अगर कुछ नहीं हुआ तो कॉलेजियम की बैठक कैसे हुई और उसकी डिटेल रिपोर्टर को कैसे मिली?

Estimated read time 4 min read

आने वाले समय में पता चलेगा कि न्यायपालिका यशवंत वर्मा नोट कांड को दबा रही है अथवा कोई ठोस कार्रवाई भी करेगी। जांच के परिणाम सहित भविष्य के घटनाक्रम, न्यायिक जवाबदेही और पारदर्शिता के न्यायिक पैमाने को निर्धारित करेंगे।अब तक के घटनाक्रम से कई अनुत्तरित सवाल हैं जो मामले को और रहस्यमय बना रहे हैं और न्यायिक व्यवस्था की शुचिता पर गंभीर सवाल खड़े कर रहे हैं।

14 मार्च, 2025 की रात, होली के उत्सव के बीच, जस्टिस यशवंत वर्मा के लुटियंस दिल्ली स्थित सरकारी आवास में आग लगी। उस समय जस्टिस वर्मा दिल्ली में नहीं थे, और उनके परिवार ने फायर ब्रिगेड को सूचित किया। आग बुझाने के बाद, फायर ब्रिगेड कर्मियों ने कथित तौर पर एक कमरे में भारी मात्रा में नकदी देखी। यह खबर तेजी से फैली, और 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने एक आपात बैठक बुलाई। बैठक के बाद, 21 मार्च को यह घोषणा हुई कि जस्टिस वर्मा को इलाहाबाद हाई कोर्ट में स्थानांतरित करने की सिफारिश की गई है।

पहला और सबसे मौलिक सवाल यह है कि अगर यह केवल एक साधारण आग की घटना थी, तो सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम को आपात बैठक बुलाने की क्या जरूरत थी…

14 मार्च, 2025 की रात को दिल्ली हाई कोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के लुटियंस दिल्ली में स्थित सरकारी आवास में आग लगने की घटना ने भारतीय न्यायपालिका को एक अभूतपूर्व संकट के सामने ला खड़ा किया। यह घटना, जो शुरू में होली के उत्सव के बीच एक सामान्य अग्निकांड लग रही थी, उस समय एक बड़े विवाद का रूप ले लिया जब फायर ब्रिगेड कर्मियों ने आग बुझाने के दौरान कथित तौर पर भारी मात्रा में नकदी की खोज की। उस समय जस्टिस वर्मा दिल्ली में मौजूद नहीं थे, और उनके परिवार ने फायर ब्रिगेड को बुलाया था। आग बुझाने के बाद जो खबरें सामने आईं, उन्होंने न केवल न्यायिक समुदाय को हिलाकर रख दिया, बल्कि जनता और मीडिया में भी सनसनी फैला दी।

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने 20 मार्च 2025 को एक आपात बैठक बुलाई और 21 मार्च को यह घोषणा की कि जस्टिस वर्मा को उनके मूल कोर्ट, इलाहाबाद हाई कोर्ट में स्थानांतरित करने की सिफारिश की गई है। यह तेजी से बदलता घटनाक्रम कई सवालों को जन्म दे रहा है, जो भारतीय न्यायपालिका की पारदर्शिता, जवाबदेही और विश्वसनीयता पर गहरे संदेह पैदा करते हैं।

सबसे पहला सवाल जो इस मामले में उठता है, वह यह है कि अगर कुछ भी गंभीर नहीं हुआ था, तो सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की बैठक कैसे और क्यों बुलाई गई, और उसकी विस्तृत जानकारी रिपोर्टरों तक कैसे पहुंची। कॉलेजियम की बैठकें सामान्यतः जजों की नियुक्ति, स्थानांतरण या अन्य प्रशासनिक मुद्दों के लिए पहले से निर्धारित समय पर होती हैं, लेकिन इस मामले में घटना के ठीक छह दिन बाद 20 मार्च को बैठक बुलाई गई। यह असामान्य कदम अपने आप में संकेत देता है कि कुछ ऐसा था जिसे कॉलेजियम नजरअंदाज नहीं कर सका। अगर यह केवल एक छोटी आग की घटना थी, जिसके बाद कोई संदिग्ध चीज नहीं मिली, तो क्या इतनी जल्दबाजी में बैठक बुलाने की जरूरत थी? यह सवाल इसलिए और गंभीर हो जाता है क्योंकि कॉलेजियम की बैठक का आयोजन और उसका परिणाम- जस्टिस वर्मा का स्थानांतरण -इतनी तेजी से हुआ कि यह संदेह पैदा करता है कि क्या यह पहले से नियोजित था या किसी गंभीर जानकारी के आधार पर लिया गया फैसला था।

फिर यह सवाल है कि इस बैठक की विस्तृत जानकारी रिपोर्टरों तक कैसे पहुंची। टाइम्स ऑफ इंडिया, ने शुरुआती रिपोर्ट्स में दावा किया कि फायर ब्रिगेड ने नकदी देखी और इसकी सूचना तुगलक रोड थाने को दी। कुछ सूत्रों ने यह भी कहा कि नकदी की मात्रा 15 करोड़ से 50 करोड़ रुपये तक हो सकती है, हालांकि इसकी कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई। यह संवेदनशील जानकारी इतनी जल्दी और व्यापक रूप से कैसे फैल गई?

एक संभावना यह है कि फायर ब्रिगेड कर्मियों या मौके पर मौजूद पुलिस अधिकारियों ने अपने मोबाइल फोन से तस्वीरें या वीडियो रिकॉर्ड किए होंगे, जो किसी तरह मीडिया तक पहुंच गए। दूसरी संभावना यह है कि दिल्ली हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के किसी आंतरिक स्रोत ने यह जानकारी लीक की हो, शायद इसलिए कि वे इस मामले को दबाने की कोशिश से असहमत थे। तीसरी संभावना यह भी हो सकती है कि कुछ प्रभावशाली लोगों ने इसे अपने हित में बड़ा मुद्दा बनाने के लिए जानबूझकर प्रसारित किया।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने 21 मार्च के प्रेस नोट में कहा कि “घटना के बारे में गलत सूचना और अफवाहें फैलाई जा रही हैं,” लेकिन अगर यह सच था कि कुछ नहीं हुआ, तो कॉलेजियम की बैठक का आयोजन और उसकी डिटेल्स का लीक होना एक गंभीर गोपनीयता उल्लंघन को दर्शाता है। यह सवाल उठता है कि क्या यह एक सुनियोजित था जिसने इस मामले को जनता के सामने ला दिया।

एक सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने बयान में गोलमोल तरीके से कहा कि अफवाह न फैलाएं, फिर वह किस बात की जांच करा रहा है। 21 मार्च को सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री ने एक प्रेस नोट जारी किया, जिसमें कहा गया कि “जस्टिस यशवंत वर्मा के आवास पर हुई घटना के बारे में गलत सूचना और अफवाहें फैलाई जा रही हैं। उनका स्थानांतरण इन-हाउस जांच प्रक्रिया से स्वतंत्र है।” यह बयान अस्पष्ट और भ्रामक है, क्योंकि इसमें यह स्पष्ट नहीं किया गया कि अफवाहें क्या थीं और जांच का मकसद क्या था। अगर सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि यह सब अफवाह थी, तो जांच की जरूरत क्यों पड़ी?

दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीके उपाध्याय ने घटना की जानकारी मिलने के तुरंत बाद एक इन-हाउस जांच शुरू की और अपनी रिपोर्ट मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना को सौंपी। यह जांच 1999 की इन-हाउस प्रक्रिया के तहत चल रही है, जिसमें किसी जज पर कदाचार के आरोपों की प्रारंभिक जांच मुख्य न्यायाधीश द्वारा की जाती है। अगर यह केवल एक छोटी घटना थी, जिसके बाद कोई संदिग्ध चीज नहीं मिली, तो इस औपचारिक जांच का आधार क्या था?

सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि “अफवाह न फैलाएं” और साथ ही जांच की बात करना अपने आप में एक विरोधाभास है। यह गोलमोल रवैया जनता में भ्रम पैदा करता है और यह सवाल उठाता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट इस मामले को दबाने की कोशिश कर रहा है। यह स्थिति कोर्ट की पारदर्शिता और जवाबदेही पर सवाल खड़ा करती है, क्योंकि अगर यह सच में एक गंभीर मामला था, तो जनता को स्पष्ट जानकारी देने की जिम्मेदारी कोर्ट की थी।

तीसरा सवाल जो इस मामले में उठता है, वह यह है कि कॉलेजियम की बैठक में यह कैसे कहा गया कि जस्टिस वर्मा का ट्रांसफर सजा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने प्रेस नोट में कहा कि जस्टिस वर्मा का स्थानांतरण “इन-हाउस जांच प्रक्रिया से स्वतंत्र” है और यह एक प्रशासनिक निर्णय है। इसका मतलब क्या है कि इस आदेश को अब तक अपलोड नहीं किया गया है। इलाहाबाद हाई कोर्ट बार एसोसिएशन ने इस स्थानांतरण का विरोध करते हुए इसे “कचरे के डिब्बे” की संज्ञा दी, जो यह दर्शाता है कि इसे सजा के रूप में देखा जा रहा है।

चौथा सवाल जो इस मामले में सामने आता है, वह यह है कि उस दिन की खबर में लिखा गया था कि फायर ब्रिगेड ने कहा कि नोट मिले और तुगलक रोड थाने में तस्करा डाला गया, तो वह तस्करा कहां गया। 14 मार्च, 2025 की शुरुआती खबरों में दावा किया गया कि फायर ब्रिगेड ने जस्टिस वर्मा के आवास में नकदी देखी और इसकी सूचना तुगलक रोड थाने को दी। न्यूज़18 और टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे मीडिया संस्थानों ने लिखा कि थाने में इसकी प्रविष्टि डाली गई थी। लेकिन इसके बाद यह जानकारी गायब हो गई। अगर तुगलक रोड थाने में प्रविष्टि हुई थी, तो वह अब कहां है?

यह संभव है कि वरिष्ठ अधिकारियों या न्यायिक हस्तक्षेप के दबाव में इसे हटा दिया गया हो। दूसरी संभावना यह है कि यह जानकारी शुरू में गलत थी और बाद में इसे सुधार लिया गया। तीसरी संभावना यह भी हो सकती है कि इसे गोपनीय रखने के लिए सार्वजनिक रिकॉर्ड से हटा दिया गया हो।

दिल्ली फायर सर्विस के प्रमुख अतुल गर्ग ने बाद में कहा कि कोई नकदी नहीं मिली, जो प्रारंभिक दावों से पूरी तरह उलट था। यह सवाल उठता है कि क्या यह सच था, या दबाव में उनका बयान बदला गया। यह अस्पष्टता मामले को और जटिल बनाती है। तस्करा का गायब होना और फायर ब्रिगेड का बदला बयान संदेह पैदा करता है। अगर नकदी वास्तव में थी, तो इसे छिपाने की कोशिश हुई हो सकती है। अगर नहीं थी, तो प्रारंभिक रिपोर्टिंग में इतनी बड़ी गलती कैसे हुई? इस तरह की एक महत्वपूर्ण प्रविष्टि का गायब होना और उसका कोई स्पष्टीकरण न देना यह संकेत देता है कि इस मामले में कुछ छिपाया जा रहा है।

पांचवां और अंतिम सवाल यह है कि अब क्यों पलटी मार दी गई और जस्टिस यशवंत वर्मा ने चुप्पी क्यों साध रखी है। शुरू में नकदी मिलने की खबरें जोर-शोर से फैलीं, लेकिन बाद में फायर ब्रिगेड और सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया। यह पलटी क्यों मारी गई?

यह संभव है कि सुप्रीम कोर्ट और अन्य अधिकारियों ने इसे दबाने की कोशिश की हो ताकि न्यायपालिका की छवि पर ज्यादा आंच न आए। यह सवाल उठता है कि क्या यह एक सुनियोजित कदम था, या फिर प्रारंभिक जल्दबाजी में फैलाई गई खबरों को सुधारने की कोशिश थी।

जस्टिस यशवंत वर्मा ने इस पूरे मामले पर कोई बयान नहीं दिया। 21 मार्च को उन्होंने कोर्ट से छुट्टी ली और पूरी तरह चुप्पी साध रखी। यह सवाल उठता है कि वे चुप क्यों हैं। उनकी चुप्पी जनता में गलत संदेश दे सकती है और यह सवाल उठा सकती है कि क्या वे खुद को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। यह भी संभव है कि वे इस मामले को लेकर इतने दबाव में हों कि सार्वजनिक रूप से बोलने से बच रहे हों। लेकिन एक वरिष्ठ जज की चुप्पी इस मामले को और रहस्यमयी बनाती है और संदेह को बढ़ाती है।

दरअसल जस्टिस यशवंत वर्मा से जुड़ा यह विवाद कई अनुत्तरित सवालों के साथ अधूरा है। सुप्रीम कोर्ट का गोलमोल बयान और जांच का चलना एक दोहरे चरित्र को उजागर करता है, जहां कोर्ट एक तरफ अफवाहों को खारिज करना चाहता है, लेकिन दूसरी तरफ कार्रवाई से पीछे नहीं हट रहा। 

यह मामला केवल जस्टिस यशवंत वर्मा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उस पूरी प्रणाली पर सवाल उठाता है जो भारतीय न्याय को संचालित करती है। जब तक सच्चाई सामने नहीं आती, यह विवाद जनता के मन में संदेह और सवालों का एक अंतहीन सिलसिला छोड़ जाएगा।

गौरतलब है कि धनंजय महापात्रा, जो टाइम्स ऑफ इंडिया के एक वरिष्ठ पत्रकार हैं और सुप्रीम कोर्ट की रिपोर्टिंग करते हैं, ने दिल्ली हाई कोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के सरकारी आवास से भारी मात्रा में नकदी बरामद होने की खबर को उजागर किया था। 

यह खबर मार्च, 2025 में सामने आई, जब जस्टिस वर्मा के बंगले में आग लगने के बाद पुलिस और दमकल कर्मियों ने वहां नोटों का जखीरा पाया। इस घटना की जानकारी चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया तक पहुंची, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने जस्टिस वर्मा का तबादला इलाहाबाद हाई कोर्ट के लिए सिफारिश की।हालांकि, इस रिपोर्ट की पूरी सत्यता को लेकर अभी तक कोई आधिकारिक पुष्टि या खंडन नहीं हुआ है। इसलिए, धनंजय महापात्रा की रिपोर्ट के आधार पर यह कहना कि जज के यहां नोटों का जखीरा था, सही प्रतीत होता है।

धनंजय महापात्रा ने जो रिपोर्ट प्रकाशित की, वह एक पत्रकार के रूप में उनके स्रोतों और जानकारी पर आधारित थी। उनकी खबर में दिल्ली हाई कोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के सरकारी आवास से नकदी बरामद होने का दावा किया गया, जिसके बाद यह मामला चर्चा में आया। 

यह रिपोर्ट टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे प्रतिष्ठित समाचार माध्यम में छपी थी, और इसके बाद अन्य मीडिया हाउसेज ने भी इसकी चर्चा की। क्या इसे “अफवाह” कहा जा सकता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि रिपोर्ट की सत्यता को कैसे परखा जाता है। अभी तक न तो सुप्रीम कोर्ट और न ही किसी जांच एजेंसी ने इस मामले में कोई आधिकारिक बयान जारी किया है जो महापात्रा की रिपोर्ट को पूरी तरह खारिज करता हो।

सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने अभी तक जस्टिस यशवंत वर्मा के मामले में धनंजय महापात्रा की रिपोर्ट या उससे जुड़े दावों का स्पष्ट रूप से खंडन नहीं किया है। कॉलेजियम की ओर से मार्च, 2025 तक कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं हुआ है जो यह कहे कि नकदी बरामद होने की खबर पूरी तरह गलत है या कॉलेजियम की बैठक में कथित “कड़ी कार्रवाई” के सुझावों की बात झूठी है।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author