पूंजीवाद में मुनाफ़ा तय करता है युद्ध और संधि

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धरती केवल मिट्टी और पत्थरों का ढेर नहीं है; यह सत्ता, संपत्ति और श्रम के शोषण की अनवरत कहानी है। जब से मनुष्य ने उत्पादन के साधनों पर अधिकार स्थापित करना शुरू किया, तब से युद्ध और व्यापार एक ही सिक्के के दो पहलू बन गए। पहले युद्ध भूमि के लिए लड़े जाते थे, अब वे खनिजों और संसाधनों के लिए लड़े जाते हैं। जो कुछ भी इस धरती के गर्भ में छिपा है, उसे हड़पने की लालसा ने हर नैतिकता को पीछे छोड़ दिया है-कभी धर्म के नाम पर, कभी राष्ट्रवाद के नाम पर, और कभी स्वतंत्रता के नाम पर। पर इन सबके मूल में एक ही उद्देश्य रहा है-लाभ, जिसे मुनाफ़े की अंधी दौड़ ने अंतिम सत्य बना दिया है।

आज यूक्रेन की भूमि पर जो संघर्ष चल रहा है, वह भी इसी कथा का नया अध्याय है। इसे भू-राजनीतिक टकराव के रूप में देखा जाता है, लेकिन असल में यह संसाधनों पर कब्ज़े की लड़ाई है। अमेरिकी और रूसी रणनीतियाँ केवल कूटनीतिक चालें नहीं हैं, बल्कि पूँजी संचय के ऐतिहासिक नियमों का अनुसरण हैं। यूक्रेन की खदानें केवल खनिजों से भरी नहीं हैं, बल्कि यहाँ पूंजीवादी राजनीति का बारूद भी दबा हुआ है।

यूक्रेन की धरती में दफन खनिजों को लेकर कई समझौते हुए, लेकिन असली संघर्ष अब शुरू होगा-इन संसाधनों को निकालने का। यूक्रेन में भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, खोखला न्याय तंत्र और संगठित लूट का जाल इतना गहरा है कि यहाँ कोई भी उत्पादन सहज रूप से नहीं हो सकता। जब भी कोई बाहरी कंपनी यूक्रेन में निवेश करने आती है, उसे इसी सड़ी-गली व्यवस्था का सामना करना पड़ता है। कानूनी धोखाधड़ी, राजनीतिक हस्तक्षेप और अदालती उलझनों में उसे इस तरह फँसाया जाता है कि वह अंततः अपना निवेश डूबते देखती है।

Avellana Gold का मामला इसका उदाहरण है, जहाँ झूठे मुकदमों के सहारे कंपनी को उत्पादन रोकने पर मजबूर किया गया। कोर्ट-कचहरी के खेल में समय इतना बर्बाद कर दिया गया कि जब तक फैसला आया, तब तक निवेशक भाग चुके थे और व्यापार ठप हो चुका था। यह अकेला मामला नहीं है; शेल और शेवरॉन जैसी दिग्गज कंपनियाँ भी यूक्रेन की इस व्यवस्था से टकराकर वापस लौट चुकी हैं।

2014 में शेवरॉन ने 10 अरब डॉलर का शेल गैस सौदा किया था, लेकिन सरकारी नियमों और भ्रष्टाचार के कारण उसे सौदा रद्द करना पड़ा। 2015 में शेल को भी पीछे हटना पड़ा। अब अमेरिका और यूक्रेन के बीच नए खनिज समझौते हो रहे हैं। यूक्रेन की मिट्टी में लिथियम, ग्रेफाइट, टाइटेनियम, यूरेनियम और अन्य दुर्लभ खनिज छिपे हैं, जिनकी कीमत खरबों डॉलर आँकी जाती है। लेकिन इनका उपयोग कर पाना अलग चुनौती है। यूक्रेन के खनिज संसाधनों की जानकारी तक पूरी नहीं है। जो नक्शे मौजूद हैं, वे भी पुराने सोवियत काल के हैं। नई खुदाई और खनिजों के आकलन के लिए अरबों डॉलर की जरूरत होगी। UkrLithiumMining जैसी कंपनियाँ पहले ही शुरुआती लाइसेंस और पर्यावरणीय अध्ययन में करोड़ों डॉलर खर्च कर चुकी हैं, लेकिन असली उत्पादन शुरू करने के लिए और भी अधिक पूँजी चाहिए।

यह सब तब हो रहा है जब युद्ध की विभीषिका पूरे क्षेत्र को अपने शिकंजे में लिए हुए है। रूसी हमलों ने बुनियादी ढाँचे को ध्वस्त कर दिया है। ऊर्जा आपूर्ति बाधित हो चुकी है, जिससे उत्पादन आधी क्षमता पर भी नहीं हो पा रहा। परिवहन और लॉजिस्टिक्स की लागत कई गुना बढ़ चुकी है। यूक्रेन के खनिज भंडारों तक पहुँचना किसी युद्ध से कम नहीं है। इस लड़ाई में रूस ही अकेला शत्रु नहीं है, बल्कि खुद यूक्रेनी व्यवस्था भी बड़ी बाधा है। अब सवाल यह है कि क्या अमेरिका की नई डील इस अव्यवस्था को तोड़ पाएगी, या यह भी इतिहास के अन्य समझौतों की तरह ही पूँजीपतियों के मुनाफ़े का एक और जरिया बन जाएगी?

अमेरिका को यूक्रेन के खनिजों पर नियंत्रण पाने के लिए न केवल रूस की सैन्य शक्ति से टकराना पड़ा, बल्कि यूक्रेन की आंतरिक कमजोरियों से भी लड़ना पड़ा। युद्ध ने 40% से अधिक महत्वपूर्ण खनिज भंडारों को रूसी कब्ज़े में पहुँचा दिया है, और जो क्षेत्र यूक्रेनी नियंत्रण में हैं, वहाँ भ्रष्टाचार, अदालती साजिशें और ढहता हुआ बुनियादी ढाँचा किसी भी निवेश को असफल बनाने के लिए काफी हैं। ऐसे में, अमेरिका ने महसूस किया कि केवल सैन्य रणनीति से काम नहीं चलेगा-उसे रूस से भी किसी न किसी रूप में समझौता करना ही होगा। यही कारण है कि हाल के महीनों में अमेरिका और रूस के बीच गुप्त वार्ताएँ तेज़ हुई हैं। यूँ तो अमेरिका यूक्रेन को हथियार देता रहा है, लेकिन वैश्विक खनिज आपूर्ति श्रृंखला पर पकड़ बनाए रखने के लिए उसे रूस से सहयोग चाहिए।

टाइटेनियम, लिथियम और दुर्लभ खनिज केवल यूक्रेन तक सीमित नहीं हैं-रूस भी इनका बड़ा उत्पादक है। अमेरिका को यह समझ में आ चुका है कि यदि उसने रूस को पूरी तरह अलग-थलग कर दिया, तो ये संसाधन चीन के नियंत्रण में चले जाएँगे, जिससे उसकी तकनीकी और रक्षा उत्पादन व्यवस्था प्रभावित होगी। इसलिए, वह एक ओर रूस पर प्रतिबंध लगाता है, और दूसरी ओर व्यापारिक वार्ताओं में भी शामिल रहता है। यह पूँजीवादी व्यवस्था का मूल सिद्धांत है-जहाँ मुनाफ़ा दिखे, वहाँ दुश्मन भी दोस्त बन जाते हैं। अमेरिका के लिए यूक्रेन कोई मानवीय संकट नहीं है, बल्कि खरबों डॉलर के खनिजों का स्रोत है। जब यह स्पष्ट हो गया कि यूक्रेनी नौकरशाही और भ्रष्टाचार सबसे बड़ी बाधाएँ हैं, और रूस इन संसाधनों पर नियंत्रण बनाए हुए है, तब अमेरिका ने यह तय किया कि उसे रूस से व्यापारिक सौदेबाजी करनी ही होगी।

इतिहास गवाह है कि पूँजी संचय के इस खेल में युद्ध महज़ एक और रणनीति होती है, पर असली लड़ाई संसाधनों पर कब्ज़े की होती है। जब सैन्य टकराव लाभदायक नहीं रह जाता, तो शांति वार्ता भी सौदे की तरह की जाती है। अमेरिका ने पहले भी ऐसा किया है-जब युद्ध से अपेक्षित मुनाफ़ा नहीं हुआ, तो उसने अपने विरोधियों को व्यापारिक साझेदार बना लिया। यूक्रेन का युद्ध भी इसी दिशा में बढ़ चुका है। अब जबकि अमेरिका को यह एहसास हो चुका है कि रूस के प्रभाव को पूरी तरह समाप्त करना संभव नहीं है, तो शांति वार्ता की सुगबुगाहट तेज हुई है। लेकिन यह शांति यूक्रेनी जनता के लिए नहीं होगी-यह उन कंपनियों के लिए होगी जो युद्धग्रस्त भूमि के नीचे छिपे खनिजों से अरबों डॉलर कमाने की योजना बना रही हैं।

यह संघर्ष केवल मिसाइलों और बंदूकों की लड़ाई नहीं है, बल्कि यह धरती के गर्भ में छिपे बहुमूल्य संसाधनों के अधिग्रहण की होड़ भी है। इतिहास हमें यही बताता है कि जब भी खनिजों की लूट को न्याय और स्वतंत्रता की लड़ाई बताया गया, तब असली लाभ उन्हीं को हुआ जिन्होंने इन संसाधनों से अपनी पूँजी का विस्तार किया। अमेरिका और रूस की इस लड़ाई में यूक्रेन मात्र मोहरा है। उसकी संप्रभुता और लोकतंत्र की रक्षा की बातें केवल युद्ध को वैधता देने के लिए हैं। जब सौदे पूरे हो जाएँगे, खदानों का स्वामित्व तय हो जाएगा, और मुनाफ़ा कुछ गिने-चुने हाथों में चला जाएगा, तब यूक्रेनी जनता को एहसास होगा कि यह युद्ध उनके लिए नहीं लड़ा गया था।

(मनोज अभिज्ञान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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