लोकतांत्रिक राजनीति के ‘दुष्टीकरण’ और ‎‘लुच्चीकरण’ की ‎‎‘राजतांत्रिक राजनीति’ की फांस

भारत इन दिनों विश्वास और अभ्यास के सवाल से जूझ रहा है। चतुर्दिक टकराव से घिर रहा है। रोजी-रोजगार के लिए टुकुर-टुकुर ताकते लोग टकराव के टंकार से दुखी हैं। तरह-तरह के चक्र घूम रहे हैं। एक ऐसा क्रम विकसित हो रहा जीवन में कि बस तरह-तरह के चक्कर में रात-दिन इधर-उधर होता रहता है, जनसाधारण। आखिर इस चकराव से आदमी बाहर निकले तो कैसे निकले! अपनी बुनियादी जरूरतों में कितना कतरब्योंत करें? क्या चकरब्योंत करे?
धीरज इतना धीर कभी न हुआ था। नीति में गति है, दिशा नहीं। दिशाहीन गति नीति को शक्ति के ठीहा पर पटक देती है।

निराशा में आशा की एक किरण कहीं से आती है, मन हुलस जाता है। चार दिन में आशा की किरण किधर गायब हो जाती है, पता ही नहीं चलता है। फिर एक नया पेच। पेच यानी सीधी दिशा का किसी-न-किसी अनिवार्य घुमाव में पड़ जाना। चुनाव-दर-चुनाव घुमाव-दर-घुमाव में पड़कर चलते रहो लेकिन पहुंचो कहीं नहीं, तय की गई दूरी शून्य! ऐसा नहीं कि यह सब पहले नहीं होता था, होता था लेकिन ऐसा होने की बारंबारिता इतनी तेज नहीं थी। पश्चिम की काल गति का बोध रैखिक है। पश्चिम की कार्य गति भी रैखिक होती है। भारत की काल गति का बोध चाक्रिक है। काल चक्र में स्वभावतः कार्य गति भी चाक्रिक है। काल चक्र की गति न्यारी! भाग्य चक्र की गति तो उस से भी न्यारी! ओह, चारो ओर ‘आयो घोष बड़ो व्यौपारी’! असल में सवाल, नीयत का है।

चुनावी चंदा (Electoral Bonds) ‎का मामला सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक प्रयास से कुछ हद तक संभलते हुए भारत आगे बढ़ने के लिए आशा की किरण देखने लगा। भारतीय स्टेट बैंक ने चुनाव आयोग को संबंधित ब्यौरा सौंप दिया है। लेकिन फिर नया पेच! ऐसा माना रहा कि जानकारी पूरी नहीं, असल मामला सामने नहीं आयेगा। असल मामला है क्या! असल मामला है, नीयत का। नीयत सामने है। आम नागरिकों को नीयत का पता है। नीयत कि बड़ों के चंगुल से बाहर कुछ नहीं है। आम नागरिक के हाथ में है, वोट सिर्फ वोट। वोट पर भी हजार संकट। आम नागरिक के वोट के मामले में भी बड़े लोग कहां हैं निष्कपट! वोट ‘खरीद’ लो, न हो तो फिर वोट पाने वाले जनप्रतिनिधियों को ‘खरीद’ लो। अन्य व्यापार में पिछड़ गये तो क्या, वोट व्यापार में हमारा कोई मुकाबला नहीं! सामाजिक अन्याय, राजनीतिक अन्याय किसिम-किसिम के अन्याय!

स्वतंत्र, निष्पक्ष, भय एवं दबाव से मुक्त वातावरण में चुनाव संपन्न करवाने का काम केंद्रीय चुनाव आयोग का है। समयानुकूल सवाल यह है कि खुद केंद्रीय चुनाव आयोग कितना स्वतंत्र, निष्पक्ष, भय एवं दबाव से मुक्त है? आम आदमी अनिश्चय में है। कोई निश्चित जवाब नहीं है। स्पष्ट है, निश्चित जवाब है। सरकार के पास है। सरकारी विचार इस मामला में बिल्कुल स्पष्ट है। कुछ लोगों को भगवान पर भी विश्वास नहीं है। नरेंद्र मोदी भगवान हैं। जिन्हें भगवान पर विश्वास नहीं है, उन्हें नरेंद्र मोदी पर विश्वास नहीं तो यह उन की समस्या है। उनकी मदद भगवान भी नहीं कर सकते हैं! जनसाधारण सावधान है!

केंद्रीय चुनाव आयोग में इस समय एक ही आयुक्त हैं, मुख्य चुनाव आयुक्त, राजीव कुमार। चुनाव आयुक्त के दो पद रिक्त हैं। सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था के अनुसार प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष (या सब से बड़े विपक्षी दल के नेता) और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ‎की तीन सदस्यीय चयन समिति बहुमत के आधार पर चयनित नाम की संस्तुति महामहिम राष्ट्रपति के पास नियुक्ति के लिए भेजे जाने का प्रावधानों किया गया था। सुप्रीम कोर्ट की यह व्यवस्था संसद के द्वारा इस मामले में कानून बनाने तक के लिए की गई थी।

सुप्रीम कोर्ट का यह मानना था कि स्वतंत्र, निष्पक्ष, भय एवं दबाव से मुक्त वातावरण में चुनाव संपन्न करवाने के लिए चुनाव आयुक्त को खुद स्वतंत्र निष्पक्ष, भय एवं दबाव से मुक्त होना जरूरी है। जिस तेजी से सरकार ने अपने सचिव स्तर के अधिकारी की स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति मंजूर करते हुए, महामहिम राष्ट्रपति के पास संस्तुति भेज दी और कुछ ही घंटों में नियुक्ति की सभी औपचारिकताएं पूरी कर अरुण गोयल को चुनाव आयुक्त बनाया गया। इस तेजी पर शंका व्यक्त करते हुए भी सुप्रीम कोर्ट ने उनकी नियुक्ति पर कोई आपत्ति नहीं की। लेकिन वे खुद इस्तीफा देकर चले गए। कारण होंगे या होगा, बस देश कतो पता नहीं है।

स्वतंत्र निष्पक्ष, भय एवं दबाव से मुक्त चुनाव ‎आयुक्त की नियुक्ति में पारदर्शिता, विश्वसनीयता, निष्पक्षता और स्वतंत्रता सुनिश्चित किये जाने को जरूरी समझते हुए अपनी व्यवस्था दी थी। सुप्रीम कोर्ट की यह व्यवस्था तब तक के लिए थी जब तक संसद कोई कानूनी प्रावधान नहीं करती है। संसद ने कानूनी प्रावधान बना दिया। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की जगह प्रधानमंत्री के द्वारा मनोनीत कोई मंत्री की जगह बन गई। तदनुसार, अभी कि स्थिति में प्रधानमंत्री, एक मंत्री और विपक्ष के नेता की चयन समिति है।

सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयुक्त की में जिस ‘पारदर्शिता, विश्वसनीयता, निष्पक्षता और स्वतंत्रता’ को जरूरी समझा था उसे सुनिश्चित करना सिर्फ सरकार के हाथ यानी प्रधानमंत्री के हाथ में सिमटकर केंद्रित हो गया है। आज चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए बैठक थी। प्रधानमंत्री, विधि मंत्री और विपक्ष के नेता, कांग्रेस सांसद अधीर रंजन चौधरी शामिल हुए। बैठक के बाद अधीर रंजन चौधरी ने अधीर होकर कहा दो सौ बारह लोगों की सूची, इनकी पृष्ठभूमि परखने के लिए समय नहीं, सब कुछ पहले से तय! उन के लिए करने को क्या था! इधर मामला फिर सुप्रीम कोर्ट में, कल सुनवाई की उम्मीद है।

लोकतंत्र का सारा दारोमदार चुनाव पर निर्भर करता है। स्वतंत्र, निष्पक्ष, भय एवं दबाव से मुक्त वातावरण में चुनाव संपन्न करवाना चुनाव आयोग के हाथ में है। चुनाव आयुक्त की नियुक्ति पूरी तरह से सरकार के हाथ में आ जाने के कारण चुनाव आयुक्तों के सरकारी प्रभाव से बचना मुश्किल माना जा सकता है। यह एक असंगत स्थिति है। इस गोचर असंगति को दूर किये जाने की प्रत्याशा में मामला फिर सुप्रीम कोर्ट में न्याय विचार के लिए है। साधु संगत तो छमहिं कोटि अपराध, लेकिन कोटि टका का सवाल तो यह है कि असाधु संगत में पड़े लोकतंत्र का क्या होगा!

ठीक ही कह रहे हैं। नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 नागरिकता देने का कानून है, लेने का नहीं, मतलब नागरिकता छीनने का कानून नहीं है। इतनी भोली तो नहीं है जनता। जो सीढ़ी ऊपर ले जाती है, वही सीढ़ी नीचे भी ले आती है। लोकतंत्र भले ही नारा लगाते-लगाते नारायण बन जाने की संभावना रचता है, ध्यान देने की बात है कि लोक-कंठ‎ का हाहाकार नारायण को भी नर बना देता है।

लोकतंत्र सांप-सीढ़ी का खेल नहीं है। अपनी अवमानना में लोकतंत्र सांप-सीढ़ी का खेल बनाये जाने को बर्दाश्त नहीं करता है। आप सत्ता में हैं, हो सकता है आपका ध्यान अभी इधर न होगा। बाकी लोग सावधान हैं। दक्षिण-पंथी रुझान की वैचारिकी की यही खासियत है। लोकतंत्र अपारदर्शी शीशा हो कर जनसाधारण को उसकी अपनी ही छवि दिखलाता है। अपनी हर दुर्गति के पीछे लोगों को अपना ही चेहरा दिखने लगता है। लोकतंत्र को अपारदर्शी शीशा ‎बनानेवली सजती-संवरती सरकार बिल्कुल निष्कलुष!

हमारी सांस्कृतिक बोध कथाओं में एक बड़ा चतुर प्रसंग है। एक किसान शेर की पकड़ में पड़ गया। वह शेर लोकतांत्रिक तरीके से बना था। शेर ने किसान को कहा, स्वागत है, तुम पूजनीय हो क्योंकि मेरा भोजन भी हो। किसान ने कहा मुझे भी इस बात पर गर्व है कि श्रीमान मुझे अपने ग्रास होने का गौरव प्रदान कर रहे हैं। लेकिन एक समस्या है। समस्या यह है कि एक साधारण शेर मुझे धमकाकर गया है। मेरे इलाके में दूसरा शेर! असंभव। है तो मुझे मिलवाओ। किसान उसे एक अंधा कुआं के पास ले गया, कहा भीतर झांकिए। शेर बोला, भीतर तो कोई नहीं है! है हुजूर, मेरे छोटे भाई को खाकर मजे से सो रहा है और अपने सपनों में मेरा इंतजार कर रहा है। आप एक बार ललकारिए तो सही! शेर ने जैसे दहाड़ लगाई, अपनी ही प्रतिध्वनि से चौंक गया। फिर दहाड़, फिर दहाड़। किसान ने कहा इसे दहाड़ने से पछाड़ने में सफल न होंगे। उस पर झपटिए और खेल खत्म कर दीजिए। शेर झपटकर अंधा कुआं में। किसान ने कहा आपने जिस पारिस्थितिकी तंत्र (Eco System)‎ का जाल फैलाया है, उसी की ईको (Echo प्रतिध्वनि) का असर है।

लेन-देन का मामला इतना सरल और भोला-भाला नहीं होता है। राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (National Register of Citizens NRC)‎ में क्या सभी नागरिकों को अपना ब्यौरा दर्ज नहीं करवाना होगा? नाम दर्ज करवाने के लिए क्या-क्या करना होगा? राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर ( National Register of Citizens NRC)‎ को लेकर कोई भ्रम आम नागरिकों में है तो उसे दूर करना चाहिए, उसी तत्परता से जिस तत्परता से नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 (Citizenship (Amendment) Act, 2019)‎ को लागू करने के खतरों को छिपाने की कोशिश की जा रही है। तात्पर्य यह है कि आम नागरिकों को दुष्चक्र या चकरघिन्नी‎ और रजनीतिक उर्मियों-घुर्मियो ‎ में न उलझाया जाये। जी नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 (Citizenship (Amendment) Act, 2019)‎ नागरिकता देने के लिए है, मामला का एक पहलू है। कुछ दूसरे पहलू के माध्यम से भी समझाया जाना चाहिए। समझाइश में, विरोध करने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का घेराव!

किसान आंदोलन के नेता रामलीला मैदान में और पुलिस अपनी लीला के लिए तैयार! पुलिस न हो तो जीना कितना मुश्किल होगा, इसे हर समझदार आदमी जानता है। पुलिस समाज में शांति व्यवस्था और अमन-चैन के लिए है। आंदोलनकारियों पर हमला के लिए नहीं है। पुलिस ने किसान आंदोलन के आंदोलनकारियों पर हमला किया या शांति व्यवस्था और अमन-चैन बनाये रखने के लिए अतिरेकी बल-प्रयोग किया, यह कौन बतायेगा? अदालत।

लाइव लॉ (Live Law) के अनुसार, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने पाया कि जांच ‎की निष्पक्ष जांच की जरूरत है। इस संबंध में पारित आदेश में, कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश ‎‎(एसीजे) जीएस संधावालिया और न्यायमूर्ति लपिता बनर्जी ने कहा कि “स्पष्ट कारणों से” ‎जांच पंजाब या हरियाणा को नहीं सौंपी जा सकती है। विशेष रूप से, उच्च न्यायालय ने एक ‎तीन सदस्यीय समिति का भी गठन किया जिसमें एक सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय के ‎न्यायाधीश और हरियाणा और पंजाब के एडीजीपी रैंक के दो अधिकारी शामिल किए गए। सरकार ‎को यह पसंद न आया।

हरियाणा सरकार ने पंजाब-हरियाणा सीमा पर 21 फरवरी 2024 को अपनी जान गंवाने वाले ‎प्रदर्शनकारी किसान शुभकरण सिंह के मामले की न्यायिक जांच के संदर्भ में उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती ‎देते हुए एक विशेष अनुमति याचिका दायर कर दी गई है। दुखद है कि लोकतांत्रिक सरकारों की दिलचस्पी “स्पष्ट कारणों”‎ को ‎‎“अस्पष्ट” करने में अधिक होती है! इस रवैया पर क्या कहा जा सकता है? मामला लेन-देन ‎का हो या न्याय पाने का रास्ता इतना सरल नहीं रह गया है!‎

शरणार्थी और घुसपैठिया में निश्चित रूप से अंतर होता है। सब से बड़ा अंतर होता है, शरणार्थी हाथ ऊपर करके नजर के सामने समर्पण की मुद्रा में आता हुआ दिखता है। घुसपैठिया मुट्ठी लहराते हुए नजर बचाकर घात लगाकर आता है। कोई भी संप्रभु राष्ट्र दोनों के साथ एक-सा व्यवहार नहीं कर सकता है। लेकिन धर्म या नस्ल के आधार पर शरणार्थी और घुसपैठिया का हिसाब लगाना भी वैश्विक और मानवीय मानदंडों पर खरा नहीं उतर सकता है। घुसपैठिया के साथ भी किसी सभ्य राष्ट्र का व्यवहार ‘अमर्यादित’ नहीं हो सकता है। शरणार्थी की नागरिकता के सवाल को हल करने के लिए अपने संप्रभु राष्ट्र के नागरिक को दबाव में लेना कहां की बुद्धिमानी है?

मीडिया को प्रभाव में लेकर उसके समर्पित सहयोग से सत्य विलोपन के लिए‎ झूठ के प्रसार, अपप्रचार और कुप्रचार का ऐसा दौर भारत ने पहले कभी नहीं देखा था। जनविद्वेषी बयानबाजी (Hate Speech) की तो बानगी ही क्या? आदर्श जीवन संहिता में जनविद्वेषी बयानबाजी (Hate Speech) की त्रासद अधिकता के कारण ही इस तरह की बयानबाजी से दूर रहने को चुनाव की आदर्श संहिता में रखा गया है।

इस तरह की प्रवृत्ति पहले भी थी, लेकिन यह मुख्य और प्रभावकारी प्रवृत्ति नहीं थी। असल में यह है, अल्पसंख्यकों के ‘तुष्टीकरण’ का होहल्ला मचाकर लोकतांत्रिक राजनीति के ‘दुष्टीकरण’ और ‎‘लुच्चीकरण’ की ‘राजतांत्रिक राजनीति’। इस तरह की ‘राजनीति’ के माध्यम से मतदाताओं के ध्रुवीकरण के बल पर 400 पार जाने का ऐसा दुःस्वप्न पहले कभी नहीं प्रकट हुआ था। आज तो लगता है, संवैधानिक संस्थाएँ भी अपनी कार्रवाइयों में 400 के पार के दुःस्वप्न की ही पालकी ढो रही है।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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