ध बताकर रद्द कर दी। इसके बाद स्कूल में बची भोजन सहायिका पर खाना बनाने की जिम्मेदारी आ गई। जो सवर्ण समाज की थी, ऐसे में दलित समुदाय के बच्चों ने सवर्ण समुदाय की भोजन माता के साथ का खाना खाने से इंकार कर दिया। और अपने घरों से टिफिन लाने लगे।

दलित बच्चों के इस जवाब पर मीडिया में ख़ूब खबरें चल गईं यह खबर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया की हेडलाइन बन गई। जिससे सरकार और प्रशासन की छवि पर प्रभाव पड़ा। ऐसे में सरकारी आदेश पर चेहरा बचाने के लिए तुरत-फुरत समझौते और मान-मनौव्वल की कोशिशें हुईं और यह तय हुआ कि सभी छात्र मौजूदा सहायक भोजन माता (सवर्ण) के साथ का खाना एक साथ खाएंगे। पूरे मामले की जांच के लिए तीन सदस्यीय जांच समिति बना दी गई जिसकी रिपोर्ट पर आगे कार्यवाही होगी।

पूरे प्रकरण में प्रशासन सरकार और सवर्ण समाज की मानसिकता मामला रफा-दफा करने और दलित समाज पर हावी रहने की रही है। जिन लोगों ने दलित भोजन माता के बने खाने का बहिष्कार करने का अभियान चलाया था उनके विरुद्ध कार्यवाही न होकर दलित भोजन माता की नियुक्ति को ही रद्द कर दिया गया।

यह दुख की बात है कि उत्तराखंड के परम्परागत व रूढ़िवादी समाज में तमाम तरह के प्रगतिशील और सद्भावना के आंदोलनों के बाद भी हर वर्ष छुआछूत और जातिगत भेदभाव के ऐसे किस्से/घटनाएं देखने सुनने को मिल रही हैं।

यहां यह उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड ऐसा भी इलाका रहा है जहां पर सामाजिक चेतना के अनेक आंदोलन आरंभ हुए थे। सरकार और यहां का सवर्ण समाज उत्तराखंड को देवभूमि कहकर उसकी मार्केटिंग करता है। लेकिन हक़ीक़त यह है कि यहां समाज तोड़ने वाली घटनाएं होती रहती हैं, लेकिन यहां का सवर्ण समाज इस सच्चाई से मुंह फेरे हुए है।

अप्रैल 2019 में गढ़वाल में भी शादी में ऐसे ही विवाद में एक दलित युवा की हत्या हुई थी। बागेश्वर में चक्की छूने पर दलित की हत्या, मंदिर प्रवेश को लेकर दलितों पर पथराव, (जिसमें सत्तारूढ़ दल के सांसद भी सम्मिलित थे) कोविड काल में नैनीताल जिले में  दलित उत्पीड़न जैसी घटनाएं पिछले कुछ वर्षों की हैं।

 दो वर्ष पूर्व बीबीसी के प्रतिनिधि से बात करते हुए उत्तराखंड अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग के एक जिम्मेदार अधिकारी ने बताया था कि राज्य में दलित उत्पीड़न की हर साल करीब  300 घटनाएं प्रकाश में आती हैं। एक दलित सूत्र के अनुसार इस साल दलित उत्पीड़न की करीब 200 घटनाएं हुई हैं जो बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। यह घटनाएं यह बताती हैं कि कि राज्य में सवर्ण-अवर्ण में गहरा जातिगत भेदभाव है तो दूसरी ओर यह भी सच है कि सवर्णों के बीच भी जातिगत भेदभाव मौजूद है।

यह बड़ा दुखद दुर्योग है कि जिस गांव के निवासी के साथ यह कलंकित घटना हुई है उसका नाम केदारनाथ है। जबकि उत्तराखंड के टिहरी जिले के इसी नाम के दूरस्थ गांव बूढ़ा केदारनाथ में 1952 में गांधी विचार के आधार पर दलित व सवर्ण परिवारों में साथ रहने खाने और काम करने का एक अनूठा प्रयोग हुआ था जो कि लम्बे समय तक समाज में सद्भाव और सौहार्द्र को प्रेरित करता रहा है।

स्वतंत्रता के बाद आधुनिक काल में गांधी के विचारों से प्रभावित होकर यहां के समाज सेवकों ने ऐसे क्रांतिकारी आंदोलनों को आरंभ किया जिसने देश विदेश में लोगों, संस्थाओं व सरकारों को प्रेरित और प्रभावित किया था।

देश स्वतंत्रता और टिहरी रियासत के विलय के बाद गांधी विचार से प्रभावित कार्यकर्ताओं ने उत्तराखंड में सबसे क्रांतिकारी काम सामाजिक सद्भाव और छुआछूत रोकने का काम किया था। सवर्ण और अवर्ण के साथ रहने खाने और काम करने का अनूठा कार्य उत्तराखंड में टिहरी जिले के दूर दराज के एक इलाके बूढ़ा केदारनाथ में 1952 में एक आरंभ हुआ था। जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय और शिल्पकार परिवारों ने एक साथ मिलकर रहने, काम करने और खाना खाने का निर्णय किया था। यह विलक्षण और अनुकरणीय कार्य टिहरी रियासत के एक ब्राह्मण रसोइया परिवार के धर्मानंद नौटियाल, एक क्षत्रिय ठाकुर बहादुर सिंह राणा और शिल्पकार भरपूर नगवाण ने 1952 में आरम्भ किया।

और सबसे आश्चर्यजनक बात यह रही कि जिस मकान में तीनों परिवारों ने साथ रहने का निर्णय किया वह घर प्रसिद्ध बूढ़ा केदारनाथ मंदिर के पास ही था। जो कि चारधाम यात्रा के पैदल मार्ग में और चारधाम यात्रा का भाग था और है। जिस समय दलित और सवर्ण समाज के इन तीन परिवारों ने साथ रहने का निर्णय लिया था उस समय बूढ़ा केदारनाथ मंदिर में दलितों/शिल्पकारों का प्रवेश वर्जित था। बाद में सर्वोदय के लोगों ने ही बूढ़ा केदारनाथ मंदिर में प्रवेश को लेकर लम्बा आंदोलन चलाया था लम्बे आंदोलन के बाद मंदिरों में दलितों के प्रवेश के रास्ते खुले थे।

12 साल तक यह तीनों परिवार बूढ़ा केदारनाथ मंदिर के पास ही एक घर एक छत के नीचे रहकर सद्भाव और समन्वय की मिसाल बने रहे। बाद में परिवार के बढ़ने के कारण अलग तो हुए लेकिन आपसी सद्भाव बना रहा। इस सद्भाव के प्रयोग से प्रभावित होकर क्षेत्र में दलितों के मंदिर प्रवेश का सफल आंदोलन चला, श्मशान स्थलों में बराबरी आई, शिल्पकार परिवारों में कन्या विक्रय विवाह की जगह कन्यादान आरंभ हुआ और भी अनेक सामाजिक आर्थिक विकास के कार्य बिना किसी बाहरी मदद के गांधी विनोबा विचारों पर हुए। लेकिन बाद में  सामाजिक सद्भाव का यह आंदोलन आगे नहीं बढ़ सका।

इस तरह की घटनाओं को देखते हुए उत्तराखंड में दलित और सवर्ण समाज को आपसी विचार करके इस स्थिति को बदलने की कोशिश करनी चाहिए। जिसमें एक रास्ता गांधी का भी है। जिसके लिए गांधी व सर्वोदय के विचार मानने वालों को भी आगे आना होगा। तो दूसरी तरफ अम्बेडकर के अनुयायियों को सवर्ण समाज से बातचीत के लिए तैयार रहना होगा। इसे लगातार एक आंदोलन के रूप में चलाने की आवश्यकता है।

ताकि समाज में सामाजिक सद्भाव और सद्भावना का वातावरण बढ़ सके और ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो सके। लेकिन इससे पहले सवर्ण समाज को दलित उत्पीड़न की वास्तविक स्थिति स्वीकार करके समाज के व्यापक हित में छुआछूत और सामाजिक दुराव को छोड़ना होगा। अब यह कहकर काम चलने वाला नहीं है कि उत्तराखंड के समाज में दलित और सवर्ण समाज में नज़दीक के एक अन्तर्सम्बन्ध हैं और दोनों समाजों की पारस्परिक निर्भरता देश में अनूठी है। दलित समाज के विरुद्ध सवर्ण समाज का छिपा हुआ दुराव स्वस्थ समाज की निशानी कतई नहीं है। इस गंदगी को जितनी जल्दी समाप्त कर सकें उतना ही अच्छा है।

(इस्लाम हुसैन स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं। आजकल आप काठगोदाम, नैनीताल में रहते हैं।)

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