खाकी की भेष में छुपे अपराधियों को कब मिलेगी सजा

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हमारा संविधान कहता है कि ‘जब तक किसी व्यक्ति पर किसी सक्षम न्यायालय द्वारा अपराध सिद्ध नहीं हो जाता, उनसे अपराधी की तरह व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए, उनसे क्रूरतापूर्ण व्यवहार बिल्कुल नहीं होना चाहिए’, लेकिन भारतीय कथित लोकतंत्र में इसके ठीक उल्टा होता है। उदाहरणार्थ केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री के अनुसार पिछले तीन वर्षों में पुलिस हिरासत में 1189 लोगों को अकथनीय यंत्रणा दी गई, जिससे 348 लोगों की मौत हो गई। इसके अतिरिक्त नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार पिछले 10 सालों में पुलिस हिरासत में 1004 लोगों की मौत हुई है, जिसके लिए यह तर्क दिया गया कि इन मौतों में 40 प्रतिशत लोग स्वाभाविक मौत या बीमारी से मरे। 29 प्रतिशत लोग आत्महत्या कर लिए। मानवीय संवेदनाओं के आधार पर यहां कई प्रश्न उभर उठते हैं कि पुलिस हिरासत में स्वाभाविक मौत या बीमारी से कोई क्यों मरेगा?

भारतीय पुलिस द्वारा थर्ड डिग्री टॉर्चर भी तो कुख्यात है। पुलिस खुद जब मान रही है कि उसकी हिरासत में 29 प्रतिशत लोग आत्महत्या कर लेते हैं तो जाहिर सी बात है पुलिस की बर्बरता और क्रूरता से 29 प्रतिशत लोग आत्महत्या कर ले रहे हैं, पुलिस हिरासत में अपनी मौत कोई नहीं मरता यह बिल्कुल सफेद झूठ है, अपितु 40 प्रतिशत लोग अत्यधिक शारीरिक चोट मसलन अत्यधिक रक्तश्राव व गंभीर अंदरूनी चोट की वजह से मरते हैं। इसके अलावे इस देश में अपने राजनैतिक विरोधियों या खुन्नस निकालने के लिए असली अपराधियों की जगह किसी निरपराध, गरीब को गोली मारकर हत्या कर देना भारतीय पुलिस का एक और बीभत्स व क्रूरतम् चेहरा है, जिसको फर्जी एनकाउंटर कहा जाता है। राष्ट्रीय मानवाधिकार के अनुसार पिछले 12 साल में इस देश में कुल 1241 फर्जी एनकाउंटर करने की उन्हें शिकायत मिली, जिसमें अकेले उत्तर प्रदेश से 455 शिकायतें मिलीं। क्या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री व उत्तर प्रदेश पुलिस इतने फर्जी एनकाउंटर करके उत्तर प्रदेश राज्य से अपराध खत्म करने में कामयाब हो गए हैं? कतई नहीं।

लेकिन इतने निरपराध, बेकसूर, गरीबों की निर्ममतापूर्वक हत्या जरूर कर दी गई। यह वही उत्तर प्रदेश है, जहां मेरठ के हासिमपुरा नामक जगह से जो इस देश की राष्ट्रीय राजधानी में स्थित संसद से मात्र 80 किलोमीटर दूर है, 22 मई 1987 को पीएसी के एक ट्रक,जिसका नंबर यूआरयू-1493 था, 50 निर्दोष मुस्लिम नौजवानों को शक के आधार पर उस ट्रक में बैठाकर, जिसमें थ्रीनॉट थ्री रायफलों से लैश 19 जवान पहले से ही तैयार बैठे थे,उस ट्रक को शाम अंधेरा होने पर गंग नहर पर ले जाकर 42 नौजवानों को बारी-बारी से उतारकर गोलीमार कर गंगनहर के पानी में फेंक दिया गया। कुछ को ट्रक में ही गोली मार दी गई और उन्हें गाजियाबाद ले जाकर हिंडन नदी में फेंक दिया गया। उस घटना को हुए आज पूरे 34 वर्ष बीत गए, परन्तु आज तक उन पीएसी के हत्यारों को कोई सजा नहीं हुई।

अब फिर प्रश्न उठता है कि इन दोषी पुलिसवालों को बगैर दोष सिद्ध हुए ही इतने लोगों को मारने पर दंड क्यों नहीं दिया जाता। इसका सीधा सा उत्तर है, यहाँ का कानून इतना उलझा हुआ है कि यहाँ गरीब, दुःखी और कमजोर लोगों की गर्दन तुरंत मरोड़ दी जाती है ,फाँसी पर लटका दी जाती है। लेकिन ताकतवर, रसूखदार लोगों का ये कानून कुछ भी नहीं बिगाड़ पाता। केन्द्र सरकार यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लेती है कि किसी भी राज्य की पुलिस और कानून व्यवस्था राज्य का मामला है। अब पुलिस के दोषी अफसरों पर मुकदमा चलाने के लिए उस संबन्धित राज्य सरकार से पूर्वानुमति लेनी पड़ती है।

वास्तविकता यह है कि पुलिस द्वारा किया गया कोई भी कुकृत्य मसलन सामूहिकरूप से किए गये एनकाउंटर आदि में उस राज्य की सत्तारूढ़ सरकार व उसकी पूरी सरकारी मशीनरी पूरी तरह से संलिप्त होती है, कोई भी एनकाउंटर पुलिस स्वतंत्र रूप से नहीं करती, अपितु उस राज्य के मुखिया का इशारा या गुप्त निर्देश होता है। उस स्थिति में वह सरकार अपने किसी भी पुलिस अफसर के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति क्यों और कैसे दे सकती है? इसीलिए ये हत्यारे पुलिस वालों का आज तक कभी भी कोई बाल-बाँका तक नहीं होता। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक बदनुमा दाग है,परन्तु यही वास्तविकता और कठोर सत्य भी है।

(निर्मल कुमार शर्मा पर्यावरण संरक्षक हैं और आजकल गाजियाबाद में रहते हैं।)

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