चंदौली। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में स्कूल जाने का इससे ज़्यादा ख़तरनाक रास्ता शायद ही कहीं हो। चंदौली जिले के नौगढ़ बांध (औरवाटांड) के पूर्वी छोर पर बसे सेमर साधोपुर, शाहरपुर जमसोत, होरिला, मंगरहीं, सुखदेवपुर और हथिनी गांव के छात्र इसी रास्ते से होकर आते-जाते हैं।
फिसलन भरे इकलौते रास्ते से औरवाटांड और नौगढ़ तक पहुंचना मौत को चुनौती देने जैसा है। यह रास्ता नौगढ़ डैम से गुजरता है, जिसके दोनों छोर पर मौत नाचती है।
नौगढ़ डैम के दोनों ओर का इलाका पहाड़ियों और जंगलों से घिरा है। बारिश के दिनों में इस रास्ते से गुजरना आसान नहीं होता। स्कूलों में पढ़ने वाले तमाम बच्चे कई मील पैदल चलकर औरवाटांड पहुंचते हैं। ख़तरनाक पहाड़ी रास्तों और जंगलों के बीच से होकर गुजरना आसान नहीं है।
नौगढ़ डैम का रास्ता इतना खतरनाक है कि थोड़ी भी चूक हुई तो आप बांध में गिर सकते हैं। इकलौते रास्ते में बने बड़े-बड़े गड्ढे अक्सर लोगों को अस्पताल पहुंचा देते हैं और कई मर्तबा जान भी ले लेते हैं। सबसे ज्यादा मुश्किलें सेमर साधोपुर के लोगों को उठानी पड़ती है, जहां करीब 1700 लोग बुनियादी सुविधाओं से महरूम हैं। इनमें ज्यादातर आदिवासी समुदाय के लोग हैं और वो अपनी आवाज सरकार तक नहीं पहुंचा पाते हैं।
सेमर साधोपुर के प्रधान कृष्ण कुमार जायसवाल योगी सरकार और नौकरशाही की बेरुखी से काफी आहत नजर आते हैं। वो कहते हैं, “गनीमत है कि सड़क है। इकलौती सड़क पर बड़े-बड़े गड्ढे हैं। हमारे गांव में सिर्फ प्राइमरी स्कूल है। आगे की पढ़ाई के लिए स्कूली बच्चों को औरवाटांड अथवा नौगढ़ जाना पड़ता है।
औरवाटांड से नौगढ़ की दूरी करीब 12 किमी है और साइकिल अथवा पैदल वहां तक पहुंच पाना आसान नहीं होता है। हम चाहते हैं कि सरकार तत्काल इकलौते और फिसलन भरी जानलेवा सड़क को बनवाए, ताकि हमारी दुश्वारियां थोड़ी कम हो जाएं। वैसे भी जंगलों और पहाड़ों को पार कर नौगढ़ ब्लाक मुख्यालय तक पहुंचना आसान नहीं है। कई बार तो ग्रामीणों को कर्मनाशा नदी पार करके रास्ता तय करना पड़ता है।”
ज़िंदगी की हिस्सा हैं दुश्वारियां
नौगढ़ डैम से होकर औरवाटांड आने वाले स्कूली बच्चों के अलावा पर्यटक और एक से दूसरी ओर जाने वाले मज़दूर भी इस रास्ते का इस्तेमाल करते हैं। इस सफ़र के दौरान जंगलों से भी गुजरना पड़ता है। पैदल अथवा साइकिल से स्कूली बच्चे थका देने वाले सफ़र को ख़त्म करके आख़िरकार अपने स्कूल पहुंचते हैं। स्कूल बंद होने पर एक बार फिर शुरू होता है मुश्किलों भरा वापसी का सफर।
औरवाटांड गांव में बना है नौगढ़ डैम, जिसे आजादी के तत्काल बाद बनारस स्थित सेंट्रल जेल के कैदियों की मदद से निर्माण कराया था। इस बांध के दक्षिणी छोर पर पहाड़ियां हैं, जो पहले गिद्धों की सबसे बड़ी कालोनी हुआ करती थी। इन पहाड़ियों में रहने वाले गिद्ध अब लापता हो गए हैं। गिद्दों को उन पहाड़ियों में दोबारा बसाने के लिए आज तक कोई परियोजना शुरू नहीं की गई।
औरवाटांड में एक सरकारी प्राइमरी स्कूल है और दूसरा श्रीश्री ज्ञान मंदिर। ज्ञान मंदिर में छठीं कक्षा से आठवीं तक की पढ़ाई होती है। पढ़ाई का स्तर शानदार होने की वजह से इलाके के ज्यादातर बच्चे यहीं दाखिला लेना चाहते हैं। सेमर साधोपुर, शाहरपुर जमसोत, होरिला, मंगरहीं, सुखदेवपुर और हथिनी गांव के स्टूडेंट्स नौगढ़ डैम के खतरनाक रास्ते को पार करके औरवाटांड स्थित श्रीश्री ज्ञान मंदिर तक पहुंचते हैं।
जंगल, पहाड़ और हरे-भरे खेतों से घिरे श्रीश्री ज्ञान मंदिर में हमारी मुलाकात बच्चों से हुई। नौगढ़ प्रखंड में इससे खूबसूरत जगह शायद ही किसी ने देखी होगी। बच्चों की साफ़-सुथरी लिखावट से उनके शिक्षक बहुत ख़ुश रहते हैं।
स्कूल के प्रबंधन से जुड़े राजकुमार सिंह कहते हैं, “श्रीश्री ज्ञान मंदिर में कंप्यूटर की व्यवस्था है, लेकिन इंटरनेट नहीं होने की वजह से दिक्कतें बहुत ज्यादा हैं। यहां प्रार्थना, आसन, प्राणायाम और ध्यान के बाद पढ़ाई शुरू होती है। बच्चों को जब मीड डे मील बांटा जाता है तो वो पहले भोजन मंत्र पढ़ते हैं और बाद में खाना खाते हैं।”
बच्चों का भविष्य बिगाड़ रही गरीबी
श्रीश्री ज्ञान मंदिर के कोआर्डिनेटर जगदीश त्रिपाठी बनारस में रहते हैं और वो अक्सर औरवाटांड में स्कूल की व्यवस्था देखते हैं। कुछ साल कुछ साल पहले तक जगदीश त्रिपाठी चंदौली जिले में काशी ग्रामीण बैंक के प्रबंधक हुआ करते थे। वह बताते हैं, “ज्ञान मंदिर में करीब 51 बच्चों ने दाखिला लिया है, जो छठीं से आठवीं में पढ़ते हैं।
आदिवासी बहुल इस इलाके में भीषण गरीबी है। सोनभद्र और मिर्जापुर में जब टमाटर की फसल लहलहाने लगती है तो वहां के किसान अपने ट्रैक्टर लेकर औरवाटांड आते हैं और भोंपू बजाने लगते हैं। भोंपू की आवाज सुनते ही स्कूलों में भगदड़ मच जाती है। स्कूली बच्चे भागने लगते हैं।
लाख रोकने की कोशिश के बावजूद वो स्कूल छोड़कर टमाटर की तुड़ाई करने चले जाते हैं। तब कई दिनों तक स्कूल में गिने-चुने बच्चे ही पढ़ने आते हैं। फाइन लगाने पर भी स्कूली बच्चों के अभिभावक नौनिहालों को टमाटर तोड़ने के लिए भेजते हैं। गरीबी की वजह से हम लोग भी चुप हो जाते हैं।”
“टमाटर की खेती करने वाले किसान इस इलाके से बाल श्रमिकों को इसलिए लेकर जाते हैं, क्योंकि उन्हें पूरे दिन की मजूरी सिर्फ 50 रुपये ही देनी पड़ती है। पिछले साल औरवाटांड चौकी के दरोगा ने बाल श्रमिकों को ट्रैक्टर से लेकर जाने वाले कई ठेकेदारों को पकड़ा था और उनके खिलाफ कड़ा एक्शन लिया था।
बाद में उनका तबादला हो गया और फिर स्थिति जस की तस हो गई। कुछ ऐसी ही स्थिति धान रोपाई, गेहूं की बुआई और इन फसलों की कटाई की बनती है। उस समय भी स्कूलों में गिने-चुने बच्चे ही आते हैं। हम अभिभावकों की बैठक बुलाते हैं और शिक्षकों घर-घर भेजते हैं। उनके मां-पिता को समझाते हैं। फिर भी गरीबी स्कूली बच्चों का कदम रोक देती है और उनका रास्ता खेतों की ओर मुड़ जाता है।”
जगदीश त्रिपाठी कहते हैं, “औरवाटांड में बच्चों को स्कूल तक लाना आसान नहीं है। ज्ञान मंदिर में जब से मीड डे मील का वितरण किया जा रहा है, स्कूली बच्चों की तादाद कम नहीं हो रही है। दोपहरिया भोजन के लिए दूसरे स्कूलों के बच्चे भी आने लगे हैं। खेती-किसानी का सीजन शुरू होती है उनकी उपस्थिति लगातार घटने लगती है।
स्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि औरवाटांड इलाके के बच्चों ने न तो गंगा नदी देखी थी और न ही वो किसी शहर में गए थे। ट्रेन भी नहीं देखा था। बनारस जैसे शहर में कभी गए ही नहीं थे। इन बच्चों को हर साल हम बनारस के सारनाथ में ले जाते हैं।
शहर की संस्कृति और सभ्यता से रूबरू कराते हैं। ज्ञान मंदिर में हम आदिवासी बच्चों के लिए मुफ्त कोचिंग योजना शुरू करने जा रहे हैं, जिसमें सभी स्कूलों के बच्चों को पढ़ाया जाएगा। इंटरनेट की व्यवस्था सुचारू होने पर बीएचयू के आईआईटी स्टूडेंट्स भी आदिवासियों के बच्चों की आनलाइन क्लास लेंगे।”
किसी ने नहीं ली सुध
औरवाटांड में एक सरकारी प्राइमरी स्कूल भी है। इस स्कूल की रामकहानी भी अजीब है। दो बरस पहले स्कूल की जर्जर इमारत तोड़ दी गई थी। तभी से बच्चे पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ते हैं। आसपास कोई दूसरा प्राइमरी स्कूल है भी नहीं। अचरज की बात यह है कि सरकार ने पुरानी और जर्जर इमारत को ढहाने में दिलचस्पी तो खूब दिखाई, लेकिन नए भवनों को बनवाना ही भूल गई।
चंदौली के बेसिक शिक्षा अधिकारी श्री प्रकाश सिंह ने अभी औरवाटांड इलाके में जाने की जरूरत ही नहीं समझी। नौगढ़ इलाके के प्राइमरी स्कूलों की बदहाली पर सवाल पूछे जाने पर वह चुप्पी साध लेते हैं। वह कहते हैं, “हम अभी हाल में चंदौली आए हैं और जल्द ही नौगढ़ के दुर्गम इलाकों का भ्रमण कर स्थिति ठीक करने की कोशिश करेंगे।”
औरवाटांड प्राइमरी स्कूल में लगा हैंडपंप महीनों से खराब पड़ा है, जिसे बनवाने में न तो ग्राम प्रधान लाल साहब की दिलचस्पी है और न ही पंचायत सचिव की। स्कूल के टीचर अजय कुमार पांडेय बताते हैं, “हैंडपंप की मरम्मत कराने के लिए खंड विकास अधिकारी को वीडियो भेजा गया था, लेकिन उन्होंने भी कोई सार्थक पहल नहीं की।
स्कूल परिसर में रखी एक पानी की टंकी है और पढ़ने वाले बच्चे कूछ दूरी पर स्थित पीएसी कैंप से पानी ढोकर लाते हैं और उसमें भरते हैं। जब वो पानी नहीं देते तो बच्चे प्यासे रह जाते हैं। कुछ बच्चे अपने घरों से पेप्सी-कोला की बोतलों पानी भरकर लाते हैं।”
अजय पांडेय यह भी कहते हैं, “बच्चों को पेड़ की छांव में पढ़ाते हैं। कभी-कभी सांप और बिच्छू भी निकल आते हैं। तब बच्चों को हम लोग मुश्किल से बचा पाते हैं। स्कूल की बाउंड्री छोटी है, जिससे कुत्ते-बिल्ली भी घुस आते हैं। शौचालय की स्थिति बेहद खराब है। वह किसी काम लायक नहीं है। बारिश होती है तो बच्चों को छुट्टी दे देते हैं।
दो साल से हम क्लास रूम बनवाने का इंतजार कर रहे हैं। हाल बेहद खराब है और सबसे बड़ी बात यह है कि कोई बच्चों के अभिभावकों और शिक्षकों की फरियाद सुनने वाला नहीं है। दो साल से स्कूल टूटा है। बारिश में बच्चों की किताबें भीग जाती हैं। बच्चे खुले आसमान के नीचे पढ़ने को मजबूर हैं।”
औरवाटांड प्राइमरी स्कूल पर हम पहुंचे तो बच्चे एक पेड़ के नीचे बैठकर पहाड़ा पढ़ रहे थे। कुछ बच्चे अपनी कॉपियों में कुछ सवाल हल कर रहे थे। उनकी कॉपियां, पेंसिल बॉक्स बिखरे थे। बच्चों ने बताया कि बिजली-पानी स्कूल में नहीं है। कई बार घुप्प अंधेरा हो जाता है और हम डरने लगते हैं।
जंगली रास्तों पर अगर किसी बच्चे की तबीयत खराब हो जाए तो? प्राइमरी स्कूल के शिक्षक देवेंद्र कुमार सिंह कहते हैं, “ये पहाड़, जंगल, फुंफकार मारती नदियां, बारिश और जानलेवा रास्ते स्कूली बच्चों की ज़िंदगी का हिस्सा बन गए हैं।”
देवेंद्र कहते हैं, “बच्चों को सावधानी बरतनी होती है। डर रहता है कि कहीं मिट्टी धसक गई तो बच्चे बांध के गहरे पानी डूब जाएंगे।” वह एक घटना के बारे में बताते हैं जब नौगढ़ बांध वाले रास्ते से आने वाला एक बच्चा पानी में समा गया था।
बारिश का वक़्त सबसे मुश्किल होता है क्योंकि बारिश के कारण इकलौता फिसलन भरा रास्ता आने-जाने लायक नहीं होता। नौगढ़ डैम के पूर्वी इलाके से जो बच्चे आते हैं वो देरी से आते हैं। हम लोगों को उनका इंतज़ार करना पड़ता है।”
सिर्फ चुनाव में ही आते हैं नेता
औरवाटांड के ग्रामीण चुनाव के महत्व को समझते हैं। इसी गांव के रामरतन, रामदीन, गनेश, कुंज बिहारी, नंदू, श्याम बिहारी और श्यामलाल कहते हैं, “चुनाव से भारतीय लोकतंत्र मज़बूत होता है। लेकिन चुनाव बीतने के बाद हमारे गांव में न नेता आते हैं और न हुक्मरान।
वो आते भी हैं तो औरवाटांड जलप्रपात देखने। कोई हमारी सुध नहीं लेता। इस इलाक़े में बेरोज़गारी आम है। ऐसे में मां-बाप किस उम्मीद से अपने बच्चों को इतनी मुश्किलें उठाकर पढ़ाते हैं? हमारे इलाके के विधायक कैलाश खरवार हमारी बिरादरी से जुड़े हैं, लेकिन वो भी हमारी मुश्किलों पर गौर नहीं कर रहे हैं।”
नौगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार अशोक जायसवाल कहते हैं कि इस पर्वतीय अंचल के ढेर सारे नौजवान “भारतीय सेना या अर्धसैनिक बलों में नौकरियों की ख़्वाहिश रखते हैं। ढेरों समस्याएं उन नौजवानों के लिए है, जो जीवन में कुछ और करना चाहते हैं।
इलाके के सैकड़ों युवा नौगढ़, चंदौली और बनारस में पढ़ रहे हैं। अच्छी शिक्षा की तलाश में इलाके के बच्चों को बाहर निकलना पड़ता है और कई बार गरीबी उनकी तरक्की की राह में बाधा बन जाया करती है।”
“नौगढ़ के नौजवानों की आम शिकायत है कि आदिवासी समुदाय के पढ़े-लिखे लोगों को भी नौकरियां नहीं मिलतीं। इस इलाके में कथित सरकारी भाई-भतीजावाद के कारण होनहार युवकों को घर बैठना पड़ता है।” नौगढ़ इलाके में नौजवानों की तरक्की के रास्तों के बंद होने की कई वजहें हैं।”
पत्रकार अशोक कहते हैं, “प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ पूर्वाग्रह मौजूद है। उनकी आवाज़ की उपेक्षा की जाती है जो कि बोलने की आज़ादी के संवैधानिक अधिकार के बिल्कुल विपरीत है।”
संकट में आदिवासी
दरअसल, चंदौली का नौगढ़ इलाक़ा पहले पूर्वांचल का दूसरा कालाहांडी माना जाता था। इसी प्रखंड के कुबराडीह और शाहपुर जमसोत में दो दशक पहले भूख से कई आदिवासियों की मौत हुई थी। नौगढ़ इलाक़े में दशकों तक डकैतों का साम्राज्य रहा। डकैत ख़त्म हुए तो नक्सलियों की आमद-रफ़्त बढ़ती चली गई। इस इलाक़े में कभी नामी डकैतों का सिक्का चला करता था तो कभी यह इलाक़ा कुख्यात नक्सलियों का सबसे बड़ा गढ़ हुआ करता था। फ़िलहाल दोनों समस्याएं काफ़ी हद तक ख़त्म हो गई हैं, लेकिन आदिवासियों की पेयजल की मुश्किलें जस की तस हैं।
साल 2011 की जनगणना के अनुसार चंदौली ज़िले की आबादी 19,52,756 थी, जिसमें 10,17,905 पुरुष और 9,34,851 महिलाएं शामिल थीं। 2001 में चंदौली ज़िले की जनसंख्या 16 लाख से अधिक थी। चंदौली में शहरी आबादी सिर्फ़ 12.42 फ़ीसदी है। 2541 वर्ग किलोमीटर में फैले चंदौली ज़िले में अनुसूचित वर्ग की आबादी 22.88 फ़ीसदी और जनजाति आबादी 2.14 फ़ीसदी है।
यहां खेती के अलावा कोई दूसरा रोज़गार नहीं है। गर्मी के दिनों में नौगढ़ में सिर्फ इंसान ही नहीं, मवेशियों के लिए भी पानी जुटाना आसान नहीं होता है।
औरवाटांड़ गांव यूपी के चंदौली जिला मुख्यालय से करीब 55 किमी दूर है जो प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस से सटा है। यह इलाका कभी नक्सली गतिविधियों के लिए कुख्यात रहा है, तो कभी घमड़ी खरवार और मोहन बिंद जैसे डकैतों के आतंक से।
चंदौली और सोनभद्र के जंगलों में आदिवासियों की आठ जातियां रहती हैं। इनमें प्रमुख रूप से कोल, खरवार, भुइया, गोंड, ओरांव या धांगर, पनिका, धरकार, घसिया और बैगा हैं। साल 1996 में वाराणसी से टूटकर चंदौली जनपद बना। इस दौरान कोल, खरवार, पनिका, गोंड, भुइया, धांगर, धरकार, घसिया, बैगा आदि अनुसूचित जनजातियों को अनुसूचित जाति में सूचीबद्ध कर दिया गया।
बिजली-इंटरनेट की समस्या गंभीर
औरवाटांड में सबसे ज्यादा लिखी-पढ़ी महिला संगीता पोस्ट ग्रेजुएट हैं। वह कहती हैं, ” इस इलाके में बिजली संकट एक बड़ी चुनौती है। बिजली तो आ गई है, लेकिन बारिश के दिनों में अक्सर तार टूट जाया करते हैं और महीनों उन्हें ठीक करने की जहमत कोई नहीं उठाता है”।
नौगढ़ इलाके को अनुसूचित जाति में सूचीबद्ध किया गया है, इस वजह से इलाके का विकास, जीवन और भी पिछड़ गया, जबकि समीप के सोनभद्र खरवार आदि जनजातियां जन-जाति के रूप में सूचीबद्ध हैं। चंदौली के आदिवासी, आदिवासी होकर भी आदिवासी नहीं हैं। अनुसूचित जाति में गिने जाने की वजह से इनको वन अधिकार कानून का लाभ नहीं मिल पा रहा है। औरवाटांड़ में खरवार जनजाति की आबादी करीब ढाई सौ है और इस गांव के प्रधान लाल साहब भी इसी समुदाय से आते हैं।
संगीता कहती हैं, “औरवाटांड जंगलों से घिरा है। जहरीले सांप-बिच्छू हर साल कई लोगों की जान ले लेते हैं। साल 2021-2022 में अंधेरे की वजह से कम से कम 20 लोग सर्पदंश का शिकार हो गए थे। पास में कोई बढ़िया अस्पताल नहीं है। लोगों को बीमारी आदि के इलाज के लिए दूर जाना पड़ता है”।
वो कहती हैं “सरकार के द्वारा चलाई जा रही कल्याणकारी योजनाएं आधी-अधूरी ही पहुंच पाती हैं। आशा द्वारा नौनिहालों के स्वास्थ्य की जांच समय से नहीं हो पाती है। इस वजह से कई बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। अधिकतर रास्ते और गलियां कच्चे हैं। ये ऊबड़-खाबड़ होने की वजह से जहां-तहां पानी लगकर सड़ता रहता है। कई बार गांव की महिलाएं, बुजुर्ग और बच्चे गिरकर चोटिल भी हो जाते हैं।”
ज्यादातर हैंडपंप खराब
नौगढ़ प्रखंड में पेयजल संकट से प्रभावित 51 ग्राम सभाओं में से एक है देवरी कला। इसी से जुड़ा है औरवाटांड़। क्षेत्रफल के हिसाब से देवरी कला यूपी की दूसरी सबसे बड़ी ग्राम पंचायत है, जहां सर्वाधिक आबादी खरवार, कोल, मुसहर और बैगा जन-जातियों की है।
केल्हड़िया के अलावा पंडी, सपहर, नोनवट, करमठचुआं और औरवाटांड गांव देवरी ग्राम सभा के हिस्से हैं। इस इलाक़े में पानी की समस्या को लेकर योजनाएं तो कई बार बनीं, लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त नहीं बदली। नौगढ़ इलाक़े की सभी ग्राम सभाओं में ज़्यादातर हैंडपंप शो-पीस बन गए हैं।
योगी सरकार ने जून 2020 में ‘हर घर जल’ योजना की शुरुआत की और वादा किया कि जून 2022 तक नौगढ़ के हर घर तक पाइपलाइन से पानी पहुंचा दिया जाएगा। बाद में इसकी डेड लाइन बढ़ाकर 2024 कर दी गई। ‘हर घर जल’ योजना के तहत पेयजल का इंतजाम करने के लिए नौगढ़ के लिए 250 करोड़ की योजना को मंजूरी दी गई है।
इस योजना के तहत भैसोढ़ा बांध के पानी को शोधित करने के बाद करीब छह सौ किलोमीटर पाइप लाइन से सभी घरों में पहुंचाया जाना है। मियाद बीतती जा रही है, लेकिन ‘हर घर जल’ योजना का कहीं अता-पता नहीं है।
औरवाटांड की 23 वर्षीय कविता कहती हैं, “हमारे इलाके में विचरण करने वाले भालू, तेंदुआ, लंगूर, नीलगाय, हिरन, बारहसिंघा, शाही, चीतल, खरगोश और बंदर आदि वन्य जीवों का जीवन संकट में है। पिछले कई सालों से कायदे से बारिश नहीं हुई है और धरती की प्यास नहीं बुझ पाई है।
इस वजह से पेयजल संकट की समस्या गंभीर हो गई है। इस इलाक़े में पानी की समस्या को लेकर योजनाएं तो कई बार बनी, लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त नहीं बदली। औरवाटांड जलायश के पूर्व की तरफ़ सेमर साधो ग्राम सभा के सेमर, होरिला, धोबही, पथरौर, जमसोत से लगायत शाहपुर तक सूखे की मार के साथ पेयजल की समस्या है।”
देवरी के दक्षिण में मंगरई ग्राम सभा के गहिला, सुखदेवपुर, हथिनी, मगरही में पीने के पानी का जबर्दस्त संकट है। उत्तर में पहाड़ और जंगल है। 40 से 45 किमी तक कहीं हैंडपंप अथवा कुआं नहीं है। पश्चिम में लौआरी ग्राम सभा का गांव है जमसोती, गोड़टुटवा, लेड़हा, लौआरी, लौआरी कला।
इन गांवों में औरतों और बच्चों को पीने के पानी के लिए जद्दोजहद करते कभी भी देखा जा सकता है। चौतरफा पहाड़ियों से घिरे पंडी गांव में सिर्फ खरवार आदिवासियों के डेरे हैं और इनकी ज़िंदगी बेहद दर्दनाक है। यहां के लोग हर सुबह उठते ही पानी की फ़िक्र में जुट जाते हैं।
बिना पानी के नर्क बनी औरतों की जिंदगी
औरवाटांड की दलित महिला कमला देवी पेयजल संकट के सवाल पर भावुक हो जाती हैं और कहती हैं, “हमारे गांव की औरतों की मंजिल बहुत छोटी है और ज़िंदगी बेरंग। सिर्फ पानी ढोने, खाना बनाने और बच्चों को पालने में ही इस गांव की औरतों की सारी उम्र बीत जाती है”।
उनका कहना है कि “हर घर की औरतें पानी ढोती हैं और पुरुष मजूरी करते हैं। मुश्किल सिर्फ औरतों को नहीं, स्कूल जाने वाले ज़्यादातर बच्चे और बच्चियां अपनी माताओं के साथ पानी के लिए कभी हैंडपंप पर लाइन में खड़े नज़र आते हैं, तो कभी सिर पर पानी के डब्बों के साथ।”
कमला यह भी कहती हैं, “पानी के संकट ने हमारी ज़िंदगी नर्क बना दी है। जब हैंडपंप बिगड़ जाता है तो कई-कई दिन बिना नहाए रहना पड़ता है। तब चुआड़ के मटमैले पानी से ही हमारी प्यास बुझ पाती है। समूचा गांव मटमैले पानी के ऊपर निर्भर है। यहां ज़मीन से ऐसा पानी निकलता है जो न पीने लायक होता है, न नहाने लायक।
कमला बताती हैं कि “गर्मियों में नहाने के लिए भी पानी नसीब में नहीं होता। नौगढ़ बांध का दूषित पानी पीने पर टाइफाइड हो जाता है। पढ़ाई और विकास में सबसे बड़ी बाधा है इंटरनेट की लुंज-पुंज व्यवस्था। बीएसएनएल का टावर काम नहीं करता है। इस टावर को चलाने के लिए बैटरियां खराब हुई तो फिर बदली ही नहीं गईं।”
ग्रेजुएट पास भीमसेन कहते हैं, “भीषण पेयजल संकट का असर हमारे सामाजिक ताने-बाने पर पड़ रहा है। हालात ये हैं कि कोई भी पिता अपनी बेटी की शादी औरवाटांड और आसपास के गांवों में नहीं करना चाहता है। रिश्तेदार आते हैं तो कहते हैं पानी नहीं है इसलिए अपनी बेटियों का ब्याह नहीं करेंगे। शादी के बाद जो औरतें औरवाटाड़ गांव की बहू बनती हैं, उन्हें रोजाना सुबह-शाम घंटों पानी ढोना पड़ता है।
आगे वे कहती हैं “चुनाव के वक्त सभी दलों के नेता आते हैं और पानी की मुश्किलों से छुटकारा दिलाने के बड़े-बड़े दावे करते हैं, लेकिन बाद में उनके दर्शन नहीं होते। हमारी कई पीढ़ियां गुज़र गईं, लेकिन पेयजल समस्या का स्थायी समाधान आज तक नहीं हुआ। अप्रैल से जुलाई महीने तक का समय किसी बड़े संकट से कम नहीं होता।”
औरवाटांड के अलावा पंडी, केल्हड़िया, सपहर, नोनवट, करमठचुआं गांव देवरी ग्राम सभा के हिस्से हैं। ग्राम प्रधान लाल साहब खरवार बेबाकी के साथ पेयजल संकट को स्वीकार करते हैं और वो कहते हैं, ”पीने के पानी के लिए हम अफसरों के चौखट पर दौड़ते-दौड़ते थक गए हैं। कोई उपाय नहीं सूझ रहा है।…
..गांव वालों को हम क्या जवाब दें और मुसीबतों से घिरे लोगों को कैसे अपना मुंह दिखाएं? औरवाटांड गांव में बांध के पानी में आर्सेनिक की मात्रा ज़्यादा है, जिसे पीने का मतलब मौत को गले लगाना। हमारे डैम का पानी चंदौली के धानापुर और बिहार को आबाद करता है और हमारी प्यास नहीं बुझ पा रही है।”
ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन के जिलाध्यक्ष आनंद सिंह कहते हैं, “चंदौली के नौगढ़ इलाके में विकास के नाम पर सालों-साल करोड़ों रुपये ख़र्च किए गए, जिनमें से सबसे अधिक पैसा पानी के संकट को दूर करने में खपाया गया। यहां पैसा तो पानी की तरह बहा, लेकिन लोगों की प्यास नहीं बुझ पाई।
आनंद का कहना है कि “बूंद-बूंद पानी के लिए अब भी लोग जूझ रहे हैं। आदिवासी बहुल इस इलाक़े में पीने का पानी जुटाना युद्ध जीतने जैसा होता है। नौगढ़ के किसी भी गांव में चले जाइए। हर कोई यूपी सरकार के जीवन मिशन से उम्मीद लगाए बैठा है। शहर से कोई भी पहुंचता है तो आदिवासी एक ही सवाल पूछते हैं, “आखिर कब पहुंचेगा सरकारी नल का पानी? कब दूर होगा पेयजल संकट और कब ख़त्म होगी उनकी जद्दोजहद?”
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)