Friday, March 29, 2024

मजदूरों की जीवनरेखा मनरेगा को लगातार छोटी कर रही है केंद्र सरकार

असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को रोजगार देने वाला महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारन्टी कानून (मनरेगा) देश की एकमात्र योजना है, जो 2008 के वैश्विक आर्थिक सुनामी और 2020 में विश्वव्यापी कोरोना संकट के दौरान लोगों के लिए जीवनरेखा साबित हुई। आंकड़े बताते हैं कि वित्तीय वर्ष 2020-21 में भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रायल ने 1.11 लाख करोड़ रुपये खर्च कर 7.5 करोड़ परिवारों के 11 करोड़ श्रमिकों को रोजगार प्रदान किया था। यह मनरेगा के 16 सालों के इतिहास में सर्वाधिक बजटीय आवंटन था। इसका एक प्रमुख कारण कोविड जैसे संक्रमण काल में जब देश ही नहीं पूरी दुनिया में आर्थिक गतिविधियाँ बन्द थीं, तब मजदूरों को व्यापक पैमाने पर रोजगार मुहैया कराना था।

बावजूद इसके ग्रामीण भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने वाली योजना मनरेगा के प्रति केंद्र सरकार नकारात्मक मानसिकता का अंदाजा इसी बात से परिलक्षित होता है, कि जब लोक सभा में 2021-22 का बजट वित्त मन्त्री ने पेश किया, तो उसमें पिछले वित्त वर्ष के मुकाबले 25.51 प्रतिशत की मनरेगा में कटौती करते हुए महज 73,000 करोड़ रूपये आवंटित की किया गया। बाद में पुनर्क्षित बजट प्रावधान में 25,000 करोड़ की राशि शामिल करते हुए इसे 98,000 करोड़ रूपये किया गया। लेकिन बजट कटौती के बावजूद भी इस वर्ष 6.74 करोड़ परिवारों के 9.75 करोड़ मजदूर मनरेगा योजनाओं में कार्य किये।

वर्तमान वित्तीय वर्ष 2022-23 के बजट आवंटन में तो सरकार ने हद ही कर दी है। पिछले वर्ष जहाँ कुल बजट आवंटन 98,000 करोड़ रुपये था, उसके मुकाबले 12 प्रतिशत की कटौती करते हुए फिर एक बार सिर्फ 73,000 करोड़ बजट आवंटित किया है। यदि हम इस बजट आवंटन की गहराई में जाते हैं, तो हम पाते हैं कि इस 73,000 करोड़ में से 18,350 करोड़ तो वित्तीय वर्ष 2021-22 बकाये भुगतान में ही खर्च हो जाएँगे। इसका मतलब यह हुआ कि वर्ष 2022-23 के लिए वास्तविक बजट आवंटन राशि सिर्फ 54,650 करोड़ है। जब मनरेगा कानून यूपीए -1 की सरकार ने 2005 में लाया था, तब जीडीपी की 4 प्रतिशत राशि मनरेगा के लिए आवंटित की गई थी। जिसे भाजपा राज में घटाकर 2 प्रतिशत कर दिया गया। वर्तमान में यह और भी घटकर 1.7 प्रतिशत ही रह गई है।

इस बजट कटौती का प्रत्यक्ष प्रभाव ग्रामीण भारत के खेत मजदूरों पर पड़ रहा है। देश के मनरेगा मजदूरों की मजदूरी राज्यों की न्यूनतम कृषि मजदूरी से भी कम है। उन्हें किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा की गारन्टी भी नहीं है। रोजमर्रा की खाद्य पदार्थों की कीमतें आसमान छू रही हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी चीजें महँगी होने से हालात ख़राब हो रहे हैं। राज्य सरकारें राशि के अभाव में मजदूरों को काम देने से सीधे मना कर रही हैं। गांवों में प्रारंभ की गई योजनाओं पर ग्रहण लग गया है। ग्रामीण मजदूर परिवारों का पलायन तेजी से शहरों और महानगरों की ओर होने लगा है।

एक ओर सरकार बजट आवंटन में निरंतर कमी कर रही है, वहीं सरकार ऐसा कुछ कर रही है जिससे लोग मनरेगा में काम करने से खुद ही कतराने लगे, इसके लिए तरह–तरह की तकनीकी बाधाएं खड़ी कर रही है। पहले सरकार ने अव्यवहारिक जातिवार एफटीओ सृजित करना प्रारंभ किया। पिछले दिनों मई के महीने से आदेश निर्गत है कि हाजरी सिर्फ स्मार्ट फोन के जरिये ही सीमित समय अवधि के अंदर लगानी है। साथ में सुबह और शाम दो बार मजदूरों को कार्यस्थल के साथ फोटो अपलोड करना अनिवार्य है। 1 अगस्त से नया आदेश है कि किसी भी ग्राम पंचायत में 20 से ज्यादा योजनाएँ नहीं चलाई जाएँगी। जबकि कमजोर मानसून के कारण देश के कई हिस्सों में सुखाड़ के हालात हैं। ऐसे में ग्रामीण परिवारों के समक्ष करो या मरो की स्थिति आ गई है।

बताना जरूरी होगा कि देश के कई राज्यों में मनरेगा मजदूरों का पिछले 6 महीने से 3989.58 करोड़ रुपए बकाया है। जिसे चार्ट में देखा जा सकता है।

झारखण्ड से 2 दर्जन से अधिक संगठन के लोग संसद भवन घेराव के लिए दिल्ली रवाना हो गए हैं। जिसमें मुख्य रूप से नरेगा संघर्ष मोर्चा, सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन (सीटू), किसान संगठन अखिल भारतीय किसान सभा (एआईकेएस) और खेत मज़दूर संगठन अखिल भारतीय खेत मज़दूर यूनियन (एआईएडब्ल्यूयू) और झारखंड से “झारखंड नरेगा वाच” के तत्वावधान में ‘संयुक्त देशव्यापी अभियान’ 15 अगस्त तक चलेगा। मजदूर संगठनों के मुताबिक यह अभियान केंद्र सरकार के आज़ादी का अमृत महोत्सव से प्रेरित है, जिसमें केंद्र सरकार की ‘जनविरोधी’ नीतियों को उजागर किया जाएगा।

(झारखंड से वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)

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