Tuesday, May 30, 2023

पंजाब में मोदी-बादल को किसानों की खुली चुनौती: जंग जारी रहेगी

मोदी सरकार की ओर से कृषि सुधार के नाम पर जारी किए तीन अध्यादेशों, बिजली संशोधन 2020 बिल रद्द करवाने, पेट्रोल-डीज़ल की कीमतों में की गयी वृद्धि को वापस लेने और जेल में बन्द बुद्धिजीवियों की रिहाई के लिए पंजाब के तेरह किसान-मजदूर संगठनों ने कल राज्य के 21 जिलों में ट्रैक्टर मार्च किया। दस हजार से ज्यादा ट्रैक्टरों पर पहुंचे हजारों किसानों ने अकाली-भाजपा सांसदों और विधायकों सहित गठजोड़ के अन्य प्रमुख नेताओं की कोठियों और दफ़्तरों का घेराव करते हुए इस आंदोलन को एक नया मोड़ दे दिया है।

tractor march

इस आंदोलन की विशेषता यह भी है कि पंजाब के किसान यह आंदोलन सिर्फ अपनी आर्थिक मांगों को लेकर नहीं लड़ रहे हैं बल्कि उन्होंने जेलों में बंद वरवर राव, आनंद तेलतुंबड़े, गौतम नवलखा और देश भर के अन्य तमाम जम्हूरी अधिकार कार्यकर्ताओं की रिहाई को अपनी मांगों में शामिल किया है। जिससे युवा किसानों में उभरी चेतना का एक नया सकारात्मक पक्ष सामने आया है। दूसरा यह भी कि दूर बैठे ‘दुश्मन’ (मोदी) से घर में बैठे ‘दुश्मन’ (बादल परिवार) के गले पहले साफ़ा डालना चाहिए यह बात आंदोलन में शामिल किसानों ने अपने नेताओं को समझा दी है।      

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अब तक देखा जा रहा था कि यह आंदोलन मुख्य रूप से मोदी के विरोध में था और अकालियों के करीबी समझे जाने वाले इन किसान नेताओं पर यह सवाल उठने लगे थे कि वे केंद्र की मोदी सरकार के विरुद्ध तो बोल रहे हैं लेकिन उनके साथ गठजोड़ में शामिल अकालियों के खिलाफ़ एक शब्द बोलने से भी कन्नी क्यों काट रहे हैं? किसान नेताओं ने अब खुलकर अकाली दल (बादल) के खिलाफ़ मोर्चा खोल दिया है। उन पर इस बात के लिए दबाव बनाया जा रहा है कि वे भी या तो मोदी के खिलाफ़ हो जाएँ या कह दें कि वे किसानों के खिलाफ़ हैं। अकाली नेता ‘बादल’ को किसानों के रोष से बचाने के लिए कांग्रेसी नेता अमरिंदर सिंह ने पुख्ता इंतजाम कर रखे थे। सो बादल गाँव जा रहे हजारों किसानों को पुलिस ने गर्मी से झुलसती सड़क पर घंटों बैठने के लिए मजबूर कर दिया। पर उन्होंने घोषणा कर दी है कि जब तक भाजपा-अकाली पीछे नहीं हटते, जंग जारी रहेगी।     

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ज़ाहिर है, पंजाब में भाजपा-अकाली गठबंधन घेरे में आ गया है। पंजाब में अकाली दल के दिनों-दिन खिसकते जनाधार को ध्यान में रखते हुए भाजपा की आगामी रणनीति स्पष्ट नहीं है। कभी तो अपने अकाली-भाजपा गठबंधन को ‘जनम-जनम का साथ’ बता देते हैं तो कभी कोई न कोई भाजपा नेता आए दिनों अकेले चुनाव लड़ने की बातें कह दिया करता है। 

अकाली दल के नेता सुखबीर सिंह बादल भी इस खतरे को देखते हुए यह बात गाहे-बगाहे कह देते हैं कि किसान हितों से अलग होकर वह किसी गठजोड़ की परवाह नहीं करेंगे। दबाव की रणनीति के तहत सुखबीर सिंह बादल कभी अकाल तख्त के जत्थेदार की ओर से खालिस्तान का मुद्दा उछलवा  देते हैं तो कभी हरियाणा में अपने एकमात्र विधायक के भाजपा में शामिल हो जाने पर बिदक तो जाते हैं पर करते कुछ नहीं। असलियत तो यह है कि वह किसी भी कीमत पर अपनी पत्नी हरसिमरत कौर बादल के मलाईदार केंद्रीय मंत्री पद को हाथ से जाने नहीं देना चाहते। इसलिए खुले शब्दों में कृषि सुधार के नाम पर जारी किए तीन अध्यादेशों का समर्थन भी कर देते हैं। हरसिमरत कौर बादल भी दबे स्वर में कह तो देती हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से छेड़छाड़ नहीं होने दी जाएगी लेकिन वह भी जानती हैं कि किसानों की गर्दन पर रखी यह दोधारी तलवार कितनी तीखी है। कुल मिलाकर देखा जाए तो अकाली दल (बादल) की हालत इस समय साँप के मुँह में छछूंदर जैसी हुई पड़ी है- खाये तो अंधा, छोड़े तो कोढ़ी।  

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आम आदमी पार्टी को लेकर एक बात स्पष्ट है कि बुरी से बुरी स्थिति में भी अपनी तमाम राजनीतिक अपरिपक्वता के बावजूद उसके नेता पंजाब की सियासी चर्चा के केंद्र से कभी बाहर नहीं होते क्योंकि परंपरागत पार्टियों से परे जाकर पंजाब वासियों में एक ईमानदार और मजबूत विकल्प की उम्मीद अभी भी बाकी है। 

‘आप’ की अंदरूनी जूतमपैज़ार जारी है ऐसे में ‘आप’ की डूबती नैया के अकेले खेवनहार भगवंत मान ही किसान-विरोधी तीन अध्यादेशों को लेकर पंजाब में बादल परिवार की नाक में दम किए हुए नज़र आते हैं। ‘आप’ के राष्ट्रीय नेतृत्व का तानाशाही रवैया और पंजाब के मुद्दों पर नासमझ उदासीनता और मौकापरस्त चुप्पी ‘आप’ की पंजाब इकाई का एक बार फिर बचा-खुचा बेड़ा गर्क कर देगी। किसान भी केजरीवाल के दोगलेपन की नीति को समझते हैं यही वजह है कि भगवंत मान किसानों के आगे तो खड़े नज़र आ रहे हैं लेकिन किसान भगवंत मान के पीछे खड़े नज़र नहीं आ रहे।

विकल्पहीनता की स्थिति में काँग्रेस को पंजाब की जनता ने एक बार फिर मौका दिया था लेकिन पंजाब का राजा भी दिल्ली के फ़क़ीर की तरह कोई भी श्रेय किसी के साथ बांटना नहीं चाहता। यहां भी काँग्रेस के पास मध्य प्रदेश के सिंधिया और राजस्थान के पायलट जैसा ही एक सिद्ध पुरुष (सिद्धू) है जो पंजाब के कैप्टन का साथ छोड़ कर वैसे ही भाग खड़ा हुआ है जैसे कभी भारत के कैप्टन अजहरुद्दीन का साथ छोड़ कर चलती क्रिकेट सीरीज़ के बीच में से भाग खड़ा हुआ था। फिर एक बार कांग्रेस और अकाली दल का अपना जनाधार बड़ी तेजी से विलुप्त होता नज़र आ रहा है।

किसान मार्च का नेतृत्व करती बलदीप।

अकाली दल से अलग होकर सुखदेव सिंह ढींडसा ने अपना अकाली दल (डेमोक्रेटिक) खड़ा कर लिया है लेकिन पालने में पूत के पैर ढंग से नज़र नहीं आ रहे। हालांकि खैहरा और बैंस बंधु अपने-अपने गढ़ों में मजबूत स्थिति में हैं। जसवीर सिंह गढ़ी के बसपा अध्यक्ष बन जाने के बाद उम्मीद की जा रही है कि बसपा आईसीयू से बाहर आ जाएगी। लेकिन इन तमाम पार्टियों में वामपंथियों की तरह कोई भी नेता जन-संघर्षों से उभर कर आया नज़र नहीं आता। 

रही बात वामपंथियों की तो पंजाब में अब उनके नेताओं के ‘गुमशुदा की तलाश’ के पोस्टर भी नहीं लगते। मानसा जैसे कुछेक इलाकों में सुखदर्शन नत्त जैसे मार्क्सवादी-लेनिनवादी नेता जनता से जुड़कर पूरी ईमानदारी से काम करते जरूर नज़र आते हैं। वामपंथियों के राष्ट्रीय युवा नेतृत्व के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि इनके ड्राइ क्लीनर दुकान बंद करके भाग गए हैं और जूते पॉलिश होकर नहीं आए हैं। सो खाली वक़्त में वह ट्विटर और फ़ेसबुक पर ही क्रांति करते नज़र आते हैं। 

marcha last

आप उन्हें तानाशाह कहें, फासीवादी कहें पर दिल्ली की सत्ता पर क़ाबिज़ नेता बड़े अनुशासन के साथ एकजुट होकर जनविरोधी कर्रवाइयों में डटे हुए हैं। किसान-विरोधी अध्यादेश भी इसी जन-विरोधी युद्ध या यों कहें बमबारी का एक हिस्सा है। इनसे अटूट दृढ़़विश्वास के साथ सभी छोटी-बड़ी शक्तियों को एकसाथ मिलकर एकजुट होकर ही जीता जा सकता है। इसके लिए देश भर के किसानों-मजदूरों को एक होना होगा। लेकिन आलम तो यह है कि इस लड़ाई में उत्तर प्रदेश गायब नज़र आ रहा है। याद आती है धूमिल की वह पंक्ति– इतना मैं कायर हूँ कि….। अकेला उत्तर प्रदेश ही क्यों, बहुत से कायर प्रदेश गायब हैं।

फ़िल वक्त किसान आंदोलन के भविष्य के बारे में कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। पर इस कोरोना काल में एक बात बहुत से लोगों को समझ में आ गयी है कि प्रतिरोधक क्षमता कम हो तो छोटा-सा वायरस जान ले लेता है और एक टुच्चा-सा शासक भी।… कुछ भी हो, फिलहाल तो यह जंग जारी रहेगी।  

(देवेंद्र पाल वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल लुधियाना में रहते हैं।)

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