स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव से ही हो सकती है 2024 में विपक्ष की जीत की गारंटी!

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2024 में आम चुनाव का स्वतंत्र और निष्पक्ष होना भारत में राजनीतिक लोकतंत्र के भविष्य को तय करने वाला बड़ा कारक बनेगा। एनडीए बनाम इंडिया प्रतिद्वंदिता भी भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार इतने कांटे की टक्कर होने जा रही है, जिसकी कल्पना अभी तक नहीं की गई थी। 

2019 की तुलना परिस्थितियां नाटकीय ढंग से बदली हैं। एनडीए के पास 45% की तुलना में करीब 42% वोट शेयर रह जाता है। दूसरी तरफ यूपीए 2019 के अपने 27% वोट प्रतिशत से इंडिया गठबंधन में  40% वोट शेयर के साथ मुकाबले को पूरी तरह से बदल देने की ताकत रखती है। बसपा, वाईएसआर (कांग्रेस) और बीजू जनता दल 7.81% के साथ फिलहाल तटस्थ भूमिका निभा रहे हैं। निर्दलीय 2.68% को मिला दें तो इन दलों के बीच 92.29% कुल मतों का बंटवारा हो जाता है।

ये आंकड़े 2019 लोकसभा चुनावों से लिए गये हैं। जाहिर सी बात है विपक्षी दलों का महागठबंधन बनने का अर्थ है 10-15% तटस्थ मतदाताओं का मौसम के हिसाब से विकल्प चुनने की भूमिका सत्तारूढ़ दल के लिए सांसत बढ़ा रही है। एक सीट-एक उम्मीदवार को यदि विपक्ष 450 सीटों पर भी लागू कर पाया तो गणित के साथ-साथ केमिस्ट्री पूरी तरह से चुनाव परिणामों को बदलकर भी रख सकती है।

यही वजह है कि बेंगलुरु में विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A की घोषणा के बाद से ही एनडीए के शीर्ष नेतृत्व में अजीब सी बैचेनी देखने को मिली, जिसका आकलन अनुभवी राजनीतिक समीक्षकों के पास है, लेकिन अभी भी वे खुलकर समीक्षा लिखने से संकोच कर रहे हैं। आम आदमी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस और एनसीपी में तोड़फोड़ को लेकर भाजपा सहित टीवी न्यूज़ की बहसों ने लगातार विपक्षी गठबंधन की टूटन पर नजरें टिकाएं रखीं, लेकिन नतीजा अभी तक सिफर ही साबित हुआ है।

असल में इस बार कांग्रेस पार्टी का लचीलापन और लक्ष्य के प्रति एकटक प्रतिबद्धता एक महत्वपूर्ण कारक है, तो दूसरी तरफ ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स के साथ ही धन-बल से निर्वाचित विधायकों की अंधाधुंध खरीद ने तमाम क्षेत्रीय दलों को गठबंधन में शामिल होने को लगभग मजबूर कर दिया है। गठबंधन की मजबूती एनडीए हटाओ से जितनी जुड़ी है, उतनी सीट शेयरिंग और कौन बनेगा प्रधानमंत्री को लेकर झगड़ा है ही नहीं। इसे वक्त का तकाजा कहा जा सकता है, अन्यथा 1977 के अलावा गठबंधन अक्सर अपने-अपने लाभ के लिए बनता रहा है।  

लेकिन गणित और केमिस्ट्री के साथ एक तीसरा पहलू भी है, जो विपक्ष ही नहीं जनता-जनार्दन की उम्मीदों को पलीता लगाने में सक्षम है। इसे आजकल स्मार्ट पॉलिटिक्स कहा जाता है, जिसे असल में अनैतिकता की श्रेणी में रखा जाना चाहिए और हेय दृष्टि से देखा जाना चाहिए। लेकिन आजकल की पीढ़ी में लव और पॉलिटिक्स में सफलता के लिए किसी भी तिकड़म को अपनाकर सफलता हासिल करने वाले व्यक्ति को हिकारत की नजर से देखने के बजाय ‘शेर आया-शेर आया’ की उपाधि से नवाजने की संस्कृति ने जन्म ले लिया है। 2014 से संसदीय चुनावों के मद्देनजर देखते ही देखते इतने बदलाव हुए हैं कि 2024 चुनाव को आप पिछले चुनावों से मिलाकर देख ही नहीं सकते। बस इतना समझ लें कि 2014 तक जो क्षेत्र रेगिस्तान रहा हो, वहां पर 2023 में बाढ़ और तूफ़ान का राज हो। 

कार्पोरेट का अकूत धन  

सबसे पहले यह देखना होगा कि क्या चुनाव अब कहीं से भी ‘लेवल प्लेयिंग फील्ड’ रह गये हैं? इस बीच एक दल के पास अकूत धन-संपत्ति का इतना बड़ा जखीरा जमा हो गया है कि ‘एक अकेला, सब पे भारी’ का जुमला असल में इसी संदर्भ में चरितार्थ होता है। इस संदर्भ में एडीआर की रिपोर्ट लगातार देश को चेता रही है, लेकिन देशवासी ही नहीं विपक्षी दल भी अभी तक 2014 से पहले वाले मोड से बाहर नहीं निकल पाए हैं। इलेक्टोरल बांड में भाजपा को चंदा देने वाले कॉर्पोरेट की कतार लगी है, जिसका खुलासा करने की जरूरत नहीं है।

इस ‘एक हाथ दे-दूजे हाथ ले’ के खेल के साथ-साथ विपक्ष के छोटे-मोटे समर्थक कारोबारियों को ढूंढ-ढूंढकर ईडी, सीबीआई, आयकर विभाग की मदद से पस्त करने का खेल अब किसी से छिपा नहीं है। लेकिन मजे की बात है कि विपक्ष इस बात को मजबूती से कहने से बचता आ रहा है। ऐसे में मुकाबला स्टेन गन बनाम दुनाली बंदूक सरीखा हो जाता है, जिसमें एक पक्ष के पास मीडिया, सोशल मीडिया, शानदार सभा और जुलूस और रोड शो के जरिये इस भौतिकवादी हो चुकी जनता को लुभाना और ‘छा जाने’ की जादुई शक्ति प्राप्त हो जाती है, उसके बारे में आजादी के बाद से ही शिकायत आम थी। लेकिन आज लोकतंत्र में इतने पैबंद लग चुके हैं कि अब विपक्षी दल सुरा और नोट के बदले वोट की घटनाओं को देखकर भी अनदेखा कर रहे हैं।  

वोटिंग मशीन ईवीएम की भूमिका

इस विषय पर भारत में विवाद अभी थमा नहीं है। यूपीए शासन के दौरान भाजपा की ओर से ईवीएम में गड़बड़ी को लेकर अक्सर बयान आते थे। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता और राष्ट्रीय प्रवक्ता ने ईवीएम में धांधली की आशंका को लेकर बाकायदा एक किताब तक लिख डाली थी। इसके बावजूद हाल ही में अशोका यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफेसर सव्यसाची दास का शोध-प्रबंध बताता है कि 2014 तक ईवीएम के माध्यम से चुनावी परिणाम कुलमिलाकर आश्वस्त करने वाले थे। लेकिन 2019 आम चुनावों और बाद में विधानसभा चुनावों के अध्ययन को लेकर उनकी यह धारणा बदल जाती है।

इस सिलसिले में पिछले महीने ही सर्वोच्च न्यायालय ने मई 2019 के दौरान हुए लोकसभा चुनावों में ईवीएम और वीवीपेट के मतों का मिलान के संबंध में दाखिल एक याचिका पर चुनाव आयोग को जवाब देने का निर्देश दिया है। वर्तमान में सिर्फ 2% मतों को ही वीवीपेट पर्ची के माध्यम से संपन्न किया जाता है। लेकिन 4 वर्ष से अधिक समय गुजर जाने के बाद भी चुनाव आयोग को इसकी सुध नहीं है। 

जाहिर सी बात है कि वीवीपेट की पर्चियों से यदि कुछ दिनों के भीतर ही मिलान न किया जाये तो उसके अक्षर धुंधला जाते हैं, और कुछ माह बाद तो यह सिर्फ कागज का टुकड़ा ही रह जाता है। दुनिया के अधिकांश देशों में आज के दिन ईवीएम के माध्यम से चुनाव पर रोक है। जर्मनी जैसे देशों ने तो इसे गैर-संवैधानिक घोषित कर दिया है। कुछ लोगों का तो यहां तक कहना है कि आज यदि भाजपा चुनाव हार जाए तो अगले दिन से ही वह चुनावों में फिर से ईवीएम के विरोध में उतर जायेगी। फिर यह सवाल भी अपनी जगह पर वैध है कि ईवीएम का मकसद तत्काल परिणाम घोषित करने से जुड़ा था।

बैलट पेपर में उम्मीदवारों की लंबी लिस्ट और एक-एक बैलट पेपर की जांच में काफी समय लगता था, जिसके चलते ईवीएम की राह पकड़ी गई थी। आजकल इतने दौर का मतदान होता है कि अक्सर डेढ़ महीने तक चुनाव जारी रहते हैं। फिर ईवीएम के बक्सों की हिफाजत के लिए मारामारी रहती है। ऐसे अनेकों उदाहरण हमारे सामने आते हैं, जिसमें ईवीएम के बक्सों की हेराफेरी या स्ट्रोंग रूम की महीने भर चौबीसों घंटे पहरेदारी ही निष्पक्ष चुनाव की गारंटी मान ली जाती है। कुलमिलाकर यह चुनाव जीत के दो प्रबल दावेदारों तक सीमित होकर रह जाता है, और बाकी उम्मीदवारों की निरर्थकता असल में लोकतंत्र पर ही बड़ा सवालिया निशान छोड़ जाती है। 

ईवीएम मशीन की खरीद किससे की जानी है, वे कौन सी महत्वपूर्ण लोकसभा क्षेत्र हैं जहां पर बेहद कड़ा मुकाबला है और उस लोकसभा में किस क्षेत्र के वोटों में अपेक्षित फेरबदल करने से अपेक्षित परिणाम हासिल किये जा सकते हैं, यह जानना आज के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस युग में कठिन नहीं रहा। आज फोन पर बात करने पर ही अगले पल गूगल हर सोशल मीडिया साईट पर आपको आपकी पिछली सर्च के आधार पर वस्तुओं का विज्ञापन देकर लुभाने लगता है, तो आपको क्या लगता है कि आपकी पसंद-नापसंद और जातीय, धार्मिक और नस्लीय पहचान को सांसदी का चुनाव लड़ने वाला उम्मीदवार अपने सैकड़ों बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं की मदद से नहीं हासिल कर सकता?

आज जब 5 साल में एक कॉर्पोरेट घराना सरकार का चहेता बनकर करोड़पति से खरबपति बन सकता है, तो ऐसे सोना देने वाली मुर्गी को भला वह हारने दे सकता है? आपके लिए भले ही आपके वोट की कीमत का कोई मोल नहीं, लेकिन इसका सबसे अधिक मोल उन चंद कॉर्पोरेट घरानों को है जो 2000 के बाद से देश के भविष्य पर ग्रहण बनकर छा चुके हैं।

मतदाता सूची से करोड़ों दलितों-मुसमलानों के नाम गायब 

4 करोड़ दलित एवं 3 करोड़ मुस्लिम मतादाताओं के नाम 2019 मतदाता सूची से गायब पाए गये थे। चौंकिए नहीं, 2019 के आम चुनाव से पहले ही यह चेतावनी विभिन्न राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं की सुर्ख़ियों में छाई हुई थी कि करीब 12.7 करोड़ भारतीयों के नाम मतदाता सूची में न होने की संभावना है। मिसिंग वोटर एप्प नाम से हैदराबाद के 38 वर्षीय रे लैब्स के सीईओ खालिद सैफुल्ला के निष्कर्ष के अनुसार, देश में 15% वैध मतदाताओं को 2019 में अपने मताधिकार के अधिकार से वंचित होना पड़ेगा।

सोचिये, 2024 के अनुमान 1-2% के अंतर पर सरकार बनाने के हैं, ऐसे में 15% मतदाताओं को चिंहित कर यदि बाहर कर दिया जाता है, तो यह एक तरह से जीत को हार में बदल देना होगा। फरवरी 2019 तक की गणना में 25% मुस्लिम और 20% दलित मतदाताओं पर इसकी सीधी मार पड़ रही थी। चुनाव बाद भी कई क्षेत्रों से इस बात की पुष्टि हुई थी। यह बेहद गंभीर मामला है और सीधे-सीधे किसी भी वयस्क भारतीय के मौलिक अधिकारों के हनन का मामला है। 

पिछले वर्ष कर्नाटक चुनाव से पहले कुछ विधान सभा क्षेत्रों में मतदाताओं की पहचान, वोटर लिस्ट में नाम जोड़ने और हटाने की मुहिम पर बड़ा बवाल खड़ा हुआ था। वहां पर 9 नवंबर से वोटर की पहचान मुहिम शुरू की गई थी, लेकिन उससे पहले ही अक्टूबर में एक एनजीओ की ओर से फेक वेरिफिकेशन चलाई गई थी, जिसको लेकर कर्नाटक में भारी शोर-शराबा देखने को मिला था। बूथ स्तर पर अगर किसी राजनीतिक पार्टी का राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बेहतर प्रबंधन है तो वह पार्टी भाजपा है।

पन्ना प्रमुख नाम अक्सर सुनने को मिलता है, जिसका अर्थ है इलेक्टोरल रोल में एक पन्ने पर जितने मतदाताओं की सूची होती है, उसका प्रबंधन करने के लिए जिम्मेदार व्यक्ति। इस सघन तैयारी के मुकाबले में विपक्षी पार्टियों की स्थिति क्या है, यह उनके लिए विचारणीय प्रश्न है।अक्सर इन क्षेत्रों में प्रभुत्वशाली दल के असरदार लोग वोटर लिस्ट में नाम जोड़ने या हटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 

इसके अलावा गुजरात में दो-दो बार विधानसभा चुनाव कवर करने गये जनचौक संपादक महेंद्र मिश्र ने ग्राउंड पर जाकर पाया था कि एक पार्टी जिसे मालूम था कि कैश फॉर वोट की अपील के बावजूद कुछ समुदाय चुनाव के दिन उनकी पार्टी को वोट नहीं करेंगे तो इसके लिए उन्होंने अनोखी तरकीब खोज निकाली थी। 1000 रूपये नोट के बदले चुनाव से एक दिन पहले बड़ी संख्या में ऐसे मतदाताओं के अंगूठे पर वोट डालने के प्रमाण वाली स्याही लगा दी जाती थी। इस प्रकार उस दिन वे मताधिकार का प्रयोग न कर असल में उस पार्टी के ही पक्ष में काम कर जाते थे। 

चुनाव डयूटी के कर्मचारियों के माध्मय हेर-फेर

अशोका यूनिवर्सिटी के सव्यसाची दास ने चुनावों के दौरान केंद्रीय प्रशासनिक सेवाओं और राज्य प्रशासन के तहत कार्यरत अधिकारियों की नियुक्ति को भी चुनावों को प्रभावित करने का प्रश्न उठाया है। दास के मुताबिक भाजपा शासित राज्यों के राज्य स्तरीय अधिकारियों से अपने पक्ष में चुनाव परिणाम हासिल करना ज्यादा सहज और अपेक्षित था। वोट डालने से लेकर वोटों की गिनती में इन चुनावी मशीनरी का संचालन देख रहे अधिकारियों की कई महत्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। 

2024 का परिणाम जिस किसी के पक्ष में हो, लेकिन इसे निष्पक्ष और निष्कलंक बनाने की जिम्मेदारी सरकार, चुनाव आयोग, सर्वोच्च न्यायालय, विपक्षी दलों सहित देश के सभी मतदाताओं की है। विश्व में भारत भले ही जीडीपी विकास के मामले में अव्वल नजर आता हो, लेकिन असल बात तो यह है कि शेष विश्व आज भारत के लोकतंत्र को संदेह की नजर से देख रहा है।

इस एक सूचकांक के अलावा सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, वैयक्तिक स्वतंत्रता, प्रेस फ्रीडम, भुखमरी, शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला आजादी, अल्पसंख्यकों के अधिकार सहित लगभग सभी सूचकांकों में भारत की स्थिति दिन प्रतिदिन भयावह होती जा रही है। कई लोग अब मानने लगे हैं कि संभवतः 2024 आखिरी चुनाव हों। चुनावी लोकतंत्र से चुनावी तानाशाही में बदलते भारत की दिशा को एक बार फिर से मोड़ने के लिए यह आखिरी मौका आपके सामने हाजिर है। 

( रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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