Wednesday, April 24, 2024

ज़रूरत फिजिकल डिस्टेंसिंग की है न कि सोशल डिस्टेंसिंग की

सोशल डिस्टेंसिंग एक विभाजन कारी शब्द है जिससे बचा जाना चाहिए। यह समाज को ही एक दूसरे से अलग-अलग तरह से रहने के लिये प्रेरित और उसे औचित्यपूर्ण साबित करने लगता है। हमारा समाज एक लंबे समय तक छूआछूत जो एक प्रकार की सोशल डिस्टेंसिंग ही है को मानता रहा है। जाति आधारित गांवों के विभिन्न टोले इसी लंबे समय से चले आ रहे सोशल डिस्टेंसिंग के ही उदाहरण हैं। आज भी यह प्रथा और परंपरा देश में विद्यमान है। दुनिया भर में रंग, नस्ल और जातिगत भेदभाव रहे हैं।

हालांकि यह रूढ़ियां अब बहुत कम हो गई हैं जिनका कारण आर्थिक बदलाव की बयार अधिक है। जैसे-जैसे शिक्षा, आर्थिक हालात और समय बदलते रहे यह सामाजिक भेदभाव भी बदलता रहा। अब भी है पर वह बहुत कम है और अधिसंख्य इसे मान्यता भी नहीं देते हैं। देश में भी ऐसी कुरीतियों को लेकर लंबे और प्रभावी सुधार आंदोलन भी चले हैं।

सोशल डिस्टेंसिंग शब्द विश्व स्वास्थ्य संगठन से आया है। इसका अर्थ कोविड 19 का वायरस जो मूलतः छींक, खासी, बलगम और थूक से संक्रमित होता है से बचाव करना है। 

भौतिक संपर्कों से ऐसा कोई संक्रमण न फैल जाए इसलिए अलग- थलग रहने की बात कही गयी है। सामाजिक मेलजोल इस घातक वायरस से संक्रमण का एक आधार देता है। हम एक सामाजिक जीवन जीते हैं, जो घर के बाहर चाहे कार्यस्थल हो या बाजार हाट या आमोद प्रमोद के स्थल या खानपान की जगहें सामान्य रूप से विचरण करते रहते हैं, तो इस आपदा से आसानी से संक्रमित भी हो सकते हैं। इसी संभाव्य संक्रमण को बचाने और इससे बचने के लिये सोशल डिस्टेंसिंग की बात की गयी।

इसका लाभ भी मिला। संक्रमण थोड़ा नियंत्रित भी हुआ। लेकिन जब तक टेस्टिंग में तेजी न आये और अधिक से अधिक महत्वपूर्ण स्थानों विशेषकर हॉट स्पॉट के बिंदु की सघन टेस्टिंग न हो जाए तब तक यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता है कि अब यह आपदा नियंत्रण में हैं। लॉक डाउन इस आपदा का निरोधक उपाय है न कि उपचारात्मक। हालांकि सरकारें अपने-अपने स्तर से जो भी कर पा रही हैं कर रही हैं, पर फिलहाल जब स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर बहुत सुगठित न हो तब तक तो लॉक डाउन और फिजिकल डिस्टेंसिंग ही एक उपाय है जिससे इस आपदा से बचा जा सकता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी अंततः सोशल डिस्टेंसिंग शब्द के निहितार्थ को समझा और उसे आधिकारिक रूप से बदल कर सोशल डिस्टेंसिंग से फिजिकल डिस्टेंसिंग यानी सामाजिक दूरी शब्द के प्रयोग करने के बजाय भौतिक दूरी शब्द के प्रयोग की बात कही है। संगठन ने अपनी बात स्पष्ट करते हुये कहा है कि इस दूरी का उद्देश्य लोगों को एक दूसरे से भौतिक रूप से मिलने से रोकना है और वह भी एक उद्देश्य से और महज कुछ हफ़्तों के लिये ताकि इस महामारी के संक्रमण से बचा जा सके। लेकिन इसका आशय यह बिल्कुल भी नहीं है कि सामाजिक दूरी को समाजों में दूरी समझ लिया जाए। जब कुछ लेखकों ने इस पर आपत्ति की तो संगठन ने सोशल डिस्टेंसिंग की जगह फिजिकल डिस्टेंसिंग शब्द का प्रयोग किया। 

सोशल डिस्टेंसिंग से फिजिकल डिस्टेंसिंग शब्द के बदलाव का स्वागत करते हुए मैसाचुसेट्स से यूएस कांग्रेस की एक सदस्य आयन्ना प्रेस्ली ने कहा, 

” मैं यह कहना चाहूंगी कि जो कुछ भी हम कर रहे हैं वह एक प्रकार की फिजिकल डिस्टेंसिंग है, न कि सोशल डिस्टेंसिंग। हम आपस में एक दूसरे से भौतिक रूप से दूर इसलिए हो रहे हैं जिससे हम इस घातक वायरस से संक्रमित होने से बचे रह सकें। लेकिन हम आधुनिक संचार साधनों के द्वारा सामाजिक रूप से एक दूसरे से बेहतर संपर्क में भी हैं, और यथासंभव तथा यथाशक्ति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह भी कर रहे हैं।” 

निश्चित रूप से, लोग घरों में बैठ कर बिना एक दूसरे से मिले-जुले अपना काम भी कर रहे हैं। अपने-अपने घरों में ही बैठ कर छोटी छोटी फिल्में बन रही हैं। लोग सोशल मीडिया पर लाइव आकर अपनी-अपनी बात कह रहे हैं। होम डिलीवरी भी इस सामाजिक दूरी को खत्म कर चुकी है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने ऑनलाइन मुकदमों की सुनवाई शुरू की है। प्रधानमंत्री और उनकी विभिन्न गोष्ठियां वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के द्वारा हो रही हैं। भौतिक दूरियां अब अप्रासंगिक हो चुकी हैं और सभी दस्तावेज या फ़ोटो या अन्य चीजें इस आभासी दुनिया का एक अनिवार्य अंग बन गयी हैं। दुनिया अब चपटी हो रही है। यह संचार क्रांति का एक जबरदस्त प्रभाव है। 

अमेरिका के स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान विभाग के एक प्रोफेसर, जमील जकी कहते हैं कि हमें इस भेदभाव फैलाने वाले शब्द सोशल डिस्टेंसिंग से दूर ही हो जाना चाहिए। वे एक सवाल-जवाब कार्यक्रम में भाग ले रहे थे और उन्होंने उसमें कुछ सवालों के जवाब देते हुए कहा कि, 

” मेरा मानना है कि हमें, अब एक नए सिरे से सोचना होगा। यह सामाजिक दूरी शब्द ही गलत अर्थ ध्वनित कर रहा था। हम एक बदलते समाज में एक दूसरे से भौतिक रूप से दूर रहते हुए भी, सामाजिक निकटता बनाये रख सकते हैं। सामाजिक दूरी इस वायरस के संक्रमण को रोकने के लिये लाया गया है, लेकिन मूलतः एक सामाजिक प्राणी और समाज आधारित जीवन जीते रहने के कारण यह सम्भव नहीं है कि हम सामाजिक दूरी के किसी समाज मे रहें। “

अमेरिका की ही नॉर्थ-ईस्टर्न यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस और पब्लिक पॉलिसी के प्रोफेसर डेनियल अल्ड्रिच शुरू से ही ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ शब्द के इस्तेमाल पर ऐतराज जताते रहे हैं। अपने शोधपत्र में प्रोफेसर डेनियल अल्ड्रिच ने युद्ध, आपदा और महामारियों से उबरने में सामाजिक संबंधों की भूमिका पर एक शोध किया है। उनका कहना है कि ‘आपातकाल में उन लोगों के बचने की संभावना ज्यादा होती है जो सामाजिक तौर पर सक्रिय होते हैं। इस पत्र में कहा गया है कि बचने वालों में से एक बड़े तबके का कहना था कि वे इसलिए बचे क्योंकि किसी ने सही वक्त पर आकर उनके दरवाजे पर दस्तक दी या फिर समय रहते उन्हें फोन कर चेता दिया। यानी कि इस तरह के लोगों को जल्दी और आसानी से मदद मिल सकती है।

आपदा चाहे वह युद्ध की हो, या दैवीय या किसी महामारी के कारण वह अकेलेपन में अवसाद की ओर ठेल देती है। इसी लॉक डाउन में हम में से जो अपने अपने घरों में हैं और जो भी सुविधा उनके पास है, के साथ जी रहे हैं तो वे उनसे बेहतर मनोदशा में होंगे जो भले ही किसी बेहतर भौतिक सुविधाओं वाले घरों में अकेले बंद हैं। लॉक डाउन के कारण अवसाद वाली खबरें भी बहुत आ रही हैं। कभी किसी के घर में आपसी संबंधों का तनाव तो कभी अभाव का तनाव जो इस थोपे गए एकांत में अक्सर उभर कर आ जाता है और एक अवसाद का कारण बनता है। 

फिर ऐसे अवसाद से दूर रहने का क्या उपाय है ? लोग एक दूसरे से फिजिकल रूप से दूर रहने के बावजूद संचार माध्यमों के द्वारा सामाजिक दूरी को कम कर सकते हैं। आज के संचार माध्यम केवल बोलने और सुनने के ही उपकरण नहीं रह गए हैं बल्कि इस मल्टीमीडिया के दौर में यह फोटो, दस्तावेज, संगीत शिक्षा, या सूचना के जितने भी आयाम हो सकते हैं के साथ सामाजिक दूरी को कम से कम करने में सक्षम हैं। यह भी एक विडंबना है कि हम जिस तकनीक और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को समाज का मेलमिलाप तोड़ने के लिये जिम्मेदार मानते थे वे ही अब सामाजिक संबंधों की ऊष्मा को बचाये हुए हैं। 

भारतीय समाज का आर्थिक रूप से निचला तबका न तो एक आदर्श फिजिकल डिस्टेंसिंग रख सकता है और न ही उसके सामने अकेलेपन का ही कोई अवसाद है। उसके सामने असल समस्या है, भूख की, रोजगार की, जीवन जीने की, और अपने परिवार से दूर रहने की। मैं उन प्रवासी मज़दूरों की बात कर रहा हूँ जो देश के विभिन्न औद्योगिक नगरों में अपने घर परिवार से सैकड़ों किलोमीटर दूर लॉक डाउन में है। एक एक कमरे में कई-कई कामगार एक साथ रहते हैं। उनसे किसी भी प्रकार की फिजिकल डिस्टेंसिंग की बात करना हास्यास्पद है। ऊपर से, वे न घर जा सकते हैं और न ही उनके पास कोई काम है।

जैसे भयावह संकेत मिल रहे हैं उसे देखते हुए यह भी अभी कहा जा रहा है कि भविष्य में उन्हें काम मिलेगा भी कि नहीं। घर परिवार जो वे अपने गांव छोड़ कर आये हैं वे भी उन्हीं की कमाई के पैसे पर जीवन यापन कर रहे होंगे। ऐसे अभाव में पड़े मनुष्य के सामने, तमाम भौतिक सुख सुविधाओं के बीच एकान्त जन्य अवसाद नहीं जन्मता है बल्कि भविष्य के लिये एक चिंता उत्पन्न होती है जो सबसे कठिन सवाल सामने खड़ा कर देती है कि कल क्या होगा ?  इसका उत्तर आज तक लोग अनादि काल से खोजते आये हैं और यह प्रश्न का अंकुश आज भी तीरे नीमकश की तरह समाज को कचोट रहा है। 

ऐसी अनेक छोटी-बड़ी समस्याएं हैं जिनके बारे में सरकार को सोचना चाहिए था कि समाज के इस तबके को कैसे लॉक डाउन के दौरान रखा जा सकता है। इसीलिए इक्कीस दिनी लॉक डाउन के दूसरे ही दिन लाखों कामगार दिल्ली सहित अनेक औद्योगिक नगरों की सड़कों पर अपनी आंखों में एक अशनि संकेत लेकर उतर आए। वह समस्या हल हुई तो अभी केवल, दो दिन पहले सूरत में ऐसे ही प्रवासी कामगारों का गुस्सा फूट पड़ा और पुलिस को बल प्रयोग करना पड़ा। अब यह लॉक डाउन दो सप्ताह के लिये और बढ़ा दिया गया है। हालांकि सरकार ने आर्थिक मामलों के बारे में सोचना शुरू कर दिया है पर पहले से ही बिगड़ी आर्थिक स्थिति पर कोविड 19 की मार बहुत ही गहरी पड़ेगी, और सरकार कैसे इसे हल करेगी यह तो भविष्य ही बता पायेगा। 

हमारे समाज का एक वर्ग अक्सर अतीतजीवी होता है। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि अतीत में कभी कुछ भी अच्छा हुआ ही न हो, और अतीत की बात की ही जानी चाहिए, पर समाज और इतिहास की गति स्वाभाविक रूप से प्रगतिशील होती है और अतीतजीविता अगर समाज को प्रतिगामी बनाती है तो ऐसी अतीतजीविता से दूर ही रहना चाहिए। हम समाज के सामाजिक और अन्तर सामाजिक भेदभाव की मनोवृत्ति को छोड़ कर आगे बढ़ गए हैं। अब उस शब्द से फिर छुआ छूत और भेदभाव का कोई  औचित्य ढूंढ लिया जाए और उसे एक वैज्ञानिक कलेवर दे दिया जाए। इससे बेहतर है कि हम एक उचित शब्द ढूंढ लें जो न केवल वैज्ञानिक रूप से उचित अर्थ अभिव्यक्त करता हो बल्कि वह समाज के प्रगतिवादी स्वरूप के भी अनुरूप हो। इसलिए सामाजिक दूरी खत्म हो और जब तक यह संक्रमण एक आपदा के रूप में विद्यमान है, फिजिकल डिस्टेंसिंग या भौतिक दूरी बनाए रखी जानी चाहिए। 

( विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफ़सर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

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