कभी मराठों की सत्ता हरियाणा तक थी। महेंद्रगढ़ में मराठों का बना किला आज भी उसका जीता जागता सबूत है। पानीपत की तीसरी लड़ाई मराठों और अहमद शाह अब्दाली के बीच हुई थी। दूसरी तरफ कभी पेशवा कानपुर तक पहुंच गए थे। यह सब कुछ इतिहास में दर्ज है। मराठों ने भले ही कभी दिल्ली पर राज न किया हो लेकिन उनकी एक स्वतंत्र सत्ता हुआ करती थी। शायद वह विरासत और उसकी जेहनियत आज भी किसी न किसी रूप में उनके भीतर मौजूद है। आज जब लोकतंत्र आ गया है और जनता सर्वश्रेष्ठ हो गयी है। तब भी मराठे भले ही देश की राजनीतिक राजधानी दिल्ली पर काबिज न हों लेकिन स्थायी तौर पर आर्थिक राजधानी पर उन्हीं का कब्जा है।
पिछले छह सालों से केंद्र में आयी बीजेपी की सत्ता ने लगातार उसको अपमानित करने का काम किया। वह चाहे सेना के उसके सामने समर्पण की बात रही हो या फिर कारपोरेट को अपने अधीन करने का मसला। और आखिर में तो सूबे के कद्दावर नेता शरद पवार को ईडी की नोटिस देकर केंद्र ने मराठा स्वाभिमान को खुली चुनौती दे दी। अनायास नहीं पवार ने एक बार फिर उसी पुराने मराठा इतिहास और परंपरा की याद दिलाई। जिसमें उन्होंने कहा कि मराठे कभी दिल्ली के सामने झुके नहीं। उसका नतीजा यह हुआ कि मोदी और अमित शाह को अपने कदम पीछे खींचने पड़े। और उसका असर चुनाव में यह हुआ कि महाराष्ट्र की जनता ने शरद पवार की पार्टी की झोली में पिछली बार से ज्यादा सीटें दे दीं।
सूबे में सरकार के गठन का मामला किसी एक सरकार तक सीमित नहीं है। महाराष्ट्र कोई गोवा और मणिपुर भी नहीं है। जिसे बहुमत न होने के बावजूद अमित शाह ने एक सांस में निगल लिया। महाराष्ट्र में सरकार के गठन का मतलब है देश की आर्थिक राजधानी पर कब्जा। लिहाजा वह किसी हार्सट्रेडिंग की मंडी से ऊपर है। और बीजेपी अगर वहां सरकार गठित नहीं कर पा रही है तो यह चीज बताती है कि संकट बेहद गहरा है। और वह राजनीतिक दायरे से आगे बढ़कर आर्थिक ढांचे से जुड़ गया है। ऐसे में विपक्ष की सरकार बनने का मतलब है कारपोरेट में विभाजन। वह हिस्सा जो अभी तक एकजुट होकर बीजेपी के साथ खड़ा है उसमें दो फाड़ की स्थिति।
दरअसल शिवसेना के लिए अब कोई दूसरा विकल्प भी नहीं बचा था। बीजेपी-सेना के गठबंधन का जो रास्ता था वह सेना को खात्मे की तरफ ले जा रहा था। पहले उससे मुख्यमंत्री पद छिना और फिर दोयम दर्जे का बना दिया गया और फिर उसके बाद लगातार बीजेपी उसके वजूद को छोटा करती जा रही थी। ऐसे में गठबंधन को तोड़ना उसके लिए अपने वजूद को बनाए और बचाए रखने की पहली शर्त बन गयी थी। और उससे निकलने के बाद उसके पास और ज्यादा मिलने की संभावना था। जिसमें सत्ता के संचालन से लेकर भविष्य में पार्टी के स्वतंत्र निर्माण का द्वार खुला था। लिहाजा उसने दूसरे विकल्प को चुनना ज्यादा जरूरी समझा।
मामला यहीं तक सीमित नहीं है। बहुत सारे अंदरूनी हालात और आपसी रिश्तों ने भी इन स्थितियों को जन्म दिया। इस मामले में देवेंद्र फडनवीस की स्थिति भी से ना के लिए बेहद मुफीद रही। इस पूरे प्रकरण में फडनवीस बिल्कुल अकेले पड़ गए थे। न तो उन्हें संघ का उस रूप में समर्थन मिला और न ही मोदी-शाह ने वह सक्रियता दिखायी। हालांकि दोनों के अपने-अपने कारण थे। चूंकि संघ प्रमुख भागवत से गडकरी के नजदीकी रिश्ते हैं और गडकरी तथा फडनवीस के बीच 36 का आंकड़ा है। पिछली बार जब गडकरी ने मुख्यमंत्री बनने की पहल की थी तो मोदी-शाह ने फडनवीस को आगे कर उनके सपनों पर पानी फेर दिया था। कहा तो यहां तक जा रहा है कि शाह फडनवीस के अलावा किसी तीसरे चेहरे चंद्रकांत पाटिल को सामने लाना चाह रहे हैं जो मौजूदा समय में बीजेपी अध्यक्ष हैं और शाह के सीधे रिश्ते में भी आते हैं।
राज्यपाल का पक्षपाती रवैया खुलकर सामने आ गया है। वह राज्यपाल जो 24 अक्तूबर को नतीजे आने के बाद 11 नवंबर तक बीजेपी और शिवसेना के बीच सरकारों के गठन का बाट जोहता रहा। विपक्ष को देने के लिए उसके पास दो दिन का समय नहीं रहा। और आखिरी दिन एनसीपी को दिए गए समय के पूरा होने से पहले ही उसने राष्ट्रपति शासन की संस्तुति कर दी। और केंद्र ने आनन-फानन में कैबिनेट की मंजूरी देकर उसे राष्ट्रपति के पास भेज दिया। और पंजाब के दौरे पर गए राष्ट्रपति ने भी तुरंत उसका अनुमोदन कर दिया। विपक्ष को यह समझना चाहिए कि उसका सामना एक लोमड़ी से हो रहा है। लिहाजा उसे उससे भी ज्यादा तेजी और फुर्ती दिखानी होगी। आज अगर सब कुछ खिलाफ रहते हुए भी मोदी-शाह की जोड़ी देश की सत्ता पर काबिज है तो तमाम कारणों के अलावा विपक्ष का नकारापन प्रमुख कारण है। जिस महाराष्ट्र में पवार ने चुनाव के दौरान अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी वहां से कांग्रेस ने अपना हाथ खींच लिया था। शायद अगर पवार की तरह ही कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व लगता तो चुनाव के नतीजे आज कुछ और होते।
बहरहाल राजनीतिक उठापठक और इन पार्टीगत समीकरणों से इतर एक बात खुलकर सामने आ रही है कि बीजेपी लगातार संकट में है। हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र और कर्नाटक से लेकर झारखंड तक की तस्वीर यही बयान कर रही है। हरियाणा में किसी तरीके से तो सरकार बन गयी। लेकिन महराष्ट्र जाने की कगार पर है। और इसकी आहट पार्टी के सहयोगी दलों ने भी सुन ली है। झारखंड से उसके संकेत मिलने शुरू हो गए हैं। पहले राम विलास पासवान की पार्टी जनशक्ति ने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने की घोषणा की उसके बाद आजसू ने गठबंधन से इतर जाकर स्वतंत्र रूप से अपने प्रत्याशियों का ऐलान कर दिया है।
बहरहाल एक बात पर चर्चा किए बगैर इस लेख को पूरा नहीं माना जा सकता है। वह है शिवसेना के साथ जाने को लेकर कांग्रेस की वैचारिक बांधा। हालांकि सच्चाई यह है कि मुंबई में लेफ्ट की ट्रेड यूनियनों को खत्म करने के लिए लंपटों के जिस संगठित गिरोह को उस समय की कांग्रेस सरकारों ने खड़ा किया था वह शिवसेना के तौर पर सामने आया। और शुरुआती दिनों में तो शिवसेना और कांग्रेस के बीच चुनावी गठजोड़ तक हुए थे। हालांकि बाद में बाला साहेब के घोषित तौर पर हिंदुत्व के रास्ते पर चले जाने और इंदिरा गांधी का खुलकर विरोध करने पर दोनों का रास्ता अलग हो गया। बहरहाल इतिहास की इन बातों को छोड़ भी दिया जाए तो मौजूदा दौर में कांग्रेस को क्यों सेना के नेतृत्व में गठित सरकार का समर्थन करना चाहिए उसके पीछे एक नहीं अनेक तर्क हैं।
एक ऐसे समय में जबकि देश में संघ और बीजेपी के नेतृत्व में फासीवादी जमात न केवल तांडव कर रही है बल्कि एक-एक कर लोकतांत्रिक संस्थाओं को ध्वस्त करने पर उतारू है। ऐसे समय में उसे सत्ता से हटाना किसी भी लोकतांत्रिक पार्टी का बुनियादी कर्तव्य हो जाता है। और इस लिहाज से उसे कमजोर करने के किसी भी मौके को नहीं चूकना चाहिए। यह हमें नहीं भूलना चाहिए कि सेना न केवल उसकी सहयोगी है बल्कि उसके वैचारिक जामे का भी हिस्सा है। ऐसे में उनके बीच टूट हिंदुत्व खेमे में एक बड़ी दरार साबित होगी। जो किसी भी राजनीतिक नुकसान से ज्यादा घातक होगा।
उसका संदेश बहुत बड़ा होगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बीजेपी को अगर हम फासिस्ट जमात में रखते हैं तो उसके पीछे संघ जैसी एक गैर संवैधानिक ताकत का होना है। लेकिन सेना के पास कम से कम ऐसी कोई ताकत नहीं है। वह न केवल चुनावों में भाग लेती है बल्कि हर तरीके से संविधान के प्रति समर्पित है। लेकिन संघ के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती है। लिहाजा सेना और बीजेपी को एक जैसी हिंदुत्ववादी ताकत घोषित करना वास्तविकता से मुंह चुराना है। यह बात अलग है कि वह अपने तेवरों में बीजेपी से ज्यादा कट्टर दिखे लेकिन उसके लिए ऐसा कोई दूसरा आधार नहीं है जहां वह खड़ी हो सके।
ऊपर से यह एक दौर की राजनीतिक जरूरत है। और राजनीति तथा विचारधारा के द्वंद्वात्मक रिश्तों को भी किसी के लिए समझना जरूरी होता है। कई बार पहले विचारधारा आती है और फिर उसकी राजनीति तय होती है। लेकिन अपवाद स्वरूप ही सही यह भी हो सकता है कि किसी दौर में कोई दल अपनी वस्तुगत राजनीति की जरूरतों के चलते अपनी विचारधारा को बदलने के लिए मजबूर हो जाए। आज के दौर में फासीवाद के खिलाफ एक बड़ा मोर्चा बनाना किसी के भी लिए बुनियादी लक्ष्य होना चाहिए। उसमें बीजेपी से इतर जो भी दल उससे लड़ने के लिए तैयार हैं वह इस मोर्चे के स्वाभाविक हिस्से बन जाते हैं। और हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछले छह सालों में तमाम विपक्षी नेताओं के मुकाबले शिवसेना ने अंदर रहते मोदी-शाह की जोड़ी का ज्यादा विरोध किया है। लिहाजा हर लिहाज से शिवसेना विपक्ष का तत्व बन जाती है। और उसके साथ सरकार का गठन वक्त की जरूरत।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)