Sunday, April 28, 2024

ग्राउंड रिपोर्ट: खेलकूद की जगह घर के कामों में उलझा दी गईं मुजफ्फरपुर के हुस्सेपुर की लड़कियां

मुजफ्फरपुर। हाल ही में संपन्न हुए एशियाई खेलों में भारत ने पहली बार मेडल का शतक लगाते हुए नया कीर्तिमान गढ़ दिया। इस एतिहासिक सफलता में पुरुष खिलाड़ियों के साथ साथ भारत की महिला खिलाड़ियों का भी बराबर का योगदान रहा है। गर्व की बात यह है कि घुड़सवारी जैसी प्रतिस्पर्धा में भी महिला खिलाड़ियों ने स्वर्ण पदक जीतकर यह साबित कर दिया कि समाज को अब उसे देखने का नजरिया बदल लेना चाहिए।

लेकिन एक कड़वी सच्चाई यह है कि अभी भी हमारे समाज का एक वर्ग महिलाओं और किशोरियों के प्रति संकीर्ण मानसिकता से ग्रसित है। वह महिलाओं और किशोरियों को चारदीवारी के पीछे ज़ंजीरों में कैद देखना चाहता है। वह उनके सर्वांगीण विकास को कुचल देना चाहता है। उसे महिलाओं का सशक्त होना और आत्मनिर्भर बनना संस्कृति पर कुठाराघात नज़र आने लगता है।

भले ही भारत विकास के नित्य नए प्रतिमान गढ़ रहा है। आए दिन देश में नई-नई चीजों का आविष्कार एवं नई-नई चीजों की शुरुआत हो रही है। महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए कन्या उत्थान योजना से लेकर बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के नारे बुलंद हो रहे हैं, लेकिन इससे इतर लैंगिक पूर्वाग्रह एवं पुरुष मानसिकता लड़कियों के प्रति यथावत है।

भले हम चांद और मंगल पर आशियाने की तलाश कर रहे हों मगर स्त्रियों के प्रति रवैये और विचार में बहुत कुछ बदलाव नहीं दिखता है। लड़कियों से उनका बचपन इस तरह से छीन लिया जाता है, जैसे लड़की होकर उसने कोई गुनाह कर दिया हो।

जब लड़कियों के खेलने-कूदने की उम्र होती है, तब उन्हें ‘ससुराल में गृहस्थ जीवन संभालने’ के नाम पर रसोई से लेकर खेत-खलिहान तक के काम में लगा दिया जाता है। वहीं, लड़कों को कुछ सिखाने की जरूरत नहीं समझते, उसे खेलने-कूदने की पूरी आजादी दी जाती है। जो खेलना है वह खेलो, जो मन में आए वह करो। जैसे भेदभाव के साथ एक लड़की से उसका बचपन छीन लिया जाता है।

हमारे देश के शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में कमोबेश यही मानसिकता व्याप्त है। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में शहरों की अपेक्षा अधिक है। बिहार के मुजफ्फरपुर जिले से 65 किलोमीटर दूर पारू एवं साहेबगंज प्रखंड के दर्जनों गरीब, किसान, मजदूर वर्ग की लड़कियां छोटी उम्र से ही घर के सभी कामकाज करने लगती हैं। इनके कंधे पर रसोईघर, मवेशियों का दाना-साना, जलावन की व्यवस्था, दरवाजे की साफ-सफाई, दूसरों के खेतों में या घरों में कच्ची उम्र में ही मजदूरी आदि की ज़िम्मेदारी रहती है।

इस संबंध में हुस्सेपुर की 10 वर्षीय चंदा (बदला हुआ नाम) बताती है कि “मैं बहन में अकेली और मेरे दो बड़े भाई हैं। फिर भी मां उन दोनों से कोई काम नहीं करवाती है। घर का सारा काम जैसे झाड़ू लगाना, आटा गूथना, सब्जी काटना आदि काम मुझसे ही करवाती है। जब मैं बोलती हूं कि भाइयों से भी काम करवाओ, तो मम्मी बोलती है कि वह तो लड़का है, उसे खेलने दे। मुझे भी खेलने का बहुत मन करता है पर ज्यादा खेल नहीं पाती।”

उसी गांव की 11 वर्षीय रोशनी बताती है कि “में छठी क्लास में पढ़ती हूं। वह घर का सारा काम करके, खाना बनाकर स्कूल जाती हूं। फिर स्कूल से घर आकर सारा काम करती हूं और फिर रात का खाना बनाने की तैयारी करने लगती हूं। हमें खेलने का भी टाइम नहीं मिलता है। स्कूल में थोड़ा लंच टाइम में खेलती हूं। लेकिन घर पर ज़रा भी खेलने नहीं दिया जाता है।”

रोशनी की तरह ही गांव की कई किशोरियों का कहना है कि लड़कों को खेलते देखकर हमारा भी मन करता है कि हम भी उनके साथ खेलें। लेकिन सामाजिक बंदिशों की वजह से आज भी गांव में लड़के-लड़कियां छोटी उम्र में भी एक साथ नहीं खेल सकती हैं। माता-पिता का कहना है कि लड़की खेलेगी तो समाज क्या कहेगा? हमसे बस काम कराया जाता है।

अफ़सोस की बात यह है कि इस संकीर्ण सोच का समर्थन स्वयं गांव की वृद्ध महिलाएं करती हैं। वह किशोरियों का खेलने में समर्थन की जगह उन्हें बचपन से ही घर के कामकाज करवाने को सही मानती हैं। उनकी नज़र में बचपन से ही लड़की के घर का कामकाज सीखने से शादी के बाद उसे ससुराल वालों के ताने और उलाहना सुनने को नहीं मिलेगा। उनकी सोच है कि लड़की काम नहीं करेगी, तो ससुराल में कैसे बसेगी?

हालांकि गांव के कुछ शिक्षित लोगों का मानना है कि लड़कियों को भी उनका बचपन खुलकर जीने देना चाहिए। माता-पिता को अपनी लाडली का बचपन नहीं छीनना चाहिए। हाईस्कूल धरफरी के विज्ञान शिक्षक संजय कुमार का कहना है कि “खेलकूद से बच्चों का मानसिक और शारीरिक विकास होता है। वहीं उनमें टीम भावना, नेतृत्व क्षमता एवं निर्णय करने की समझ का विकास होता है। बचपन के खेलकूद से मांसपेशियों एवं हड्डियों का संतुलित विकास होता है। ऐसे में माता-पिता को अपनी बच्चियों को भी जी भरकर हंसने और खेलने देना चाहिए।”

संजय कुमार का कहना है कि “खेलकूद पाठ्यक्रम एवं शैक्षिक गतिविधियों का एक मजबूत हिस्सा है। यही कारण है कि बिहार सरकार ने स्कूलों में बैगलेस डे की शुरुआत की है। खेल शिक्षकों की बहाली भी हुई है। बहुत सारी लड़कियां कबड्डी, फुटबाॅल, हाॅकी, तीरंदाजी, पहलवानी आदि के जरिए राष्ट्र का नाम भी ऊंचा कर रही हैं। खेल में भी बहुत सारी संभावनाएं हैं जिसे कैरियर के रूप में देखना चाहिए। यह बात स्वीकार करने योग्य है कि घर से ज्यादा बच्चियों को खेलकूद का अवसर स्कूल में मिलता है। जब घर के लोग ही लैंगिक भेदभाव करेंगे तो बाहर भी भेदभाव होगा। अभिभावकों को बेटा-बेटी में अंतर नहीं करना चाहिए।”

दरअसल, ग्रामीण इलाकों की किशोरियों की बेहतरी के लिए कई सरकारी योजनाएं चलाई जा रही हैं। आमतौर इन योजनाओं की जानकारी नहीं होने की वजह से गरीब, अशिक्षित और पिछड़े परिवार के लोग खेल के महत्व व कैरियर से अनभिज्ञ हैं। जिससे वह अपनी बच्चियों को खेलकूद से दूर रखते हैं। इन ग्रामीण क्षेत्रों में लड़की को पराये घर की अमानत समझा जाता है। जो किशोरियों के साथ सरासर अन्याय है। ऐसी मानसिकता का त्याग किए बिना स्वस्थ समाज की कल्पना करना बेमानी है।

(बिहार के मुजफ्फरपुर से सिमरन सहनी की रिपोर्ट।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles