देहरादून जिले में जनजातीय क्षेत्र के त्यूनी कस्बे में 6 अप्रैल, 2023 की शाम को लकड़ी से बना एक चार मंजिला मकान जल गया। इस अग्निकांड में चार बच्चियों की मौत हो गई। आग इतनी भयंकर थी कि एक बच्ची के शरीर का कोई हिस्सा तक नहीं मिला, जबकि एक बच्ची के शरीर का एक छोटा सा हिस्सा ही आग से जले मलबे के ढेर में मिल पाया। अग्निकांड में एक तरफ जहां फायर ब्रिगेड और प्रशासन के साथ ही स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों की लापरवाही नजर आई, वहीं दूसरी तरफ जनजातीय क्षेत्र में लकड़ी के बने मकानों को लेकर भी एक बार फिर चर्चा शुरू हो गई है।
दरअसल उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के जनजातीय क्षेत्र जौनपुर और जौनसार में परंपरागत लकड़ी के मकानों में लगभग हर वर्ष आग लगने की घटनाएं सामने आ रही हैं। हालांकि इन घटनाओं में किसी की झुलसकर मौत हो जाने की घटनाएं काफी कम होती हैं।
त्यूनी देहरादून जिले की एक तहसील का मुख्यालय है। विकासनगर ब्लॉक का यह कस्बा देहरादून से करीब 180 किमी दूर है। 6 अप्रैल की शाम को यहां लकड़ी से बने एक परंपरागत मकान में आग लग गई। इस मकान में 5 परिवार किराये पर रहते थे। घटना के समय मकान में अलग-अलग परिवारों के दो पुरुष, एक महिला और 5 बच्चे थे। गैस सिलेंडर बदलते समय एक घर में आग लग गई। लकड़ी का मकान होने के कारण आग तेजी से फैली और पूरे मकान का चपेट में ले लिया। इस दौरान वहां मौजूद महिला, दो पुरुष और एक बच्चा तो किसी तरह झुलसी हुई हालत में बाहर निकल आये, लेकिन 3 से 10 वर्ष की चार बच्चियों को बाहर नहीं निकाला जा सका। आग में जलकर चारों की मौत हो गई।
प्रशासन की लापरवाही
आग लगने की इस घटना में कदम-कदम पर लापरवाहियां दिखीं। तहसील मुख्यालय होने के बावजूद घटना के वक्त यहां कोई जिम्मेदार अधिकारी नहीं था। पहले भी आग लगने की घटनाएं होने के कारण त्यूनी में फायर स्टेशन है। यहां फायर ब्रिगेड की एक गाड़ी और 5 कर्मचारी तैनात रहते हैं। लेकिन, इस फायर स्टेशन की कार्यप्रणाली का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि घटनास्थल से सिर्फ आधा किमी की दूरी पर होने के बावजूद फायर ब्रिगेड की गाड़ी को मौके पर पहुंचने में आधा घंटा लग गया। गाड़ी पहुंची, लेकिन फायर ब्रिगेड के कर्मचारी पाइप की नोजल ही नहीं लगा पाये। काफी मशक्कत के बाद नोजल लगाई गई और आग बुझाने का काम शुरू हुआ। लेकिन 2400 लीटर क्षमता वाले टैंक का पानी 3 मिनट में ही खत्म हो गया।

इससे साफ है कि कर्मचारियों ने लंबे वक्त से यह भी ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी कि गाड़ी की टंकी में पानी भरा है कि नहीं। त्यूनी की फायर ब्रिगेड की गाड़ी पानी भरने चली गई तो हिमाचल प्रदेश के जुब्बल और उत्तरकाशी जिले के मोरी से फायर ब्रिगेड की गाड़ियां बुलाई गईं। दोनों गाड़ियों के पहुंचने तक दिन ढल चुका था। आधी रात तक आग बुझाने का काम चलता रहा। इस दौरान दो बच्चों के झुलसे हुए शव मिले। 7 अप्रैल को एक बच्ची के शरीर का एक छोटा सा हिस्सा ही मिल पाया। एक बच्ची के शरीर का तो पता नहीं चला।
घटना के बाद सरकारी औपचारिकताओं का दौर शुरू हुआ। नायब तहसीलदार और फायर ब्रिगेड के 5 कर्मचारियों को निलंबित कर दिया गया। पुलिस हेडक्वार्टर की ओर से मामले की जांच डीआईजी (फायर) को सौंप दी गई। उन्हें तीन दिन में रिपोर्ट देने के लिए कहा गया। राज्य सरकार ने मरने वाले बच्चों के परिजनों को दो-दो लाख रुपये मुआवजा देने की घोषणा कर दी गई। जिले के एसएसपी रात को ही मौके पर पहुंच गये थे। डीएम 7 अप्रैल की दोपहर को पहुंची।
एसएसपी ने खुद रेस्क्यू अभियान की कमान संभाल रखी थी तो डीएम ने घटनास्थल को देखने के साथ ही त्यूनी के सरकारी अस्पताल में जाकर वहां भर्ती घायलों को देखा। अस्पताल में व्यवस्थाओं के नाम पर सब चौपट था। स्थानीय लोगों ने अस्पताल को लेकर कई शिकायतें की। नियमानुसार डीएम ने समस्याएं दूर करने का आश्वासन दे दिया। साथ ही त्यूनी में 100 बेड के अस्पताल का निर्माण जल्द से जल्द पूरा करने का भरोसा भी दे दिया गया। नेताओं और अफसरों ने परंपरा के अनुसार शोक जता दिया। लेकिन, चार मासूम बच्चियां अपनी मौत के पीछे कई सवाल छोड़ गई, जिनका उत्तर दिया जाना चाहिए।
त्यूनी में पहले भी कई जगह लग चुकी है आग
पहला सवाल यह कि त्यूनी में 2005 और 2011 में भी आग लगने की बड़ी घटनाएं हो चुकी हैं। इसके बावजूद फायर स्टेशन इतना लापरवाह क्यों था? 2005 में इस कस्बे में भयंकर आग लगी थी। वह आग 6 अप्रैल की तरह सिर्फ एक घर में नहीं लगी थी, पूरा बाजार जलकर खंडहर में तब्दील हो गया था। हालांकि किसी की मौत नहीं हुई थी। 2011 में एक बार फिर से आग लगी और काफी नुकसान हुआ। जनहानि 2011 में भी नहीं हुई।

इन घटनाओं के बावजूद फायर ब्रिगेड की ऐसी लापरवाही बड़े सवाल खड़े करती है। एक सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि यदि फायर ब्रिगेड के कर्मचारी प्रशिक्षित होते और उनके पास जरूरी उपकरण होते तो घर के पिछले हिस्से से चढ़कर चारों बच्चियों को बचाया जा सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। एक सवाल वन विभाग को लेकर भी उठाया जा रहा है। त्यूनी कस्बे के आसपास चीड़ का जंगल है। इस जंगल में भी अक्सर आग लगती है। लेकिन, वन विभाग के पास भी हर साल लगने वाली आग को बुझाने का कोई साधन नहीं है। यदि वन विभाग के पास भी एक फायर ब्रिगेड की गाड़ी होती तो स्थिति को कुछ हद तक संभाला जा सकता था।
लकड़ी के परंपरागत मकनों पर सवाल
इस घटना के बाद जौनसार क्षेत्र में बनाये जाने वाले लकड़ी के परंपरागत मकानों को लेकर भी सवाल उठाये जा रहे हैं। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के जनजातीय क्षेत्रों में इस तरह के मकान बनाये जाते हैं। हालांकि अब ऐसे मकान कम हैं, लेकिन पुराने मकान अब भी अच्छी-खासी संख्या में हैं। लगभग हर साल इस क्षेत्रों में लकड़ी के इन मकानों में आग लगने की घटनाएं होती हैं। कई बार तो एक साथ दर्जनों घर जल जाते हैं।
सवाल यह उठाया जा रहा है कि क्या लकड़ी के ये मकान असुरक्षित हैं, जिन्हें अक्सर भूकंपरोधी और परंपरागत घर कहकर इनकी प्रशंसा की जाती है और इन्हें सुरक्षित घर बताया जाता है। इस संबंध में जनचौक ने जौनसार क्षेत्र के निवासी, जाने-माने पर्वतारोही और साहित्यकार सुभाष तरान से से बात की। उनका कहना है कि आग लगने का कारण लकड़ी के परंपरागत घर नहीं, बल्कि उन घरों को बनाने और इस्तेमाल करने का तरीका है।
सुभाष तरान कहते हैं कि जनजातीय क्षेत्र जौनसार में बहुमंजिला मकान बनाने का आमतौर पर कॉन्सेप्ट नहीं रहा है। दो कमरे और एक अलग से रसोई आम घरों में होती है। जहां कोई बहुमंजिला परंपरागत घर होता है, उसकी निर्माण शैली अलग होती है। ऐसे घर चार मंजिला होते हैं। पहली मंजिल पत्थर की होती है। वह गाय-भैंसों के लिए होती है। दूसरी और तीसरी मंजिल पर एक परत पत्थर और एक परत लकड़ी होती है। दूसरी मंजिल भेड़-बकरियों के लिए होती है। तीसरी मंजिल पर रसोई और स्टोर होता है। चौथी मंजिल पूरी तरह लकड़ी की होती है। यह रहने के लिए इस्तेमाल की जाती है। तीसरी मंजिल में जहां रसोई होती है, वहां भी पत्थर और मिट्टी ज्यादा इस्तेमाल की जाती है। इसके अलावा जनजातीय क्षेत्र में घरों में रहने के कुछ नियम हैं, जो मुख्य रूप से लकड़ी की बहुतायत वाले घरों को आग से बचने के लिए हैं।

सुभाष तरान कहते हैं कि त्यूनी में जिस घर में आग लगी, उसका व्यावसायिक उपयोग किया जा रहा था। यह घर किसी व्यवसायी का था, जो बाद में उसने एक स्थानीय व्यक्ति का बेच दिया। नये मालिक ने मकान किराये पर दे दिया था। आग चौथी मंजिल में लगी। जाहिर है परंपरागत घरों में चौथी मंजिल पर रसोई नहीं होती। इसके अलावा ऐसा लगता है कि मकान किराये पर देने के बाद इसके रखरखाव का भी ध्यान नहीं रखा गया था। परंपरागत जौनसारी घरों में यदि आग लग भी जाए तो सुरक्षित निकलने के कई रास्ते होते हैं, लेकिन इस मकान में बाहर निकलने का सिर्फ एक ही रास्ता था। वे फायर ब्रिगेड की लापरवाही पर भी सवाल उठाते हैं और कहते हैं कि मकान का पिछला हिस्सा जो नदी की तरफ है, वहां से चढ़कर आग में फंसे बच्चों तक पहुंचा जा सकता था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। संभवतः जरूरी उपकरण न होने के कारण फायर ब्रिगेड के कर्मचारी ऐसा साहस नहीं कर पाये।
आग लगने के भयावह आंकड़े
इस घटना के बाद हमने उत्तराखंड में आग लगने से होने वाले जन-धन के नुकसान का आकलन करने के लिए उत्तराखंड फायर एंड इमरजेंसी सर्विसेज की वेबसाइट टटोली तो पता चला कि फायर स्टेशनों जैसी लापरवाही फायर सिर्विसेज की वेबसाइट पर भी मौजूद है। इस वेबसाइट पर 2020 तक के आंकड़े दर्ज हैं। आंकड़े देखकर लगता है कि 2020 के भी शुरुआती महीनों के आंकड़े ही वेबसाइट पर अपलोड किये गये हैं। इसके बाद के ढाई वर्ष के आंकड़े वेबसाइट पर नहीं हैं।
2020 तक के आंकड़ों पर नजर डालें तो राज्य में आग लगने की स्थिति बेहद भयावह नजर आती है। ये आंकड़े बताते हैं कि हर वर्ष राज्य में आग के कारण सैकड़ों लोग और पशुओं की मौत हो रही है।
वर्ष 2010 में राज्य में 157 लोगों की आग लगने से मौत हो गई थी। 2011 में यह संख्या 179 थी, 2012 में 254, 2013 में 249, 2014 में 222 और 2015 में 279 लोगों की आग लगने के कारण मौत हुई। इसी तरह 2016 में 277, 2017 में 218, 2018 में 327 और 2019 में 200 लोगों की जलकर मौत हो गई। वेबसाइट पर 2020 में मरने वालों की संख्या 40 दर्ज है, जाहिर है यह इस वर्ष के शुरुआती महीनों का आंकड़ा है। इसके बाद से वेबसाइट अपडेट नहीं की गई है।
(देहरादून से त्रिलोचन भट्ट की रिपोर्ट)