Tuesday, April 23, 2024

क्या कहते हैं कम्पनियों पर ‘पांचजन्य’के हमले?

निहित स्वार्थों की साधना में सत्तापक्ष व विपक्ष दोनों की भूमिकाएं हथियाना, सांस्कृतिक संगठन के चोले में राजनीतिक मोर्चो पर उतर आना, सारे असुविधाजनक सवालों से कतराना और सुविधाजनक झूठों को बार-बार दोहराना, अर्धसत्यों से काम चलाना, असहमतियों का अनादर करते जाना, असहमतों को नाना प्रकार के लांछनों से नहलाना, बहस मुबाहिसों में तथ्यों की पवित्रता से खिलवाड़ के लिए किसी भी हद से गुजर जाना और बात-बे-बात बेहिस विभाजनों पर उतर आना तो कोई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, उसके आनुषंगिक संगठनों व सरकारों से सीखे!

इसकी एक मिसाल यह है कि किसानों के दस महीने पुराने हो चले आन्दोलन के सिलसिले में उनके इस तरह के करतब अब पुराने पड़ चले हैं, फिर भी किसान सरकार का अनौपचारिक विपक्ष बनते जा रहे हैं, तो संघ का भारतीय किसान संघ भी ‘आंदोलित’हो गया है। ताकि नरेन्द्र मोदी सरकार के एक और विपक्ष का भ्रम पैदा करके किसान आन्दोलन को पटरी से उतारना आसान किया जा सके।
दूसरी ओर भारतीय किसान संघ की ही तर्ज पर संघ का मुखपत्र ‘पांचजन्य’भी, जिसे जानें किस रणनीति के तहत मुखपत्र मानने से ही मना कर दिया गया है, ‘सक्रिय’हो उठा है और देश में सक्रिय स्वदेशी-विदेशी कम्पनियों में किसी को ‘देशद्रोही’तो किसी को ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी-2’करार दे रहा है।

पिछले दिनों अपने एक अंक में प्रकाशित ‘साख और आघात’शीर्षक लेख में उसने ‘देश की सबसे प्रतिष्ठित कम्पनियों में से एक’ इंफोसिस की बनाई इनकम टैक्स फाइलिंग वेबसाइट में कुछ गड़बडियां रह जाने और उन्हें दूर न किये जाने को लेकर न सिर्फ उसे बल्कि उसके संस्थापक नारायण मूर्ति को भी ‘देशद्रोही’बता डाला तो मामला तूल पकड़ गया और लोग कहने लगे कि इन्फ़ोसिस का नाम देशद्रोहियों की कतार में आना कुछ अचरज पैदा करता है। साहित्यकार प्रियदर्शन ने तो व्यंग करते हुए यहां तक लिख डाला कि इस कंपनी की प्रोफ़ाइल वैसी नहीं है कि उसे देशद्रोही माना जाए। क्योंकि ‘उसके मालिकान अल्पसंख्यक नहीं हैं। वे कोई शिक्षा संस्थान या ऐसा अख़बार या न्यूज चैनल नहीं चलाते जो सरकार की आलोचना करता हो। उल्टे उन्होंने सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में देश का नाम ऊंचा किया है।’ साथ ही उन्होंने शक जताया कि ‘पांचजन्य’के निशाने पर कोई और व्यक्ति या समूह था और गफ़लत में उसकी जगह इन्फ़ोसिस पर हमला हो गया।

अर्थशास्त्री और भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने भी पूछ लिया कि जैसी गलती के लिए इंफोसिस को देशद्रोही करार दिया जा रहा है, क्या कोरोना टीकाकरण के मोर्चे पर वैसी ही गलती के लिए नरेन्द्र मोदी सरकार को देशद्रोही करार दिया जायेगा? उन्होंने पूछा कि ऐसी गलतियां कौन नहीं करता तो कई लोगों द्वारा कहा जाने लगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इंफोसिस को निशाना बनाकर भारत की राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय छवि को बहुत नुकसान पहुंचाया है।

फिर क्या था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ‘पांचजन्य’को अपना मुखपत्र मानने से ही इनकार कर दिया और उसमें प्रकाशित लेख में व्यक्त विचारों को उसके लेखक की राय बताकर पल्ला झाड़ लिया। लेकिन ‘पांचजन्य’ ने इससे कोई सबक न लेते हुए अब अमेरिका की ई-कामर्स कम्पनी अमेजन को ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी-2’ बताकर हमला बोल दिया है। उसका कहना है कि यह कम्पनी अपने ऑनलाइन प्लेटफार्म के लिए ऐसी फिल्में और वेबसीरीज बना रही है, जो भारतीय संस्कृति के अनुरूप नहीं हैं। साथ ही उसने अपनी कई छद्म सहायक इकाइयां बना ली हैं और सरकार को सैकड़ों करोड़ रुपयों की रिश्वत दी है।

इसकी अंतर्कथा यह है कि जब से अमेजन द्वारा भारत में अपने अनुकूल नीतिगत फैसले कराने के लिए चार सालों में कानूनी फीस चुकाने के नाम पर आठ हजार करोड़ रुपयों की रिश्वत देने के मामले का खुलासा हुआ है और अमेरिका में उसकी जांच शुरू की गई है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी सरकार के कई हलकों में खलबली मची हुई है। उसी के मद्देनजर, इससे पहले कि विपक्षी दल इसे लेकर ‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा’ का एलान करने वाले स्वयंसेवक प्रधानमंत्री या उसके सिपहसालारों की ओर उंगलियां उठायें, ‘पांचजन्य’ की मार्फत ऐसा जताने की कोशिश की जा रही है कि इसको लेकर सबसे पहली आवाज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने खुद ही उठाई।

इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और नरेन्द्र मोदी सरकार के बीच उभरते या बढ़ते अंतर्विरोध के तौर पर भी देखा जा सकता था, बशर्ते संघ ने 2014 में केन्द्र में पूरे बहुमत की अपनी सरकार बनने के बाद से ही स्वदेशी वगैरह के लिए आन्दोलन करने और पीवी नरसिंहराव व डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा प्रवर्तित अर्थनीति को ही तेजी से आगे बढ़ाने का, दिखावे के लिए ही सही, किया जाने वाला अपने आनुषंगिक संगठनों का प्रतिरोध समाप्त कराकर उनका आत्मसमर्पण न करा दिया होता।

वैसे भी यह समझने के लिए बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है कि उक्त अर्थनीति के वास्तविक प्रतिरोध में संघ परिवार की कभी कोई खास दिलचस्पी नहीं रही। 1991 में जब सारा देश भूमंडलीकरण और उदारीकरण की मनुष्यविरोधी अनर्थनीति के तहत बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को खुली खेलने की अनुमति की शुरूआत का प्रतिरोध कर रहा था, संघ और उसके आनुषंगिक सांस्कृतिक व राजनीतिक संगठन इस सम्बन्धी विमर्श की दिशा बदलने और सारे प्रतिरोध को पटरी से उतारने के लिए रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद को सिर पर उठाये घूम रहे थे। अंततः उन्होंने अयोध्या में बाबरी मस्जिद को ढहाकर सब-कुछ अस्त-व्यस्त कर ऐसा माहौल बना डाला था कि अर्थनीति पर इत्मीनान से स्वस्थ विचार-विमर्श संभव ही न रह जाये। दूसरे शब्दों में कहें तो उसने नरसिंहराव सरकार को उसकी चहेती अर्थनीति का रास्ता साफ करने की सहूलियत दे दी थी।

गौरतलब है कि उस दौर में कहा जाता था कि अमेरिकी कम्पनियां जिस भी देश में जाती हैं, सबसे पहले उसके लोकतंत्र को खा जाती हैं। दुनिया भर से इसकी कई मिसालें भी दी जाती थीं। आज, उनकी पूंजी के प्रवाह के विश्वव्यापी और निर्बाध हो जाने के बावजूद उनका चरित्र नहीं बदला है। लेकिन न राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को उनकी पोषक आर्थिक नीतियों से कोई एतराज दिखाई देता है, न उसकी राजनीतिक फ्रंट भाजपा और उन दोनों की चहेती विश्व हिन्दू परिषद को। एतराज होता तो 1996 से 2004 के बीच तीन बार बनी अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली उनकी सरकारें उन्हीं आर्थिक नीतियों पर सरपट बढ़ी जाकर अंधाधुंध निजीकरण के लिए विनिवेश मंत्रालय तक न बना डालतीं।

फिर सब कुछ बदल डालने का वायदा करके आई उनकी दो नरेन्द्र मोदी सरकारें भी अपने सात से ज्यादा सालों में देश को कोई वैकल्पिक अर्थनीति देने से परहेज न बरततीं। न ही ‘मैं देश नहीं बिकने दूंगा, मैं देश नहीं झुकने दूंगा’जैसी वोटखींचू घोषणाओं के बीच उसे देशी-विदेशी बड़ी कम्पनियों कहें या कारपोरेट का मोहताज बनाने की ओर बढ़ जातीं।
ऐसे में सवाल मौजूं है कि अमेजन के खिलाफ ‘पांचजन्य’के लगाये आरोप सच्चे भी हों, जिसकी संभावना लगभग असंदिग्ध है, तो उनका हासिल क्या है?

आज उनके सच होने की शर्म इस सरकार और उसकी व्यवस्था में कौन महसूस करने वाला है? फिर पूंजी को ब्रह्म और मुनाफे को मोक्ष मानने ओर उसके लिए कुछ भी कर गुजराने वाली सारी बड़ी या बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के एकजुट प्रतिरोध को धता-बताकर नरेन्द्र मोदी सरकार को उन्हें लगातार शक्तिशाली व अपरिहार्य बनाने, यहां तक कि देश के सार्वजनिक क्षेत्र के कई महत्वपूर्ण संस्थानों को लीज पर देने की इजाजत दिये रखकर, सेलेक्टिव ढंग से किसी को ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी-2’, किसी को ‘देशद्रोही’, किसी को ‘देशभक्त’ तो किसी को ‘भारत भाग्यविधाता’ या ‘भारतमाता से भी बड़ी माता’बताकर उनकी मनमानियों से कैसे लड़ा जा सकता है?

इस तरह तो उनके विरुद्ध चल रही लड़ाइयों को भटकाकर ‘देयर इज नो आल्टरनेटिव’ यानी उनका कोई विकल्प नहीं है जैसे दृष्टिकोण को ही मजबूत किया जा सकता है। भूमंडलीकरण के पिछले तीन दशकों ने देश को वैसे ही नीतिगत विपक्ष से हीन बना डाला है। इसलिए इस बात को गम्भीरतापूर्वक समझने की जरूरत है कि सत्तापक्ष द्वारा ही विपक्ष की भूमिका भी हथिया ली गई तो इस हीनता के कोढ़ में खाज ही पैदा होगा।

(कृष्ण प्रताप सिंह जनमोर्चा के संपादक हैं। और आजकल फैजाबाद में रहते हैं।)

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