जनता के ‘मन की बात’ से घबराये मोदी की सोशल मीडिया को उससे दूर करने की क़वायद

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करीब दस दिन पहले पत्रकार मित्र आरज़ू आलम से फोन पर बात हुई। पहले कोविड-19 और फिर टाई-फाईड से जूझ रहे आरज़ू से उनके स्वास्थ्य को लेकर शुरू हुई औपचारिक बातचीत कैसे राजनीतिक बातचीत में बदल गई पता ही न चला। ख़ैर आधे घंटे की बातचीत में आरज़ू आलम ने जो बात कही वो महत्वपूर्ण बात थी। पाठ्य (टेक्स्ट) और दृश्य (विजुअल) की लोगों तक पहुँच और प्रभाव पर तुलनात्मक बात करते हुए आरज़ू आलम ने बताया कि लोग पढ़ना नहीं चाहते वो वीडियो देखना चाहते हैं।

रिलायंस जियो के बाद मोबाइल क्रांति शुरु हुई। उससे पहले वीडियो देखना नेट पर एक मुश्किल काम था। बार-बार वो बफर करने लगता था। लोग पढ़ते थे। जो नहीं पढ़े लिखे होते थे वो दूसरे माध्यमों से जितना मिलता था लेते थे। जियो के बाद इंटरनेट पर वीडियो देखने का चलन बढ़ा। यूट्यूब और यूट्यूब चैनलों का प्रसार और प्रभाव बढ़ा। वीडियो में आसानी से उस व्यक्ति को भी समझाया जा सकता है जो पढ़ा-लिखा नहीं है। क्योंकि आदमी का दिमाग ग्रैफिकली ज़्यादा काम करता है। गंध फैलाया आरएसएस भाजपा ने वीडियो के जरिए।

आरज़ू आगे कहते हैं- “मोदी ने कोई चमत्कार नहीं किया। वो बस वीडियो और सोशल मीडिया के जरिए लोगों तक पहुँच गए। उन्होंने बीच से हमें (मीडिया पर्सन) काट दिया। जब वो रडार साइंस वाली बात कर रहे होते हैं तो वो हमें अपना ऑडियंस कंसीडर करके नहीं कह रहे होते। उनको पता है कि हम उनकी बेवकूफ़ी पर हँसेंगे। वो तो उनको बता रहे हैं जो नहीं पढ़े हैं। बेवकूफ जनता के लिए है। अगर उन्होंने अपनी बात जनता तक पहुँचा दी तो जनता हमारी (फैक्चुअल) बातें सुनने से पहले ही रिजेक्ट कर देगी। मोदी ने यही किया। फेसबुक वाट्सअप के जरिए उन्होंने हमें बाईपास कर दिया। उन्हें आपकी ज़रूरत नहीं है। उन्हें पता है लोगों को किस भाषा में कंटेट चाहिए। लोगों को सरलता में चाहिए। यदि वो जटिलता में समझ ही पाते तो ये स्थिति न होती।”

डेटा महँगा हो रहा है क्यों

आरज़ू आलम आगे बताते हैं कि “जिस तरह से इंटरनेट डेटा महँगा हो रहा है। डेटा का जो प्रसार है वो सिकुड़ना शुरु हो गया है। उसका कारण ये है कि नरेंद्र मोदी को अब इस तरह के डेटा को फैलाने की ज़रूरत नहीं है। वो साम्राज्य और प्रभाव उसके जरिए फैला चुके हैं। अब नरेंद्र मोदी को डर है कि कहीं इन्हीं संसाधनों का इस्तेमाल करके उनका काउंटर न कर सकें। जिस मोबाइल इंटरनेट, वीडियो और सोशल मीडिया के जरिए उन्होंने अपना झूठ और नफ़रत का साम्राज्य फैलाया है उसे फोन वीडियो के जरिए उनके झूठ और नफ़रत के साम्राज्य समेटा भी जा सकता है।

लोहा ही लोहे को काटता है। बात इस्तेमाल की है। कि आप सकरात्मक बातों के लिए करते हैं या नकरात्मक बातों के लिए। इसीलिए अब डेटा महँगा होता जाएगा। लगातार रेट बढ़ गया है। पहले 399 में 84 दिन वैलिडिटी मिलती थी। अभी उतनी ही वैलिडिटी के लिए 799 देना पड़ रहा है। वैलिडिटी कम हुई दाम बढ़ा है। इससे क्या होगा कि जो लोग मोबाइल डेटा अफोर्ड कर सकते थे अब उनके दायरे से ये छूटता जाएगा। 

इससे एक ओर तो रिलायंस की मोनोपॉली बनेगी, दूसरी ओर मोदी का काउंटर नहीं हो सकेगा। उनकी बीमारी से उनका इलाज करने का काम नहीं हो पाएगा। वो हमें लोगों तक पहुँचने के माध्यम को खत्म करना चाहते हैं। वो नहीं चाहते कि जिन माध्यमों से वो लोगों तक पहुँचकर उनके कान भरने, उनको बहकाने में कामयाब हुए हैं उस माध्यम का इस्तेमाल करके हम उन लोगों तक पहुँच सकें।  

बहुत से लोगों ने रिचार्ज करवाना बंद कर दिया है

कमलेश भारतीया बताते हैं कि “गरीब तबके में यूनिनॉर और एयरसेल गरीबों की कंपनियां मानी जाती थीं। दस-दस रुपए के उनके छोटे रिचॉर्ज, उनकी स्कीम, नेट पैक गरीबों की ज़रूरतों के अनुकूल होते थे। लेकिन जियो ने एयरसेल, यूनिनॉर का कारोबार समेटकर पहले अपनी मोनोपॉली स्थापित की फिर मनमानी शुरु कर दी है।”

कमलेश आगे कहते हैं कि “जियो के आने से पहले इनकमिंग लाइफ टाइम फ्री होती थी लेकिन अब जियो ने इसके लिए भी पैसे देने को विवश कर दिया है। 28 दिन की वैलिडिटी के लिए 49 रुपये का रिचार्ज करवाना पड़ रहा है।”   

जियो ने 6 महीने मुफ़्त डेटा देकर ग्राहक बनाने के बाद 399 रुपये में 84 दिन की सेवा देना शुरु किया। तो एयरटेल और वोडाफोन+आईडिया को भी उसके नक्श-ए-कदम पर चलना पड़ा। लेकिन अब टेलीकॉम कंपनियों ने एक ओर दाम भी बढ़ा दिए और दूसरी ओर वैलिडिटी भी कम कर दी है। 399 में 56 दिन की वैलिडिटी दे रहे हैं। तो अब 84 दिन की वैलिडिटी के लिए 599 रुपए देने पड़ रहे हैं।  

कोर्ट में हलफ़नामा देकर मोदी सरकार ने सोशल मीडिया के लिए रेगुलेशन बनाने के लिए क्यों कहा

सोशल मीडिया पर अपनी आईटी सेल बैठाकर फ़ेक न्यूज और सांप्रदायिक वैमनस्य की फैक्ट्री चलाने वाली मोदी सरकार ने 15 सितंबर को सुदर्शन चैनल के एक सांप्रदायिक कार्यक्रम “नौकरशाही जेहाद” के खिलाफ एक याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर करके कहा है कि यदि मीडिया से जुड़े दिशा-निर्देश (रेगुलेशन) उसे जारी करने ही हैं तो सबसे पहले वह डिजिटल मीडिया की ओर ध्यान दे, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े दिशा-निर्देश तो पहले से ही हैं। 

हलफनामा में यह भी कहा गया है कि- “डिजिटल मीडिया पर ध्यान इसलिए भी देना चाहिए क्योंकि उसकी पहुँच ज़्यादा है और उसका प्रभाव भी अधिक है।”

बता दें कि 15 सितम्बर को सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस केएम जोसेफ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की पीठ के सामने तर्क दिया था कि एक पत्रकार की स्वतंत्रता सर्वोच्च है। तुषार मेहता ने कहा था कि जर्नलिस्ट के विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुप्रीम है। लोकतंत्र में अगर प्रेस को कंट्रोल किया गया तो ये विनाशकारी होगा।

एक समानांतर मीडिया भी है जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से अलग है और लाखों लोग नेट पर कंटेंट देखते हैं। इस पर जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि हम सोशल मीडिया की आज बात नहीं कर रहे हैं। हम एक को रेगुलेट न करें सिर्फ इसलिए कि सभी को रेगुलेट नहीं कर सकते? इसके बावजूद केंद्र सरकार ने शरारतपूर्ण हलफनामा दाखिल करके डिजिटल मीडिया को जबरन इसमें घसीटने की कोशिश की है।

इस मामले में दाखिल अपने 33 पृष्ठ के हलफनामे में केंद्र सरकार ने स्पष्ट किया कि यह डिजिटल मीडिया है जिसे अदालत को पहले देखना चाहिए और फिर टीवी या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को देखना चाहिए क्योंकि बाद वाले मामलों और पूर्ववर्ती द्वारा नियंत्रित होते हैं। हलफनामे में कहा गया है कि मुख्य धारा के मीडिया में (चाहे इलेक्ट्रॉनिक हो या प्रिंट), प्रकाशन / टेलीकास्ट एक बार का कार्य है, डिजिटल मीडिया की व्यापक दर्शकों / पाठकों से व्यापक पहुंच है और व्हाट्सएप, ट्विटर, फेसबुक जैसे इलेक्ट्रॉनिक एप्लिकेशन के कारण वायरल होने की संभावना है । गंभीर प्रभाव और क्षमता को ध्यान में रखते हुए, यह वांछनीय है कि यदि यह न्यायालय नियमन करने का निर्णय लेता है, तो इसे पहले डिजिटल मीडिया के संबंध में किया जाना चाहिए क्योंकि पहले से ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट के संबंध में पर्याप्त रूपरेखा और न्यायिक घोषणाएं मौजूद हैं।

भारत के लोग सोशल मीडिया पर ज़्यादा इंटरनेट और समय ख़र्च करते है 

भारतीय यूजर्स द्वारा वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स पर हर महीने 11GB से ज्यादा डेटा ख़र्च कर रहे हैं ये बात टेलिकॉम प्रॉडक्ट्स बनाने वाली कंपनी नोकिया ने अपनी ऐनुअल मोबाइल ब्रॉडबैंड इंडिया ट्रैफिक इन्डेक्स (MBiT) साल 2019 की एक रिपोर्ट में बताया है। नोकिया इंडिया सीएमओ ने कहा कि भारत में डेटा कंजम्पशन दुनिया भर में सबसे ज्यादा है और भारतीय यूजर्स ने चीन, यूएस, फ्रांस, साउथ कोरिया, जापान, जर्मनी और स्पेन जैसे मार्केट्स को पीछे छोड़ दिया है। एक जीबी डेटा की मदद से सामान्य तौर पर यूजर्स 200 गाने स्ट्रीम कर सकते हैं।

हूटसूट और वी आर सोशल द्वारा तैयार की गई डेटा पोर्टल की रिपोर्ट में सामने आया है कि, भारत में हर यूजर हर दिन सोशल मीडिया पर औसतन 2 घंटे 24 मिनट बिताता है। हमारे देश में सोशल मीडिया पर ज्यादा समय बिताने के मामले में महिलाएं, पुरुषों से आगे हैं। 

जबकि, दूसरे देश के यूजर रोजाना औसतन 2 घंटे 22 मिनट बिताते हैं। हर दिन सोशल मीडिया पर सभी यूजर्स के बिताए वक्त को जोड़ दिया जाए, तो हर दिन 10 लाख साल के बराबर समय सिर्फ सोशल मीडिया पर ही खर्च हो जाता है। दुनिया भर में सोशल मीडिया यूजर्स की संख्या 3.96 अरब हो गई है, जो दुनिया की आबादी का 51% है।

लॉकडाउन में सोशल मीडिया पर भारतीयों का वक्त 59% तक बढ़ा

लंदन की रिसर्च फर्म ग्लोबल वेब इंडेक्स ने कोरोना लॉकडाउन के बीच दुनिया के 18 देशों में सर्वे किया था। इस सर्वे में सामने आया था कि लॉकडाउन की वजह से लोग सोशल मीडिया पर पहले से ज्यादा समय बिता रहे हैं। मई में हुए सर्वे में आया था कि सोशल मीडिया पर भारतीयों का समय 56% बढ़ गया है।

जबकि, जुलाई में आए सर्वे के मुताबिक, सोशल मीडिया पर भारतीय पहले के मुकाबले 59% ज्यादा वक्त बिता रहे हैं। सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा समय फिलीपींस के लोग बिताते हैं और लॉकडाउन में उनका समय ही सबसे ज्यादा 67% बढ़ा है।

फेसबुक लगातार दुनिया भर की सबसे पसंदीदा सोशल मीडिया वेबसाइट बनी हुई है। अभी इसके मंथली एक्टिव यूजर्स की संख्या 2.6 अरब से ज्यादा है। जबकि, फेसबुक के ही मालिकाना हक वाले वॉट्सऐप मैसेंजर के 2 अरब और इंस्टाग्राम के 1.08 अरब से ज्यादा मंथली यूजर्स हैं।

फेसबुक के बाद दूसरे नंबर पर यूट्यूब है, जिसके पास 2 अरब यूजर्स हैं। वहीं चीन की टिकटॉक ऐप टॉप-5 में भी नहीं। टिकटॉक भले ही तेजी से बढ़ रही है, लेकिन अभी भी इसके 80 करोड़ यूजर्स ही हैं।

5 सितंबर 2016 को भारत में जियो लांच किया गया था।

1 मई, 2020 तक देश में जियो सब्सक्राइबर की संख्या 38.8 करोड़ हो गई है। जियो की लांचिग 5 सितंबर, 2016 को भारत में हुई थी। नरेंद्र मोदी सरकार ने अपनी सारी जनविरोधी नीतियां और तानाशाही फरमान ‘जियो लांचिंग’ के बाद ही शुरु की। नोटबंदी, जीएसटी, सर्जिकल स्ट्राइक एक के बाद एक तमाम राज्य़ों के विधानसभा चुनाव में फतह, मॉब लिंचिंग, सब जियो के बाद ही लाए गए। 

भारत में 50.40 करोड़ इंटरनेट सब्सक्राइबर्स

इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (आईएएमएआई) और नील्सन की एक रिपोर्ट के अनुसार मार्च 2020 में भारत में इंटरनेट यूजर्स की संख्या पहली बार 50 करोड़ से पार होकर 50 करोड़ 40 लाख तक पहुंची है। 

इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (IAMAI) और नील्सन की एक संयुक्त रिपोर्ट में निकलकर सामने आया है। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में 22 करोड़ 70 लाख एक्टिव इंटरनेट यूजर्स हैं, जो शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा लगभग 10 प्रतिशत अधिक हैं। शहरी क्षेत्रों में इंटरनेट उपयोग करने वालों की संख्या 20 करोड़ 50 लाख है। इंटरेनट यूजर्स की संख्या में भारत से आगे अब सिर्फ चीन है, जहां पर 85 करोड़ इंटरनेट यूजर्स हैं।

मैकिन्जी ग्लोबल इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2023 तक भारत में इंटरनेट प्रयोग करने वाले यूजर्स की संख्या 40 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी और भारत, चीन से भी आगे निकल जाएगा।

2019 लोकसभा चुनाव में सोशल मीडिया की एकतरफा भूमिका

भाजपा का घोषणापत्र जारी होने से पहले ही भाजपा और कांग्रेस दोनों ओर हैशटैग तय थे, टीमें और बूथ स्तर तक कार्यकर्ता तैनात थे। 2019 लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा का संकल्प पत्र जारी होने के कुछ ही मिनटों में #BJPSankalpPatr2019 और #BJPJumlaManifesto जैसे हैशटैग के साथ ट्विटर वार शुरु हो गया। फेसबुक और व्हाट्सऐप पर भी पोस्ट शेयर की जाने लगीं। 

इसके लिए पहले से ही सोशल मीडिया मंचों को बड़ा बनाया गया और इसका इस्तेमाल औजार के तौर पर करने के लिए अकूत पैसे खर्च किए गए थे। जिसके चलते फेक न्यूज पर काबू पाने में चुनाव आयोग भी नाकाम हो गया था। मोगे मीडिया के चेयरमैन संदीप गोयल का आकलन है कि “2019 में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर कंटेंट को वायरल करने या ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए करीब 1,000 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है।” 

जबकि  इसमें राज्य सरकारों और केंद्र सरकार की ओर से सरकारी खर्च पर किया गया विज्ञापन शामिल नहीं है। सारा खर्च राजनैतिक दलों और उम्मीदवारों का है। सोशल मीडिया के बाजार में अभी भी फेसबुक की दादागिरी है। संदीप के मुताबिक़ –“80 फीसद खर्च फेसबुक, 10 फीसद गूगल और बाकी 10 फीसद में अन्य प्लेटफॉर्म शामिल होंगे।”

सभी पार्टियों की ओर से चुनाव प्रचार पर कुल 5,000 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान लगाया गया है। उनके मुताबिक, इसमें सोशल मीडिया पर करीब 20 फीसद खर्च होने जा रहा है। वहीं राजनीतिक विज्ञापन के मामले में फेसबुक अन्य कंपनियों की तुलना में काफी आगे है। हाल ही में भाजपा और फेसबुक के कनेक्शन के लेकर भारत समेत दुनिया के तमाम देशों में फेसबुक हलचल देखने को मिला है। 

8 अप्रैल को भाजपा की आईटी सेल घोषणापत्र जारी होते ही उससे जुड़े कंटेंट (वीडियो, टेक्स्ट, ग्राफिक्स) सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म्स (व्हाट्सऐप, ट्विटर, फेसबुक) पर डालने के लिए पूरी तरह तत्पर थी। वहीं कांग्रेस की सोशल मीडिया टीम भी 7 अप्रैल की शाम से ही अलर्ट पर थी। अगले दिन भाजपा के घोषणापत्र की खामियों और अपनी पार्टी के घोषणापत्र से उसकी तुलना से जुड़े कंटेंट को सोशल प्लेटफॉर्म्स पर शेयर और प्रमोट करना है।

जबकि साल 2014 के लोकसभा चुनाव में देश में केवल भाजपा ऐसी पार्टी थी, जिसने देशभर में चुनाव के प्रचार के लिए सोशल मीडिया का प्रमुखता से इस्तेमाल किया था। लेकिन 2019 आते-आते न केवल अन्य राष्ट्रीय बल्कि क्षेत्रीय पार्टियां भी सोशल मीडिया के महत्व को समझकर अपनी रणनीति और संसाधनों के साथ मैदान में थीं। और सोशल मीडिया पर भाजपा को टक्कर भी दे रही थीं। 

बावजूद इसके सोशल मीडिया के किसी भी प्लेटफॉर्म पर भाजपा की पहुंच अन्य राजनैतिक पार्टियों से ज्यादा है। लोकसभा चुनाव के लिए बनाई गई भाजपा की आईटी और सोशल मीडिया कैंपेन कमेटी के सदस्य खेमचंद शर्मा के मुताबिक – “सोशल मीडिया पर भाजपा की पहुंच का ही असर था कि “मैं भी चौकीदार’ अभियान को दुनिया भर में 60 करोड़ से ज्यादा इंप्रेशन मिले।” इस अभियान के तहत प्रधानमंत्री की देखा देखी 20 लाख से ज्यादा भारतीयों ने अपने ट्विटर हैंडल पर नाम के आगे चौकीदार शब्द जोड़ लिया था। दो दिन तक ‘#मैं भी चौकीदार’ हैशटैग ट्विटर पर ग्लोबली ट्रेंड करता रहा।

चीन मसले पर भक्तों में भी माना कि मोदी ने झूठ बोला, और जन्मदिन पर ‘राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस’ का टॉप ट्रेंड करना

गांव में एक कहावत है कि – “झूठ की उम्र ज़्यादा नहीं होती।” लद्दाख में चीनी सेना के घुसपैठ पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जियते माछी निगलना उनके भक्तों को भी हजम नहीं हुआ। पाकिस्तान का नाम लेकर शेर की तरह दहाड़ने वाले मोदी का चीन का नाम लेने से कतराना और भीगी बिल्ली बने रहना भक्तों को नागवार गुज़रा। एलएसी पर सही जानकारी लोगों को सोशल मीडिया (यूट्यूब और फेसबुक पर चलने वाली) वैकल्पिक मीडिया से मालूम चला।

लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों की पीड़ा के फोटो और वीडियो लोगों तक सोशल मीडिया से पहुँचे। बेरोजगारी जैसे मुद्दे पर लोग-बाग सोशल मीडिया के जरिए अब सरकार को घेरने लगे हैं। लोग ट्विटर पर सीधे प्रधानमंत्री से सवाल पूछने लगे हैं। जन्मदिन के दिन तो युवा आबादी ने नरेंद्र मोदी की बर्थडे पार्टी पर पानी ही फेर दिया। इसीलिए नरेंद्र मोदी अब सोशल मीडिया को कंट्रोल करने के लिए रेगुलेशन चाहते हैं। एक कंपनियों द्वारा इंटरनेट का दाम बढ़ाकर लोगों के पहुँच से दूर होना और दूसरे कानून दिशा-निर्देश बनाकर।

(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)

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