ऋण प्रतिभूतियों की खरीद-फरोख्त के रिजर्व बैंक के खेल से नहीं होगा अर्थव्यवस्था में कोई सुधार

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रिजर्व बैंक ने 23 दिसंबर से ऑपरेशन ट्विस्ट शुरू किया। इसके तहत रिजर्व बैंक अल्पकालिक अर्थात एक वर्ष तक की ऋण प्रतिभूतियां बेच रहा है और दीर्घकालिक अर्थात 10 वर्षीय ऋण प्रतिभूतियों को खरीद रहा है। 23 दिसंबर को रिजर्व बैंक ने दस हजार करोड़ रुपये की दीर्घकालिक प्रतिभूतियां खरीदी किंतु इतने ही लक्ष्य के बावजूद वह 6 हजार 8 सौ करोड़ रुपये की अल्पकालिक प्रतिभूतियां ही विक्रय कर पाया क्योंकि अन्य बोली लगाने वाले रिजर्व बैंक द्वारा घोषित मूल्य को ऊँचा मान रहे थे जिससे उन्हें अपनी लगाई रकम पर आशा से कम ब्याज प्राप्त होता। 30 दिसंबर को फिर यही स्थिति दोहराई गई। रिजर्व बैंक आगे भी इस खरीद बिक्री को जारी रखने वाला है।

रिजर्व बैंक इस प्रकार की दोहरी खरीद बिक्री कर क्यों रहा है? असल में अभी एक ओर तो अल्पकालीन मुद्रा बाजार में नकदी आपूर्ति माँग से अधिक है, जबकि दीर्घकालिक ऋण के क्षेत्र में सरकार और रिजर्व बैंक के जी तोड़ प्रयासों के बावजूद ब्याज दरें गिर नहीं पा रही हैं जिससे नकदी की कमी से जूझ रही सरकार के सामने भारी संकट खड़ा हो गया है। इन दोनों तथ्यों को अलग-अलग विस्तार से समझना जरूरी है।

पिछले तीन महीने से मुद्रा बाजार के अल्पकालिक छोर पर लगभग तीन लाख करोड़ रुपये अतिरिक्त उपलब्ध हैं। स्थिति यह है कि नकदी प्रबंधन के लिए बैंकों व अन्य वित्तीय संस्थानों द्वारा लिये दिये जाने वाले एक दो दिनी ऋणों पर ब्याज दर रिजर्व बैंक के रिपो रेट 5.15% से भी नीचे चले जाने की स्थितियां आ चुकी हैं। इसकी मूल वजह है बिक्री की कमी से औद्योगिक पूँजीपतियों ने अपना उत्पादन स्तर व उत्पादित माल का भंडारण कम किया है। इससे इस कार्य में प्रयुक्त चालू पूँजी की माँग कम हुई है जो अल्पकाल के लिए नकद उधार के तौर पर ली जाती है और बिक्री की रकम से वापस बैंक में जमा की जाती है। साथ ही फिलहाल गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों की संकटग्रस्त स्थिति के कारण बैंक उन्हें भी अल्पकालीन ऋण देने में आश्वस्त महसूस नहीं करते।

उधर पिछले कई वर्षों से सरकार और औद्योगिक पूँजीपति दोनों ही ब्याज दरों को कम करने के लिए भारी दबाव बनाये हुए हैं। औद्योगिक पूँजीपति ब्याज दर कम चाहते हैं क्योंकि जड़ पूँजी (जमीन, इमारत, मशीनों, तकनीक) में भारी पूँजी निवेश के मुताबिक बिक्री में वृद्धि न होने से उनकी प्रति इकाई पूँजी पर लाभ की दर पिछले दशक में तेजी से गिरी है जबकि यह पूँजी निवेश ऋण पूँजी से किया गया था। लाभ दर कम होने से उनके लिए ऋण पर उच्च ब्याज दर चुकाना मुमकिन नहीं है और बैंक ऋण डूब रहे हैं अर्थात एनपीए हो रहे हैं। वहीं मंदी के चलते सरकार की कर व गैर कर आय भी बजट अनुमान से काफी कम है और सरकार को अपने या सार्वजनिक संस्थानों के नाम पर भारी कर्ज लेना पड़ रहा है। अतः दोनों की जरूरत ब्याज दरों में कटौती है।

अतः ऑपरेशन ट्विस्ट के जरिये रिजर्व बैंक अल्पकालिक ऋण प्रतिभूतियां बेच कर अतिरिक्त नकदी को बाजार से समेट रहा है ताकि नकदी की आपूर्ति कम होने से ब्याज दर बढ़ जाये। दूसरी ओर वह दीर्घकालिक ऋण प्रतिभूतियां खरीद बाजार में नकदी प्रसारित कर रहा है। इससे दीर्घकालिक ऋण की माँग कम हो जायेगी और उस पर ब्याज दर कम हो सकेगी। तुरंत में ऐसा प्रभाव हुआ भी है तथा दस वर्षीय ऋण पर ब्याज दर पिछले सप्ताह के 6.87% से कम होकर 23 दिसंबर को 6.57% ही रह गई। 

किंतु क्या इस ट्विस्ट से ब्याज दरें स्थाई तौर पर कम हो सकेंगी? ब्याज दर अंत में एक व्यक्ति द्वारा पूँजी के प्रयोग का अधिकार दूसरे को देने के बदले वसूली जाने वाली कीमत है। अतः अन्य सभी कीमतों की ही तरह यह कीमत भी बाजार में माँग पूर्ति के संतुलन से ही तय होती है। अभी पूरे सरकारी तंत्र का वित्तीय घाटा अनुमानों के अनुसार जीडीपी का लगभग 10% पहुंच गया है, और उसकी ऋण आवश्यकता बढ़ती जा रही है। दूसरी ओर बैंक में जमा के द्वारा पूँजी उपलब्ध कराने वाले घरेलू गृहस्थ क्षेत्र की बचत पिछले सालों में तेजी से गिरी है क्योंकि आय बढ़ नहीं रही है और उसकी तुलना में खर्च, खास तौर पर शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन पर बढ़ती महँगाई के चलते तेजी से बढ़ा है।

परिणाम यह है कि गृहस्थ क्षेत्र की सम्पूर्ण बचत (जीडीपी की 7%) अभी सरकारी क्षेत्र की आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर पा रही है जबकि निजी क्षेत्र की ओर से भी ऋण की कुछ अतिरिक्त माँग है। इसलिये रिजर्व बैंक द्वारा पाँच बार अपनी ब्याज दर घटाने से भी वास्तविक बाजार में ब्याज दरें कम नहीं हो रही हैं। इस मूल समस्या के समाधान तक यह ट्विस्ट भी ब्याज दरों को कम करने में सफल होगा इसमें शक है।

वहीं रिजर्व बैंक जो मुद्रा प्रसार कर रहा है वह नये नोट छापने के समान ही है। कहा जाये तो सरकार के खर्च को चलाने के लिए रिजर्व बैंक मुद्रा प्रसार कर रहा है। परंतु बिना उत्पादन वृद्धि के मुद्रा प्रसार आम जनता पर चोर दरवाजे से लगाये गए टैक्स के समान ही है क्योंकि यह मुद्रा के मूल्य को कम करता है। इससे व्यक्तियों की वास्तविक आय कम हो जाती है। अतः यह पहले से ही संकुचित माँग की समस्या से ग्रस्त भारतीय अर्थव्यवस्था में बाजार माँग को और भी संकुचित कर संकट को और भी गहरा करने का जोखिम भरा कदम सिद्ध हो सकता है। हालाँकि रिजर्व बैंक का मानना है कि अल्पकालिक मुद्रा संकुचन दीर्घकालिक मुद्रा प्रसार के प्रभाव को संतुलित कर देगा किंतु यह अति आशावाद ही अधिक प्रतीत होता है।

(मुकेश असीम का यह लेख उनके फेसबुक से साभार लिया गया है।)

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