चंदौली। हाशिए पर देश की एक बड़ी आबादी आज भी आधुनिक दौर में दिहाड़ी (काम) और इससे हुई आमदनी से दो वक्त की रोटी-दाल जुटाने में बीत रही है। बदलते भारत में जिस उम्र में मजदूरों के बच्चों की पहुंच कॉलेज-डिग्री कॉलेज तक होने चाहिए, उस उम्र में इनके के कंधों पर जिम्मेदारियों का बोझ है। सुबह उठकर काम तलाशने की फ़िक्र तो शाम को परिवार के लिए भोजन की व्यवस्था में मजदूर पीढ़ी दर पीढ़ी खपता ही जा रहा है। तमाम कल्याणकारी योजनाओं और सामाजिकी प्रयास का हरा पौधा इनके चौखट तक पहुंचते-पहुंचते सूख जा रहा है। लिहाजा, चौतरफा अभाव व तंगी में घिरे होने के चलते ये मजदूर अंधेरे में अपने भविष्य की नींव रख रहे हैं। पढ़ें यूपी के चंदौली से पवन कुमार मौर्य की ग्राउंड रिपोर्ट:
जनचौक की टीम सोमवार को विकासखंड बरहनी क्षेत्र में दलित मजदूरों के जीवन व जोखिम की जानकारी लेने पहुंची। यह विकासखंड, चंदौली जनपद के पूर्वी छोर पर कर्मनाशा नदी सहारे बसा है। इस पार चंदौली तो कर्मनाशा नदी के उसपर बिहार राज्य है। चंदौली जिला विकास मानकों के आधार पर पूरे देश में पिछड़ा हुआ और मजदूर-किसान बाहुल्य है। यहां बेरोजगारी, गरीबी और पलायन की समस्या जबरदस्त है। बहरहाल, सुबह मानिकपुर सानी गांव के दक्षिण ओर दलित बस्ती स्थित है। सुबह से उमस भरे माहौल में बस्ती के पुरुष काम पर जाने के लिए तैयार होने में लगे हैं। कोई नहाने जा रहा है तो कोई बुढ़ी महिला नाश्ते के लिए अपने बेटे को आवाज लगा रही है। गुमसुम सी बस्ती बम्बई से भी अधिक व्यस्त लग रही थी। बहरहाल, मजदूर मिले और उन्होंने कई बातें बताई।
चौथी पीढ़ी भी मजदूरी में
नाम रामकेसी, उम्र करीब 58 वर्ष, पता मानिकपुर में एक छोटा सा मिट्टी का कमरा। परिवार की बात करें तो पत्नी और चार बच्चे। बड़ी दो बेटियों की शादी कर चुके। भूख-पेट काटकर तीसरी बेटी भानू का गाजीपुर से बीएड में दाखिला दिलाया है। एक बेटा पुष्कर और उसकी एक संतान। पिता झूरी राम भी मजदूर थे।
पिता के निधन के बाद से रामकेसी पिछले 47 साल से मजदूरी कर रहे हैं, लेकिन जीवन आज भी तंगहाल है। परिवार की आर्थिक स्थिति गड़बड़ाई तो पुष्कर ने ग्रेजुएशन छोड़कर घर की जिम्मेदरी संभल ली। इससे उसके आगे बढ़ने के रास्ते बंद हो गए और वह ताउम्र के लिए मजदूर बन गया। इस तरह से पिता झूरी राम, रामकेसी और इनके बेटे पुष्कर यानि लगातार तीन पीढ़ी मजदूरी के दलदल में धंसी रह गई। गौर करने बात यह है कि रामकेसी अपने समय के 12वीं पास हैं, इसके बाद भी यह हाल है। ऐसे में यह हिसाब लगाना कि गांव या जिले के दलित, आदिवासी और पिछड़े, पसमांदा समाज में जो लोग निरक्षर या बहुत नाम मात्र के पढ़े-लिखे हैं। इनकी स्थिति कितनी चुनौतीपूर्ण होगी?
पिताजी ने जहां छोड़ा था, आज भी वहीं
रामकेशी याद करते हुए “जनचौक” को बताते हैं कि “साल 1977-76 में गांव से मैं और एक-दो लोग और ग्रेजुएशन की पढ़ाई करने के लिए घर से तीस किमी दूर सकलडीहा पीजी कॉलेज में दाखिला लिया था। एक साल की पढ़ाई भी पूरी होने वाली थी, तभी बीच में पिताजी का असमायिक निधन हो गया। ऐसे में घर जिम्मेदारी का बोझ मेरे कंधे पर आ गया और काम-धंधा तलाश करना पड़ा। मैं परिवार के लिए भोजन, कपड़े, दवाई, बेटियों की शादी और दुनियादारी में ऐसा रमा कि पता ही नहीं चला, कि 47-48 वर्ष का इतना लंबा समय कैसे बीत गया। मैं पाता हूं पिताजी ने जहां छोड़ा था, आज भी वहीं खड़ा हूं। अब भी कच्चा मकान है, एक बेटी की पढ़ाई और उसकी शादी की चिंता है। सबसे बड़ी बात कि मेरी उमर भी साठ साल को पार करने वाली है। चुनौतियां तो और बढ़ गई हैं।”
ब्याज पर रुपए लेकर की बेटियों की शादी
वह आगे कहते हैं “2008, 2012 में बेटियों की और 2017 में बेटे के शादी के लिए सूद (ब्याज) पर क्रमश 40 से 50 हजार रुपए लिए। इनको भरने में 6-7 साल लगा गया। इतना ही नहीं इनको चुकाने में मैं और बेटे ने मिलकर अथक परिश्रम किये तब जाकर कर्ज से मुक्ति मिली। हां कुछ बदलाव जरूर हुए हैं, जिसमें नाली, खड़ंजा, गली बन गई है। सफाईकर्मी लगा है। सबसे बड़ा सवाल मूलभूत जरूरतें और मुख्यधारा से हमलोग कब जुड़ेंगे ? इसका जवाब कौन देगा? तब से लेकर अब तक तो दुनियादारी चलती ही रही, लेकिन, हमलोग जहां के तहां पड़ें हैं।”
दूषित पेयजल और बीमारी से परेशानी
गर्मी और बारिश के दिन में बस्ती के नागरिकों को साफ़ पेयजल के लिए तरसना पड़ता है। आसपास में पड़ोसी के यहाँ लगे समरसेबल पम्प से पानी लाते हैं तो पीते और खाना पकाते हैं। अंबिका के अनुसार गर्मी के दिनों में पेयजल पानी छोड़ देता है या गंदा पानी निकलता है। बस्ती के लोग जानते हैं कि यह पानी दूषित और पीने योग्य नहीं है, लेकिन उनके पास विकल्प भी नहीं है। मजबूरी में इस्तेमाल करना पड़ता है। जबकि, दूषित जल से कई बीमारियां होती है। बीमार होने पर मजदूरी की कमाई का बड़ा हिस्सा इलाज में खर्च हो जाता है।
कठिन है जीवन
वाराणसी मंडल में चंदौली जनपद शामिल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के बमुश्किल 40 किमी पूर्व में स्थित है। चंदौली में विंध्य पर्वत श्रृंखला का विस्तार है तो कर्मनाशा व गंगा जैसी पवित्र नदियों का कछार व तराई भी है। चंदौली का भौगोलिक विस्तार जितना खूबसूरत और मनोहारी है, अफसोस जिले की बड़ी आबादी का जीवन उतना आसान नहीं है। इनकों रोजाना कुआं खोदना है और रोज पानी पीना है। एक तरफ दावा है कि सूबे को डबल इंजन की सरकार खींच रही है। रामराज्य उतर आया है। दूसरी ओर भिखारी राम अपनी मिट्टी के घर के ऊपर हिस्से में काम पर जाने से पहले सुस्ताते हुए मिले।
भिखारी राम कहते हैं कि “जब से होश संभाला है, तब से मेहनत मजदूरी कर रहे हैं। जैसे-तैसे बाल बच्चों को पढ़ाया, लेकिन महंगाई और महंगी शिक्षा हम गरीबों के बस की बात नहीं। लड़के की शिक्षा बीच में ही छूट गई। गम तो इसी बात का है कि हमलोगों की पूरा हो चली है, लेकिन मेरे बेटे विकास का पूरा जीवन उसके सामने पड़ा है। बदलते वक्त के हिसाब से रोजाना काम भी नहीं मिलता है। आने वाले समय में मजदूरों के लिए समय बहुत दिक्कत वाला हो जाएगा। सरकार की योजनाओं पर क्या कहें – बेटे की पढ़ाई तो छूट गई। आखिर वह भी मजदूर रह गया।”
यह ‘विकास’ का पहचान पत्र
इतना कहते हुए वे खाट से उठकर बगल में पड़े, टीन की पुरानी संदूक को खोलकर एक पहचान पत्र ले आये और दिखते हुए कहते हैं। “देखिए, यह विकास का पहचान पत्र है, जब वह 12वीं में भुजना पढ़ रहा था। पढ़ने में भी अव्वल था। उसकी मां और हमलोगों को उम्मीद थी कि विकास पढ़-लिखकर कामयाब हो जाएगा। तभी नियति को जाने क्या मंजूर था कि उसे भी घर चलाने के लिए दिहाड़ी तलाशनी पड़ी। जाने अब कैसे परिवार का विकास होगा ?”
आगामी तीन दिनों तक काम बंद रहेगा
विकास गांव में राशन लेने गए थे। वह साइकिल से राशन लेकर लौटे हैं। वह बताते हैं कि “आज काम बंद हैं, दिहाड़ी पर नहीं जाना है। आगामी तीन दिनों तक काम बंद रहेगा। 12वीं 55 प्रतिशत अंकों के साथ पास हूँ। सोगाई स्थित माँ भवानी डिग्री कॉलेज में बीए में दाखिला भी लिया था। आर्थिक तंगी और अन्य परेशानियों की वजह से कॉलेज जा ही नहीं सका। अगर मैं कहूं कि, इस जीवन में मेरा कुछ खोया है तो वह है मेरी पढ़ाई। मजदूरी करके घर-परिवार चलता हूं। एक छोटा भाई है, अगर वह पढ़ेगा उसे पढ़ाएंगे। अब तो मेरी पत्नी और दो साल के लड़के की जिम्मेदारी और बढ़ गई है। संघर्ष जारी है, देखिए जीवन कहाँ तक पहुंचता है ?”
एक मजदूर चाह कर भी आर्थिक विपन्नता के जंजीरों को तोड़कर समरसता व उन्नति की मुख्यधारा से जुड़ता नहीं दिख रहा है। हालांकि, कुछेक मामलों में हालात पहले से बेहतर हुए हैं, लेकिन रोजाना दिहाड़ी तलाशने की चुनौती भी कई गुना बढ़ गई है। हालातों के आगे मजबूर मजदूर पीढ़ी दर पीढ़ी मजदूरी के दलदल में धंसते ही जा रहे हैं। तिसपर दलित-पिछड़ा होने के चलते जातिवाद का जहर अलग से पीना पड़ रहा है। आत्मबल की ढलान व दिहाड़ी की तलाश में जीवन पहाड़ बन गया है। मजदूर की दिनभर की कमाई पूरी नहीं पड़ती तो उसके घर की औरत को दूसरों के घरों में चौका-बर्तन करना मजबूरी हो जाती है। इनके बच्चे आधी-अधूरी शिक्षा के बाद अभाव और तनाव वाले माहौल से छुटकारा पाने के लिए काम की तलाश में दिहाड़ी के लिए उतरता है। बस वह यहीं से ताउम्र मजदूर बनकर रह जाता है।
नहीं हो रहे मरम्मत के पैसे
पास में ही दीनाराम का भवन जर्जर और बदहाल हो गया है। दीना ने बताया कि मजदूरी इतनी ही हो पाती है कि किसी तरह से पेट पल रहा है। इसमें भी शादी-विवाह दुनियादारी है। रुपए का बंदोबस्त नहीं होने से पुराने घर की मरम्मत नहीं करा पा रहा हूँ। मुझे दर है कि किसी दिन इसका मलबा बच्चों और मवेशी पर न गिर जाए। जान बचाकर दूसरे मकान में रहते हैं परिवार के साथ।
मजदूर के लिए गरीबी अभिशाप है
विकास और अप्पू की मां ने भी बताया कि उनका परिवार बहुत मुश्किल में गुजारा कर रहा है। “एक अदद पक्के मकान और दो वक्त के अच्छे खाने को तरस गए हैं। आलू की रसदार सब्जी और चावल पर जीवन की गाड़ी खींच रही है। पूड़ी, खीर और अच्छा खाना हम गरीबों को त्योहार पर ही मिल पाता है। इतना वक्त बीत गया, इस उम्मीद में कि अब समय बदलेगा और गरीबी-तंगी ख़त्म हो जाएगी। लेकिन, उम्र के ढलान पर महज यह सपना सा लगता है। दलित, भूमिहीन और मजदूर के लिए गरीबी अभिशाप है, जो मरते दम तक पीछा नहीं छोड़ रही है।”
फ़ीस के लिए कर रहा मजदूरी
मजदूर रामनिवास के छोटे बेटे राधेश्याम कई महीनों से मजदूरी कर पैसा जुटाने में लगे हुए हैं। वह जनचौक को बताते हैं “बेहताशा मंहगाई में परिवार और अपना पेट भरने के लिए मुझे दिहाड़ी तलाशनी पड़ती है। मेरा ग्रेजुएशन 57 प्रतिशत है, आगे बीटीसी की पढ़ाई करने के लिए फ़ीस की व्यवस्था के लिए मजदूरी में लगा हूं। राधेश्याम की तरह बस्ती के सभी किशोर और नौजवान चुनौती से निबटने में सफल नहीं हुए। वे हाईस्कूल या अधिकतम बारहवीं के बाद परिस्थितों के आगे स्कूल-कॉलेज से दूर हो गए।
महंगाई और मशीनी युग में चौतरफ पिस रहा मजदूर
खेत एवं ग्रामीण मजदूर सभा चंदौली इकाई के पूर्व जिला उपाध्यक्ष व भाकपा माले चकिया सचिव विजई राम कहते हैं “दलित, किसान और मजदूर संविधान में भारत के नागरिक हैं। इनको भी उतने संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं, जितने आम नागरिकों को। जिस तरह से सरकार जिस योजनाएं चल रही हैं, पहले तो इन योजनाओं का आधा-अधूरा लाभ दलित मजदूरों को मिल पाता है। बेहताशा महंगाई और मशीनी युग में मजदूर चौतरफ पिस रहा है। ऐसे में इन मजदूरों को मुख्यधारा से जोड़ने की उम्मीद पालना बेईमानी है। यदि ऐसा ही रहता हो मेरी जानकारी में कई दलित परिवार के लोग कम से कम चार-पांच पीढ़ियों से मजदूर हैं। इतनी योजना होने के बाद आखिर ये लोग मुख्यधारा से क्यों नहीं जुड़े?”
“यह किसकी जिम्मेदारी है पड़ताल करने की, और फिर रिपोर्ट सार्वजनिक कर पड़ताल का हासिल भी बताया जाए। हासिल शून्य है। पांच किलो राशन और मनरेगा की मजदूरी और दिहाड़ी से दलित कभी भी मुख्यधारा में नहीं जुड़ पाएगा। यदि सही मायने में समाज और सरकार को इनकी चिंता है तो स्वास्थ्य की गारंटी, शिक्षा की गारंटी, आवास की गारंटी, अति आवश्यक उपजाऊ भूमि, सम्मान की गारंटी, रोजगार की गारंटी, मनरेगा मजदूरी कम से कम रोजाना 500 रुपए समेत असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए केंद्रीय कानून बने। उनके लिए सुरक्षा कोष बनाया जाए, जिसमें उनका पंजीयन हो। तभी मजदूरों को उचित लाभ मिल पाएगी। सरकारी योजनाएं तो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। जरूरतों पर प्रमुखता से ध्यान देना होगा, तब जाकर दलित मजदूर मुख्यधारा से जुड़ सकेंगे।”
समय-समय पर स्टूडेंट्स का मार्गदर्शन
बतौर समाजसेवी व किसान नेता रामविलास मौर्य “पहले की अपेक्षा दलित और अति पिछड़ा वर्ग शिक्षा के महत्त्व को लेकर सजग हुआ है। शिक्षा के द्वारा उपलब्ध होने वाले अवसर प्रति जागरूक हैं। दलित, मजदूर और किसान वर्ग अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं, लेकिन 12 वीं के बाद अभिभावकों का बजट बिगड़ जा रहा है। पहले तो स्नातक की शिक्षा प्रतियोगी परीक्षा की योग्यता के लिए चाहिए। फिर इसके बाद बीटीसी, बीएड, डिप्लोमा और अन्य रोजगार परक कोर्स करने होंगे, तब जाकर एक अभ्यर्थी कायदे सरकारी या प्राइवेट नौकरी के लिए प्रतिस्पर्धा में भाग लेगा। इतने महंगे हैं कि परिवार के खर्च, बीमारी, आये-गए मेहमान, दुःख-सुख, शादी-विवाह, खेती के खर्च और आवास मरम्मत में आमदनी का अस्सी फीसदी हिस्सा चला जाता है। शेष पैसे फ़ीस आदि के लिए नाकाफी होते हैं। अर्थात इनकी जिंदगी आज भी सिर्फ कमाने और खाने तक ही सिमटी हुई है।
“दूसरी अहम् बात यह है कि, दलित-मजदूर वर्ग में शिक्षा और भविष्य को लेकर पसंद के क्षेत्र में रूचि अनुसार पढ़ाई यानि शिक्षक, इंजीनियर, आईटीआई, पॉलीटेक्निक, मेडिकल डिप्लोमा और स्वरोजगार समेत अन्य क्षेत्रों के बारे में उचित समय पर मार्गदर्शन नहीं होने से छात्र-छात्राएं हतोत्साहित होकर पढ़ाई छोड़ देते हैं। ऐसे में उनको लगता है कि कितना पढ़ना पड़ेगा, कितने साल लगेंगे ? वगैरह-वगैरह। यदि अभिभावकों और स्टूडेंट्स का मार्गदर्शन समय-समय पर किया जाए तो दलित वर्ग के नई पीढ़ी में काफी सकारात्मक बदलाव देखने को मिलेंगे।”
ताकि मिल सके खुलकर जीने के अवसर
यह जमीनी हकीकत सिर्फ इन्हीं मजदूरों की नहीं हैं, उसके जैसे तमाम मजदूर सुबह उठकर रात के खाने की सोचने को मजबूर हैं। आज भी मजदूर को उसका वाजिब हक नहीं मिल सका है। सुबह उठकर कमाने की चिंता में डूबने, काम मिल गया तो शाम के खाने की चिंता और फिर अगले दिन काम की फिक्र, मजदूर का जीवन इन्ही तीन चरणों में बंध गया है। समाज, जनप्रतिनिधियों, थिंक टैंक और सरकार मजदूरों की समस्याओं को गंभीरता से लेने आवश्यकता है, ताकि जल्द से जल्द इन्हें भी आम नागरिकों की तरह खुलकर जीने के अवसर मिल सके।
(पवन कुमार मौर्य चंदौली\वाराणसी के पत्रकार हैं )