दिल्ली से पैदल गांव लौटता हताश लोकतंत्र !

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वे दिल्ली से लौट रहे हैं। क्योंकि दिल्ली से उन्हें लौटा दिया गया है। लौटने का कोई साधन नहीं है। न रेल, न बस और न ही टेम्पो जीप जैसे साधन। वे पैदल ही चल पड़े हैं। कोई हमीरपुर, महोबा, टीकमगढ़, झांसी की ओर। तो दूर के मजदूर भी हैं बनारस, आरा, छपरा, बलिया से लेकर गोरखपुर के भी। कुछ और आगे बिहार के भी हैं। गठरी मोटरी लेकर छोटे बच्चे को गोद में लिए यह कई घंटे चलेंगे। आजादी के बाद ऐसा कोई दृश्य याद है किसी को। हो सकता है विभाजन के समय किसी ने देखा हो। इन्हें रास्ते में जैसी पुलिस मिल गई वैसा व्यवहार कर देती है। कुछ सजा देती है। मुर्गा मेढक बना देती है तो कहीं पर लाठी का प्रसाद भी मिल जाता है। 

कहीं पुलिस वाले तरस खाकर छोड़ भी देते हैं। सरकार ने इन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया है। जैसे भी हो ये खुद अपने गांव तक पहुंचे। इनमें ज्यादातर हिंदू हैं पर गरीब हिंदू। गरीब हिंदू बहुत जगह काम भी आता है पर हर जगह उसकी कोई उपयोगिता हो यह जरूरी नहीं। इनके पास पैसा भी नहीं है कि रास्ते में चाय बिस्कुट या केला खरीद लें दुधमुंहे बच्चे के लिए। कहीं कोई समाजसेवी मंदिर या गुरद्वारा वाले मिल गए तो हो सकता है दाल-रोटी मिल जाए पर सभी को तो मुश्किल है। कभी आपने सोचा है दिल्ली से बलिया तक पैदल जाने के बारे में। कभी सोच कर देखिये। पीड़ा तो तभी समझ आएगी।

दिल्ली से लोग बहुत निराश, हताश और उदास होकर लौटे हैं। हालांकि यह पलायन चार-पांच दिन पहले से ही शुरू हो गया था, लेकिन मंगलवार की रात से भगदड़ मची जब प्रधानमंत्री ने पूरे देश में 21 दिनों के  लॉकडाउन की घोषणा की। लोग हैरान थे इनकी उम्मीद ही टूट गई। रात से ही बड़ी तादाद में लोग अपना बिस्तर बांधकर यूपी, बिहार, हरियाणा, राजस्थान और पंजाब में स्थित अपने घरों के लिए निकल पड़े। इनका  कहना था कि अगर यहां रहे, तो कोरोना से पहले भूख से मर जाएंगे। अभी निकलेंगे, तो कम से कम जिंदा अपने गांव तक तो पहुंच जाएंगे। जब हालात सुधर जाएंगे, तो वापस आ जाएंगे। ये निकल गए बिना किसी से कुछ पूछे।

सरकार से ये क्या सवाल पूछेंगे, इनकी क्या हैसियत है। जब सक्षम लोग सवाल नहीं पूछ पाते तो ये क्या पूछेंगे। आपको याद होगा कि हम वुहान से बड़ी संख्या में लोगों को एयर लिफ्ट कर लाए। और भी देश से लाये। और जिन्हें नहीं लाए वे तो खुद आए और महामारी भी साथ लाए। यह पंद्रह मार्च तक हुआ। दो महीने तक हम कभी ट्रंप को देखते कभी मध्य प्रदेश की सरकार बनने में कोई बाधा न पड़े यह सुनिश्चित करने में जुटे रहे।कोर्ट से तो खैर गरीब तबका क्या उम्मीद रखे और क्यों रखे। पर सरकार क्या उसे नहीं सोचना चाहिए था ये भारत के लोग ही हैं जिन्हें सड़क पर छोड़ दिया गया हजार किलोमीटर चलने के लिए। क्या इन्हें कोई इंतजाम कर घर नहीं पहुंचाया जा सकता था। ये तो चार दिन का राशन भी नहीं खरीद सकते थे। पैसा ही नहीं था। क्या ये हमारे लोकतंत्र का हिस्सा नहीं हैं। कोई सवाल पूछेगा दिल्ली से लौटते इस हताश लोकतंत्र को लेकर।

हालांकि चौतरफ़ा पड़ रहे दबावों के बाद शासन-प्रशासन अब सक्रिय हुआ है। कल रात ही जारी एक प्रेस रिलीज़ में यह बताया गया है कि रास्ते में जा रहे इन मज़दूरों और दूसरे प्रवासियों को बस या फिर दूसरे साधनों से उनके घरों तक पहुँचाने की व्यवस्था की जाएगी। अब यह कितना लागू हो पाएगा यह दूसरी बात है। 

(अंबरीश कुमार साप्ताहिक शुक्रवार के संपादक हैं। और इंडियन एक्सप्रेस समूह को 26 साल अपनी सेवाएँ दे चुके हैं।)

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