Wednesday, April 24, 2024

‘आदिवासियत ही पृथ्वी और पर्यावरण की रक्षा कर सकती है’ कहने वाले डॉ करमा उरांव नहीं रहे

रांची। आदिवासी समाज की रीढ़ समझे जाने वाले प्रख्यात मानवशास्त्री डॉ करमा उरांव का 14 मई की सुबह निधन हो गया। वे पिछले कुछ महीनों से बीमार चल रहे थे। उन्हें 4 दिन पहले ही रांची मेदांता हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था। जहां इलाज के दौरान ICU में उन्होंने अंतिम सांस ली। उनका कहना था कि ‘आदिवासियत ही पृथ्वी व पर्यावरण की रक्षा कर सकती है’।

अकादमिक जगत में एक अलग पहचान स्थापित करने वाले विश्व प्रसिद्ध मानवशास्त्री सह शिक्षाविद डॉ करमा उरांव के अध्ययन के केंद्र में आदिवासी ही रहे। भले ही वे झारखंड के रहने वाले थे लेकिन विश्व आदिवासी समाज में उनकी एक अलग पहचान थी। इस पहचान के साथ उनकी एक छवि आंदोलनकारी की भी थी। छात्र जीवन से ही वह आदिवासी मुद्दों को लेकर सक्रिय रहे। उन्होंने कुछ दिनों तक राजनीति में भी भागीदारी की।

वे इस बात पर बल देते रहे कि यदि पृथ्वी को महाविनाश से बचाना है, तो सिर्फ आदिवासी ही नहीं, दुनिया को प्रकृति पूजा की ओर फिर से लौटना होगा। आदिवासियत ही पृथ्वी व पर्यावरण की रक्षा कर सकती है। वह सरना धर्म कोड के लिए भी लोगों को जागरूक करते रहे। उन्होंने मंचों से कई बार आदिवासियों को संबोधित करते हुए कहा था कि जनगणना में सरना धर्म दर्ज करना है।

अपनी मिट्टी से डॉ उरांव को खास लगाव था। वे दिसंबर 2021 में सरना धर्म कोड को लेकर दिल्ली चलो का नारा भी दिया था। 2023 के मार्च में मोरहाबादी मैदान में एक विशाल रैली को संबोधित करते हुए डॉ उरांव ने कहा था कि केंद्र सरकार को सरना धर्म कोड देना ही होगा। यह हमारी आस्था का सवाल है।

वे सरना धर्म कोड को लेकर काफी मुखर रहे। वह मानते थे कि सरना प्रकृति पर आधारित विश्व का सबसे पुराना धर्म है। प्रकृति पूजा से ही पृथ्वी में संतुलन व खुशहाली हो सकती है। उनका कहना था कि जैसे-जैसे प्रकृति पूजा पद्धति घटी, वैसे-वैसे दुनिया में अशांति, दुख व विपत्ति का फैलाव होता गया।

डॉ करमा उरांव दो दर्जन अकादमिक संस्थाओं से जुड़े रहे थे और एक दर्जन से ज्यादा देशों का भ्रमण कर चुके थे, बावज़ूद इसके उन्होंने अपनी जमीन कभी नहीं छोड़ी। दंभ उन्हें छुआ तक नहीं, वे हमेशा अपनी जमीन की धुरी पर खड़े होकर अपने मन और ढंग की राजनीति करते रहे।

डॉ. करमा उरांव (फाइल फोटो)

डॉ करमा उरांव ने राजनीति में प्रवेश किया लेकिन अंततः उन्हें राजनीति रास नहीं आई और वे राजनीति की तंग गलियों में जाना ही छोड़ दिया। उन्होंने चुनावी राजनीति में भी किस्मत आजमाई लेकिन यहां इन्हें सफलता हाथ नहीं आई।

उन्होंने 1980 में जनता पार्टी से लोहरदगा सीट से चुनाव लड़ा, लेकिन कांग्रेस के कार्तिक उरांव से हार गए। 1980 में ही बिशुनपुर से भाजपा के टिकट पर विधानसभा सीट पर चुनाव लड़े, लेकिन कांग्रेस के भुखला भगत से चुनाव हार गए। उसके 20 साल बाद 2000 में पुनः वे भाजपा के टिकट पर खिजरी विधानसभा सुरक्षित सीट से चुनाव लड़े, लेकिन जनता ने इन्हें खारिज कर कांग्रेस के सावना लकड़ा में अपना विश्वास जताया।

2005 में एक बार फिर उन्होंने भाग्य आजमाया और लोहरदगा विधानसभा सीट से आदिवासी छात्र संघ के बैनर तले निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव मैदान में उतरे, लेकिन किस्मत ने साथ नहीं दिया और कांग्रेस के सुखदेव भगत बाजी मार गए। मतलब चुनावी राजनीति में किस्मत हमेशा दगाबाज ही रही।

रांची विवि के स्नातकोत्तर मानवशास्त्र विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष, डॉ अविनाश चंद्र मिश्र बताते हैं कि “डॉ करमा उरांव का जन्म गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड के लोंगा महुआटोली गांव में हुआ था। वे अपने पीछे पत्नी शांति उरांव, बेटी डॉ. नेहा चाला उरांव और एक छोटा बेटा शनि उरांव को छोड़ गये। कोरोना के समय अपने बड़े बेटे धर्मेश उरांव के असमय निधन से वे बुरी तरह टूट चुके थे। एक मानवशास्त्री के रूप में उन्होंने दो दर्जन से अधिक देशों की यात्रा की थी।

वे कहते हैं कि “सुबह जब डॉ करमा उरांव के निधन की जानकारी मिली, तो सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि डॉ उरांव अब इस दुनिया में नहीं रहे। अभी तो वे 71-72 वर्ष के ही थे। इतनी जल्दी निधन की खबर मेरे लिए असहनीय है, वे मेरे अभिन्न मित्रों में से थे। 1970 में उनसे पहली मुलाकात हुई थी। जब वे लोहरदगा से रांची कॉलेज में प्री-यूनिवर्सिटी कक्षा में दाखिला लेने आये थे। 1974 तक हम लोगों ने स्नातक पाठ्यक्रम के लिए साथ पढ़ाई की।

डॉ उरांव 1979 में राम लखन सिंह यादव कॉलेज में मानवशास्त्र विषय के व्याख्याता बने। डॉ उरांव को जब भी किसी काम से रांची या बाहर जाना होता था, तो मुझे साथ लेकर जाते थे। स्वभाव से मिलनसार डॉ उरांव अपनी बेबाकी के लिए जाने जाते थे। हां, अगर कहीं भ्रष्टाचार हो रहा है, तो वे उसके खिलाफ हो जाते थे। छात्र हो या फिर शिक्षक, सबों की समस्या को दूर करने के लिए वे किसी से लड़ जाते थे।”

डॉ अविनाश बताते हैं कि “एक बार वे शिक्षकों की समस्याओं को दूर करने के लिए मोरहाबादी मैदान में अर्द्धनग्न अवस्था में ही प्रदर्शन करने लगे। विवि में शिक्षकों के वेतन भुगतान में देरी होने पर अक्सर कुलपति तक से भिड़ जाते थे। शिक्षकों का नियमित वेतन भुगतान नहीं होने पर एक बार कुलपति के चैंबर में ही डॉ उरांव ने टेबल आदि पटक दिया था।

डॉ उरांव जितनी जल्दी गुस्सा करते थे, उतनी ही जल्दी शांत भी हो जाते थे। कोरोना काल में उनके पुत्र सिद्धार्थ की मौत से वे काफी दुखी रहने लगे थे। उनका बेटा मुंबई में रिलायंस कंपनी में बहुत ही बड़े पद पर था। डॉ उरांव कहते थे कि वे आदिवासियों के हित के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। पढ़े-लिखे आदमी को बुद्धिजीवी होना चाहिए। झारखंड में कई सरकारें आयीं, वो जहां गलत व्यवस्था देखते थे, अपने को अलग कर लेते थे।

उनके निधन पर शोक व्यक्त करते हुए सीएम हेमंत सोरेन ने ट्वीट कर कहा कि “महान शिक्षाविद तथा आदिवासी उत्थान के प्रति हमेशा सजग रहने और चिंतन करने वाले डॉ करमा उरांव जी के निधन का दुःखद समाचार मिला। डॉ करमा उरांव जी से कई विषयों पर मार्गदर्शन मिलता था। उनके निधन से आज मुझे व्यक्तिगत क्षति हुई है।

झारखंड के पहले मुख्यमंत्री और बीजेपी नेता बाबूलाल मरांडी ने भी ट्वीट कर उनके निधन पर शोक जताते हुए लिखा है कि वे आदिवासी संस्कृति व समाज के उत्थान के लिए जीवनपर्यंत समर्पित रहे, प्रख्यात मानवशास्त्री व शिक्षाविद डॉक्टर करमा उरांव जी के निधन की दुःखद सूचना प्राप्त हुई। भाषा, संस्कृति और समाज के लिए उनके उल्लेखनीय कार्य सदैव लोगों को प्रेरित करते रहेंगे।

झारखंड के पूर्व उपमुख्यमंत्री एवं आजसू पार्टी के केंद्रीय अध्यक्ष सुदेश कुमार महतो ने डॉ करमा उरांव के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए कहा कि डॉ करमा उरांव आदिवासी समाज के उत्थान व झारखंडी सभ्यता, संस्कृति एवं परंपराओं के संरक्षण एवं संवर्धन को लेकर हमेशा समर्पित एवं प्रयत्नशील रहे हैं। वे अपने आप में एक संस्था थे। झारखंड की समृद्ध संस्कृति को आगे बढ़ाने और आदिवासियों की पहचान बनाए रखने के लिए वे अपनी अंतिम सांस तक लड़ते रहे। उनके योगदान को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता।

झारखंड के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री डॉ दिनेश कुमार षाड़ंगी ने कहा कि प्रख्यात मानव शास्त्री, शिक्षाविद तथा झारखंड के आदिवासी और मूलवासियों के हक की लड़ाई करने वाले डॉ करमा उरांव का निधन उनकी व्यक्तिगत एवं राज्य के लिए अपूरणीय क्षति है। इसकी भरपाई संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि बिहार लोक सभा आयोग के सदस्य के रूप डॉ करमा उरांव ने प्रशंसनीय कार्य किया। विश्वविद्यालय के प्राध्यापक के रूप में किये कार्यों के लिए तथा जनहित में किए गए आंदोलनों के कारण वे हमेशा याद किए जाएंगे।

(झारखंड से वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट)

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