Thursday, June 1, 2023

भारत में नये ‘अरब वसंत’ का संकेत है किसानों का यह आंदोलन

दिल्ली पहुंचे किसान बुराड़ी नहीं गए, इसके बावजूद मोदी सरकार दो दिन पहले ही किसानों से वार्ता के लिए तैयार हो गई। बुराड़ी की खुली जेल में खुद ही घुस कर बंदी गुलामों के रूप में किसानों से हुजूर के दरबार में अरदास लगवाने की अमित शाह की वासना देखते ही देखते बिना किसी क्रिया के ही हवा हो गई ।

इसे कहते हैं अस्तित्व के संकट का दबाव । एक ऐसा संकट जिसमें सामने नजर आती मृत्यु के दबाव में आदमी अपने जीवन के स्वाभाविक छंद को खो देता है । अभी मोदी सरकार उसी दिशा में बढ़ चुकी है । आगे उसके सामने बार-बार अपनी कल्पित चालों की विफलता और लगातार घुटने टेकते चले जाने की करुण दशा के अलावा और कोई विकल्प शेष नहीं बचेंगे । इस सरकार को सरे बाजार बेपर्द करने वाले अब और अनेक प्रहसन देखने को मिलेंगे ।

किसानों से सरकार की वार्ता के नाटक के जितने अंक पूरे होंगे, हर अंक के साथ मोदी का अब तक का पूरा मिथ्याचार निपट नंगा दिखाई देने लगेगा । मोदी समझते हैं कि वार्ता में उलझा कर वे सड़क पर उतर गए किसानों को भ्रमित कर लेंगे । पर वे यह नहीं जानते कि किसानों के लिए वे जो जाल बुनना चाहते हैं, कल उसमें वे खुद ही फँसे हुए किसी कोने में तड़पते दिखाई देंगे ।

इसमें कोई शक नहीं है कि भारत के किसानों का यह संघर्ष अपने अंदर ‘अरब वसंत’ की तर्ज पर ही भारत के एक नए वसंत की दिशा में बढ़ने के सारे संकेत लिए हुए हैं । इसमें संकेतकों की वह नई श्रृंखला साफ देखी जा सकती है, जो तेज़ी के साथ आवर्त्तित होते हुए अंतत: एक ऐसे नए राजनीतिक दृश्य को उपस्थित करेगी, जिस दृश्य में से मोदी पूरी तरह से बाहर होंगे । सरकार के साथ किसान संगठनों की जितने चक्रों की वार्ताएँ होगी और यह संघर्ष जितना लंबा होगा, न सिर्फ मौजूदा कृषि संबंधी तीन काले क़ानून का विरोध प्रबल से प्रबलतर रूप में सामने आएगा, बल्कि कृषि क्षेत्र का पूरा संकट, भारत का समग्र सामाजिक संकट अपने विकराल रूप में पूरी राजनीति पर छाता चला जाएगा ।

किसानों का विरोध प्रदर्शन।

न सिर्फ एमएसपी, किसानों की आत्म हत्या से जुड़े उनके ऋण संकट के सवाल उठेंगे, बल्कि कृषि क्षेत्र में कॉरपोरेट के अब तक के अनुप्रवेश के कारण कृषि से निकाल दिये गये उन लगभग दो करोड़ लोगों का संकट भी प्रमुखता से सामने आएगा, जिन्हें आज तक कहीं कोई वैकल्पिक काम नहीं मिल पा रहा है । इन कृषि क़ानूनों से कृषि क्षेत्र में मंडियों के कारोबार और पूरे भारत के कोने-कोने से मोदीखानों के विशाल संजाल की पूर्ण समाप्ति की दिशा में ठोस क़ानूनी कदम उठाया गया है। यह भारत में रोज़गार के एक बड़े अनौपचारिक क्षेत्र के समूल उच्छेदन की तरह होगा। इस प्रकार कुल मिला कर, हमारे समाज में बेरोज़गारी का प्रश्न, जो आज हर नौजवान के दिलों में मचल रहा है, इसी संघर्ष के बीच से एक नया आकार लेगा ।

21 सितंबर के दिन जब राज्य सभा में धोखे से इन विधेयकों को पारित किया गया था, उसके बाद ही हमने एक लेख लिखा था — ‘कृषि क़ानून मोदी की कब्र साबित होंगे’ । उसके पहले ही देश भर में किसान सड़क पर उतरने लगे थे । उस लेख में हमने इस बात को रेखांकित किया था कि “ये कृषि क़ानून कृषि क्षेत्र में पूंजी के एकाधिकार की स्थापना के क़ानून हैं । आगे हर किसान मज़दूरी का ग़ुलाम होगा । इसके आगे भूमि हदबंदी क़ानून का अंत भी जल्द ही अवधारित है । तब उसे कृषि के आधुनिकीकरण की क्रांति कहा जाएगा । ये कृषि क़ानून किसान मात्र की स्वतंत्रता के हनन के क़ानून हैं ।”

मोदी के लिए एमएसपी का अर्थ न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं, अधिकतम विक्रय मूल्य हो चुका है – Maximum Sailing Price । एमएसपी फसल के ख़रीदार के लिए नहीं, किसानों के लिए बाध्यता स्वरूप होगा, ताकि कृषि व्यापार के बड़े घरानों को न्यूनतम मूल्य में फसल मिल सके ; उनका मुनाफ़ा स्थिर रह सके । आगे से फसल बीमा की व्यवस्था कृषि व्यापार के बड़े घरानों के लिए होगी ताकि उन्हें फसल के अपने सौदे में कोई नुक़सान न होने पाए । किसान से कॉरपोरेट के लठैत, पुलिस और जज निपट लेंगे । किसानों के प्रति मोदी सरकार का व्यवहार बिल्कुल वैसा ही है जैसा भारत की जनता के प्रति अंग्रेज़ों का था ।

Farmer Protest 3

क्रमशः गन्ना किसानों की तरह ही आगे बड़ी कंपनियों के पास किसानों के अरबों-खरबों बकाया रहेंगे । ऊपर से पुलिस और अदालत के डंडों का डर भी उन्हें सतायेगा । कृषि क्षेत्रों से और तेज़ी के साथ धन की निकासी का यह एक सबसे कारगर रास्ता होगा । किसान क्रमश: कॉरपोरेट की पुर्जियों का ग़ुलाम होगा । उसकी बकाया राशि को दबाए बैठा मालिक उसकी नज़रों से हज़ारों मील दूर, अदृश्य होगा । अदालत-पुलिस सिर्फ व्यापार की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए तत्पर होगी ।

इस विषय पर तब बीजेपी की प्रमुख प्रवक्ता बनी हुई अभिनेत्री कंगना रनौत ने कहा था कि कृषि क़ानूनों का विरोध करने वाले तमाम लोग आतंकवादी हैं । तभी यह भी पता चल गया था कि आने वाले दिनों में प्रवंचित किसानों के प्रति मोदी सरकार का क्या रवैया रहने वाला है । अब खालिस्तानी और न जाने किन-किन विशेषणों से किसानों को विभूषित करने के बीजेपी के प्रचार से उसी के सारे प्रमाण मिल रहे हैं ।  

जो लोग कंगना जैसों को बीजेपी का प्रवक्ता कहने में अतिश्योक्ति देखते हैं, उन्हें शायद यह समझना बाक़ी है कि तमाम फासिस्टों के यहाँ भोंड़ापन और उजड्डता ही नेतृत्व का सबसे बड़ा गुण होता है, जो समय और उनके प्रभुत्व के विकास की गति के साथ सामने आता है । इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो भारत का गोदी मीडिया ही है । बॉलीवुड के कई बड़बोले मोदी-भक्त और संबित पात्रा की तरह के प्रवक्तागण ये सब एब्सर्डिटी की मोदी राजनीति के स्वाभाविक प्रतिनिधि हैं । इन सबको मोदी-शाह का वरद्-हस्त मिला हुआ है । कंगना ने उसमें कामुकता के एक नए आयाम को भी जोड़ा था ।

इसके अलावा, कृषि क़ानूनों को पास करने का मोदी का तरीक़ा भी आगे के तेज राजनीतिक घटनाक्रम के बारे में बहुत कुछ कहता था । किसी भी घटना क्रम का सत्य हमेशा उसमें अपनाई जा रही पद्धतियों के ज़रिये ही कुछ शर्तों के साथ व्यक्त होता है । वे शर्तें निश्चित रूप में घटना विशेष, ख़ास परिस्थिति और अपनाई गई खास पद्धति से जुड़ी होती हैं । मोदी हिटलर के अनुगामी हैं जिसने राइखस्टाग को अचल कर दिया था, विपक्ष के सदस्यों की भागीदारी को नाना हिंसक-अहिंसक उपायों से अचल करके सारी सत्ता को अपने में केंद्रीभूत कर लिया था । मोदी के राजनीतिक अभियान की सकल दिशा भी हिटलर ही है । तभी हमने लिखा था कि संसद में मोदी के हर कदम को हिटलर से जोड़ कर अवश्य देखा जाना चाहिए ।

हर क्षण धोखे की कोई नई मिसाल क़ायम करने की कोशिश में लगे रहने वाले मोदी जैसा कोई पेशेवर झूठा ही यह दावा कर सकता है कि उसका मन गंगाजल की तरह पवित्र है, जैसा उन्होंने अभी वाराणसी में किया था । वे कहते हैं किसान भ्रमित है ; कृषि क़ानून ‘ऐतिहासिक’ है । पर हर कोई यह जानता है कि ये कानून वैसे ही ‘ऐतिहासिक’ हैं जैसे मोदी की नोटबंदी ऐतिहासिक थी । मोदी के सारे ‘ऐतिहासिक’ कामों का उद्देश्य आम लोगों और किसानों से छीन कर उनकी सारी बचत और आमदनी को इजारेदारों के सुपुर्द करने के अलावा और कुछ नहीं होता है ।

farmers Protes 2

आज जब अर्थ-व्यवस्था न सिर्फ बिल्कुल ठप है, बल्कि तेज़ी से सिकुड़ रही है, इस साल इसमें तक़रीबन चालीस प्रतिशत तक के संकुचन के सारे संकेत बिल्कुल साफ मिल रहे हैं, ऐसे समय में भी शेयर बाज़ार का ऐतिहासिक ऊँचाई पर बने रहना यही बताता है कि देश का सारा धन तेज़ी के साथ दस प्रतिशत धनी लोगों के पास संकेंद्रित होता जा रहा है और आम लोग, किसान, मज़दूर और कर्मचारी उसी अनुपात में तेज़ी के साथ ग़रीब, और गरीब होते जा रहे हैं ।

इसीलिए हमारा सिर्फ यही कहना है कि ज्यादा दिन नहीं, आगामी गणतंत्र दिवस के पहले ही सारी दुनिया यह जान जाएगी कि भारत में और कोई नहीं, सिर्फ एक मोदी ही भ्रमित हैं !

दिल्ली को घेर कर तैयार हो रहा किसानों के इस संघर्ष का लगातार फैलता हुआ क्षेत्र हमारे गणतंत्र में एक दमनकारी राज्य की पैदा की गई उस गहरी दरार की तरह है जिससे जनता की सार्वभौमिकता के अदृश्य भावी नये रूपों को कोई भी आंख वाला व्यक्ति साफ देख सकता है । यही हमारे नए महाभारत में श्रीकृष्ण का विराट रूप है । अंधे धृतराष्ट्र और उनकी अहंकारी कौरव संततियों को वह कभी नजर नहीं आएगा । किसानों की यह लड़ाई फासीवाद के ख़िलाफ़ भारत की जनता के एकजुट संघर्ष को बिल्कुल नया आयाम प्रदान कर रही है ।

इसके साथ ही यह लड़ाई चुनावी और अदालती दायरों से निकल कर सड़कों पर आ चुकी है ; आगे का संक्रमण बिंदु अब साफ नजर आने लगा है । शुरू में ही केंद्र ने अपने अनेक ख़ुफ़िया अधिकारियों को इस लड़ाई के खिलाफ उतार दिया था । आगे डर इस बात का जरूर है कि पता नहीं कब अमित शाह जैसे अहंकारियों में जनरल डायर का भाव पैदा हो जाए ! लेकिन वह किसान पिताओं के खिलाफ उनकी संतानों को उतारने का ऐसा कुकर्म होगा, जिसकी आग मोदी-शाह और भाजपा के पूरे कुनबे को ही जला कर खाक कर देगी ।

पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने केंद्र सरकार को लिखित चेतावनी दी थी कि वह इन काले क़ानूनों से पंजाब के किसानों की अस्मिता को चुनौती न दे, इसके भयंकर परिणाम होंगे । लेकिन अहंकार में डूबी केंद्र सरकार ने इसकी जरा भी सुध नहीं ली । अब तक लगभग एक लाख ट्रैक्टर इस कूच में शामिल हो चुके हैं । पंजाब के लिए तो यह लगभग एक क़ौमी संघर्ष का रूप ले रहा है । हरियाणा के किसान भी इसमें उतनी ही बड़ी तादाद में उतर पड़े हैं । राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र से बड़े-बड़े जत्थे दिल्ली कूच कर रहे हैं ।

प्रेस कांफ्रेंस करते किसान संगठन।

बिहार में तेजस्वी के नेतृत्व में राजद ने भी किसानों के पक्ष में उतरने का निर्णय लिया है । 26 नवंबर की शानदार सफल आम हड़ताल से पश्चिम बंगाल और केरल के किसानों ने भी अपनी भूमिका जाहिर कर दी है । सरकार अगर किसानों की माँग पर जल्द नहीं जागी तो आज दिल्ली का जो नजारा है, वही नजारा देश के हर राजधानी शहर और ज़िला सदर शहरों में भी शीघ्र ही देखने को मिलेगा ।

बीजेपी का आईटी सेल इसी दौरान किसानों के बीच फूट डालने के लिए नाना प्रकार के थोथे अतिक्रांतिकारी सिद्धांतों को हवा देने में लगा हुआ है । बहुत से नेक वामपंथी भी इससे प्रभावित हो कर अनर्गल सिद्धांत बघार सकते हैं । जो यह समझते हैं कि यह लड़ाई किन्हीं तथाकथित धनी किसानों की लड़ाई है, वे वास्तव में भारत में धनी और ग़रीब के भेद को जरा भी नहीं जानते हैं । भारत में कॉरपोरेट और उनके राजनीतिक, सरकारी दलालों के अलावा धनी किसान नामक चीज़ का अब कहीं कोई अस्तित्व नहीं बचा है । पंजाब के किसानों की आमदनी बिहार के किसानों से बेहतर होने का मतलब यह नहीं है कि पंजाब के किसान सामंत हैं और दूसरे किसान इन सामंतों की रैय्यत ।

2013 के आँकड़ों के अनुसार भारत के किसानों की औसत आमदनी प्रति परिवार मासिक 6423 रुपये थी । इस औसत में यह तो नामुमकिन है कि पंजाब या किसी भी राज्य के किसानों की औसत आमदनी प्रति माह लाखों-करोड़ों रुपये में हो । इसीलिए धनी-ग़रीब का वर्गीकरण भारत के वर्तमान कृषि क्षेत्र पर लागू करना स्वयं में एक आधारहीन सोच है । आज कृषि क्षेत्र में अगर किसी प्रकार का कोई वर्ग संघर्ष है तो वह सिर्फ कारपोरेट और किसानों के बीच का संघर्ष है जिसमें जाति, धर्म के नाम पर कॉरपोरेट के राजनीतिक दलाल कृषक समाज को बाँट कर अपना उल्लू सीधा किया करते हैं ।

बहरहाल, भारत में शुरू हुई किसानों की यह अभूतपूर्व लड़ाई ही किसान-मज़दूरों के नेतृत्व में भारत में आमूलचूल परिवर्तन की लड़ाई का एक आग़ाज़ बनेगी।

(अरुण माहेश्वरी लेखक और चिंतक हैं। आप आजकल कोलकाता में रहते हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of

guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles

बच्चों के यौन संरक्षण का हथियार है पॉक्सो एक्ट, अब होगी फांसी की सजा

एलिया प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पॉक्सो एक्ट के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने साक्षी बनाम यूनियन...