Sunday, April 28, 2024

सरकार के पास न कोई नीति है, न नीयत और न ही प्रतिभा

दुनियाभर में सीएए और दिल्ली हिंसा के मामलों में, बाहरी देशों की संसद से लेकर वहां के नगर निगमों तक में बहसें हो रही हैं, हमारी सरकार की नीयत पर सवाल उठाए जा रहे हैं,  हमारे संविधान के प्रावधान हमें ही याद दिलाये जा रहे हैं, कुछ देश हमें सामाजिक सद्भाव रखने की सलाह दे रहे हैं तो कुछ के स्वर में धमकी का भी अंश है, और हमारी लोकसभा के स्पीकर कह रहे हैं, पहले होली हो जाए, तब वे बहस कराएंगे। ऐसा सत्तर सालों में भी नहीं हुआ होगा। 

विदेशी संसदों से लेकर नामचीन विदेशी अखबारों तक में जो कुछ भी कहा सुना जा रहा है और छप रहा है उसे अगर देश के आंतरिक मामलों में एक हस्तक्षेप मान भी लिया जाए, तो इसकी नौबत क्यों और कैसे आयी, यह सोचने की बात है। विदेश मंत्रालय सरकार के फैसलों को दुनिया भर में समझाने और छवि सुधार की कवायद के लिये लगा हुआ है। लेकिन अगर इन सबको आत्मावलोकन की दृष्टि से देखें तो यह एक कटु सत्य है कि, दुनिया आज हमें बेहतर नज़र से नहीं देख रही है। 

देश के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह बहुत कम बोलते हैं। वाचालता भरी राजनीति में अल्पभाषी नेता अक्सर मिस फिट भी होता है, अगर उसका जनाधार न हो तो। डॉ. सिंह ऐसे ही एक राजनेता हैं, जिनके ऊपर उन्हीं के मीडिया सलाहकार ने ‘एन एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ जैसी एक किताब लिखी और अनुपम खेर ने उसी पर एक फ़िल्म भी बना दी। यह अलग बात है कि न तो किताब बहुत लोकप्रिय हुयी और न ही फ़िल्म चल पायी। पर अल्पभाषी का अर्थ अल्पज्ञानी नहीं होता है। डॉ. मनमोहन सिंह ने 2014 के बाद से अब तक तीन ऐसे वक्तव्य दिए हैं, जो जब बोले जा रहे थे तो, लोगों को बहुत रास नहीं आये पर, अब उनकी कही वे सभी बातें प्रोफेटिक, भविष्य कथन जैसी लग रही हैं। 

याद कीजिए, 2014 में लोकसभा के चुनाव आसन्न थे। देश गुजरात मॉडल की खुमारी में डूबा हुआ था। एक अवतार का जन्म हो रहा था। यूपीए 2 के कार्यकाल के अनेक घोटाले उजागर हो रहे थे। डॉ. मनमोहन सिंह सबसे अधिक निशाने पर थे। वे जनाधारविहीन तो थे ही, और राजनीतिक तिकड़म की कमी भी उनमें थी। चुनाव में उनकी सरकार गिर गयी। वे पीएम पद से हट गए थे। उन्होंने एक प्रेस वार्ता में कहा था, कि 

“इतिहास मेरे प्रति इतना निर्दयी नहीं होगा और मुझे इस रूप में नहीं याद रखेगा जैसा कि आजकल कहा जा रहा है।”

आज सचमुच में इतिहास उनके प्रति सदय हो गया है और जब जब देश की बिगड़ती आर्थिक स्थिति की बात उठती है तो, उनकी याद भी आर्थिक मामलों के जानकारों को आ जाती है। 

उनका दूसरा कथन 8 नवम्बर 2016 को नोटबन्दी के कथित मास्टरस्ट्रोक के बाद संसद  में कहा गया उनका वक्तव्य था। नोटबंदी पर हो रही बहस के दौरान राज्यसभा में उन्होंने कहा था कि, “यह एक संगठित लूट और कानूनी डकैती है। उन्होंने इसे दो बार कहा था। आई रिपीट, इट इज़ एन ऑर्गेनाइज़्ड लूट एंड लीगलाइज़्ड प्लंडर।” 

इसके आगे वे कहते हैं कि 

” इससे देश की जीडीपी में 2% की गिरावट आएगी”। 

उनकी, उस समय की गयी, यह भविष्यवाणी भी सच साबित हुयी। नोटबंदी देश के आर्थिक इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला है, और उसके बाद जो आर्थिक दुर्गति शुरू हुयी वह अर्थव्यवस्था में एक घातक कैंसर की तरह आज दिखाई दे रही है। 

तीसरी बात उन्होंने कही थी कि मोदी देश के लिये एक विध्वंसक साबित होंगे। उन्होंने डिजास्टर शब्द का उपयोग किया है। अगर देश के सामाजिक सद्भाव और आर्थिक स्थिति की यही गिरावट दर जारी रही तो यह बात दुर्भाग्य से सच साबित हो सकती है। 

देश के हालात पर चिंता जाहिर करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा है कि अर्थव्यवस्था गहरे कुचक्र में फंस गई है। ‘द हिंदू’ अखबार में डॉ. मनमोहन सिंह ने एक लेख लिखा है जिसके मुख्य बिन्दुओं पर एक नज़र डालते हैं। आर्थिक विचारक के दृष्टिकोण से उस लेख को पढ़ा जाना चाहिए। 

उक्त लेख के अनुसार, 

भारत उदारवादी लोकतांत्रिक देश है, लेकिन आज वैश्विक दृष्टि में आर्थिक निराशा में घिरा बहुसंख्यकवादी देश बन गया है। भारत इस समय सामाजिक द्वेष, आर्थिक मंदी और वैश्विक स्वास्थ्य महामारी के तिहरे ख़तरे का सामना कर रहा है।

● सामाजिक तनाव और आर्थिक बर्बादी तो स्व-प्रेरित हैं, लेकिन कोरोना वायरस की वजह से हो रही कोविड-19 बीमारी एक बाहरी झटका है। मुझे ग़हरी चिंता है कि ख़तरों का यह घालमेल न सिर्फ़ भारत की आत्मा को छलनी करेगा, बल्कि, दुनिया में हमारी आर्थिक और लोकतांत्रिक ताक़त और हमारी वैश्विक पहचान पर भी असर डालेगा। 

बीते कुछ हफ़्तों में दिल्ली में भीषण हिंसा हुई, जिसमें हमने अपने 50 से अधिक देशवासियों को बेवजह खो दिया। कई सौ लोग घायल हुए हैं।लोगों के घरों को बेवजह जला दिया गया। यूनिवर्सिटी परिसर, सार्वजनिक स्थान और लोगों के निजी घर सांप्रदायिक हिंसा के दंश झेल रहे हैं। यह भारत के इतिहास के उन काले पन्नों की याद दिला रहे हैं, जो हम आज़ादी के समय भोग चुके थे। 

● क़ानून व्यवस्था लागू करने वालों ने नागरिकों की सुरक्षा के अपने दायित्व धर्म को त्याग दिया है। न्यायिक प्रतिष्ठानों, और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया ने भी निराश किया है।

सामाजिक तनाव की आग देश में बेरोकटोक  फैल रही है, जो हमारे देश की आत्मा के लिए ख़तरा बन गई है। इस आग को वही लोग बुझा सकते हैं, जिन्होंने ये आग लगाई है। सांप्रदायिक हिंसा की हर घटना गांधी के भारत पर एक धब्बा है।

● सामाजिक तनाव का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी होगा। ऐसे समय में जब हमारी अर्थव्यवस्था बुरे दौर से गुज़र रही है, सामाजिक तनाव का असर यह होगा कि आर्थिक मंदी और तेज़ हो जाएगी। आर्थिक विकास का आधार सामाजिक सौहार्द है, लेकिन अब इस पर ख़तरा बढ़ता जा रहा है। 

जब देश में हिंसक घटनाओं के फैल जाने का ख़तरा मंडरा रहा है तो करों में बदलाव और कॉर्पोरेट प्रोत्साहन देने से भी भारतीय या विदेशी निवेशक पैसा लगाने के लिए प्रेरित नहीं होंगे।

● निवेश, न होने का मतलब है नौकरियां और आय का न होना, और इसका नतीजा होता है ख़पत और मांग में कमी। खपत की कमी निवेशकों को और हतोत्साहित करेगी। इस तरह से देश की अर्थव्यवस्था एक कुचक्र में फंस गई है।

● मेरा विश्वास है कि सरकार को तीन बिंदुओं की योजना पर जल्दी अमल करना चाहिए। 

सबसे पहले,कोविड – 19 ( COVID-19 ) के खतरे से निपटने के लिए पूरी ताकत के साथ प्रयास करना चाहिए, जिससे उससे निपटने के लिए हम पूरी तरह से तैयार हो जाएं।

◆ दूसरा यह कि सीएए को वापस लेना चाहिए या नागरिकता अधिनियम में संशोधन करना चाहिए, जिससे जहरीला सामाजिक वातावरण खत्म हो जाए और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिले।

◆ तीसरा, खपत और मांग को बढ़ाने और अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए एक विस्तृत और सावधानीपूर्वक राजकोषीय प्रोत्साहन योजना, को जोड़ा जाना चाहिए।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सलाह देते हुए डॉ. सिंह ने कहा है कि राष्ट्र को केवल शब्दों के माध्यम से नहीं, बल्कि कर्मों के माध्यम से यह विश्वास दिलाना चाहिए कि वह उन खतरों से परिचित है, जिनसे हम राष्ट्र को इस बात से आश्वस्त कर पाएं कि हम कितनी आसानी से इन खतरों का हम सामना कर सकते हैं। उन्हें तुरंत कोविड – 19 ( COVID-19 ) से पैदा हुए डर के लिए आकस्मिक  योजना का विवरण की जानकारी लोगों को देनी होगी। 

आज आर्थिक और सामाजिक क्षितिज पर धुंए के जो बादल दिख रहे हैं, उनकी भी चर्चा ज़रूरी है। दो दिन से यसबैंक के गंभीर संकट में आने की खबरें देश भर के नागरिकों का बैंकिंग व्यवस्था में उनके विश्वास को डांवाडोल कर रही हैं। यसबैंक डूबने के कगार पर है। इसका कारण, सरकार के अनुसार, 

” यस बैंक की वित्तीय स्थिति में लगातार गिरावट आई है। और इसका कारण यह रहा कि संभावित ऋण घाटे से उबरने के लिए यस बैंक पूंजी जुटाने में असमर्थ रहा। यस बैंक खुद को संभाल पाए, इसके लिए आरबीआई ने उसे हर संभव सहयता दी। साथ ही उसे मौके दिए कि वो कुछ पैसे बैंक के लिए इकट्ठा कर पाए। लेकिन इन सब से कोई फायदा होता नहीं दिखा। बैंक के बोर्ड को 30 दिनों की अवधि के लिए अधिगृहीत किया गया है। भारतीय स्टेट बैंक के पूर्व सीएफओ (मुख्य वित्त अधिकारी) प्रशांत कुमार को यस बैंक का प्रशासक नियुक्त किया गया है। अगले आदेश तक बैंक के ग्राहकों के लिए निकासी की सीमा 50,000 रुपये तय की गई है।”

आज बैंकिंग सेक्टर में आरबीआई से लेकर एक सामान्य से कोऑपरेटिव बैंक तक की हालत खराब दिख रही है। आरबीआई के डिप्टी गवर्नर ने भी कुर्सी छोड़ दी है, और जीडीपी को फर्जी आंकड़ो के दम मर व्हाइट वाशिंग कर के परोसा जा रहा है। जहाँ तक आर्थिक मामलों का संबंध है सरकार इस क्षेत्र में प्रतिभा विपन्नता की समस्या से भी जूझ रही है। 

आज एक भी ऐसा दक्ष अर्थशास्त्री सरकार के पास नहीं है जो इस जटिल समस्या का समाधान सुझा सके। डॉ. मनमोहन सिंह तो कांग्रेस के हैं, उनकी बात थोड़े समय के लिये छोड़ दीजिए तो भाजपा के ही सांसद और आर्थिकी के जानकार डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी खुद कह चुके हैं कि सरकार के पास न तो अर्थव्यवस्था संभालने के लिये कोई स्पष्ट नीति है, न नीयत है और न ही प्रतिभा है। 

दुनिया एक घातक वायरस के गिरफ्त में है, और इसका क्या असर पड़ेगा देशों के जन और अर्थ स्वास्थ्य पर, इसका आकलन कर रही है, पर यहां हमारी सरकार की प्राथमिकता,  कुछ राज्य सरकार गिराना और दो एक राज्यसभा सीट जीत लेना है। जीत भी गये तो करेंगे क्या, जब सरकार चलाने की कला ही न आती हो और न कुछ सार्थक करने की नीयत भी हो। 

उधर सुप्रीम कोर्ट कह रही है हिंसा के मामले में वह तब सुनवायी करेगी जब सब जगह शांति हो जाय। लोकसभा के स्पीकर कह रहे हैं कि, पहले होली हो जाय तब वे दिल्ली दंगे पर बहस कराएंगे। गृहमंत्री इन पूरे हंगामों के बीच अंडरग्राउंड हैं और पीएम यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि सोशल मीडिया छोड़ें या इसे चलाते रहें। सुप्रीम कोर्ट में दखल याचिका दायर करना यूएन मानवाधिकार का अब तक का अभूतपूर्व कदम है। 

केवल यूएन ही नहीं दुनिया के सारे बड़े मीडिया संस्थान जिस तरह से दिल्ली हिंसा के बारे में रिपोर्ट कर रहे हैं, उससे प्रधानमंत्री जी की उस अंतरराष्ट्रीय छवि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है, जिसे पीएम ने अपने पिछले कार्यकाल में दुनियाभर में घूम घूम कर, अरबों रुपये खर्च कर बनाने की कोशिश की थी। यह भी अजीब बात है, हेट स्पीच देने वाले सरकार में बैठे हैं और सरकार उन्हें सुरक्षा दे रही है। 

पुलिस की तो बात ही छोड़िये। लगता है, वह तो अब कहीं है ही नहीं। अब तो यह हालत हो गयी है कि वह कोई प्रथम सूचना की एफआईआर तक नहीं लिख सकती है। पुलिस पर बेजा राजनीतिक दबाव भी है। आज वह अपनी मर्ज़ी से न तो दंगे रोक सकती है न ही कानून को कानूनी तरह से लागू कर सकती है। सरकार के छोटे बड़े मंत्री, सांसद और नेता सड़कों पर करेंट लगाने, गोली मारने, लोगों को रेप से धमकाने और डीसीपी के सामने ही हिंसा का अल्टीमेटम खुले आम दे कर सीना फुलाये चले जा रहे हैं और पुलिस, न जाने किसके डर से एक मुकदमा तक दर्ज नहीं कर पा रही है, गिरफ्तारी और जांच की तो बात ही अलग है।

पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह सर के अनुसार पुलिस को लकवा मार गया है। हाईकोर्ट की भी हिम्मत नही पड़ रही है कि वह उन हेट स्पीच देने वालों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने का एक सामान्य और ज़रूरी निर्देश दे सके। उन हेट स्पीच वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई की तो बात ही अलग है। सुप्रीम कोर्ट ने तो अब यह खुली अदालत में मान ही लिया है कि वह दबाव में है। आप अगर सरकार के समर्थन में हैं तो इसे उपलब्धि भी मान सकते हैं।

चाहे अर्थव्यवस्था का क्षेत्र हो, या कानून व्यवस्था का, या जनहितकारी कानून बनाने का दायित्व हो या उन्हें लागू करने की जिम्मेदारी, विदेशनीति से जुड़े मसले हों या व्यापार वाणिज्य की बात हो, सरकार हर मोर्चे पर बदहवास दिख रही है। ऐसी दशा में सत्तारूढ़ दल अपने कोर वोटरों और समर्थकों को धर्म, सम्प्रदाय, हिंदू मुस्लिम, पाकिस्तान आदि बेमतलब के जज़्बाती मुद्दों में उलझाए रखने के लिए अभिशप्त है। 

यह शासन न करने की कला है या यह सब किसी गम्भीर साज़िश का संकेत या घोर अकर्मण्यता का द्योतक, या सरकार, शासन की प्राथमिकता तय नहीं कर पा रही है या उसके सारे जुमले सर्प बन कर उससे लिपट गये हैं यह तो अभी नहीं कहा जा सकता है, पर वसंत में जो यह डरावना मौसम बन रहा है वह एक अशनि संकेत है। 

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

एक बार फिर सांप्रदायिक-विघटनकारी एजेंडा के सहारे भाजपा?

बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद हमेशा से चुनावों में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए सांप्रदायिक विघटनकारी...

Related Articles

एक बार फिर सांप्रदायिक-विघटनकारी एजेंडा के सहारे भाजपा?

बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद हमेशा से चुनावों में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए सांप्रदायिक विघटनकारी...