महुआ नहीं, संसद हुई है कलंकित

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भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में शुक्रवार को एक और काला पन्ना जुड़ गया। यह इबारत कहीं और नहीं बल्कि देश की सबसे बड़ी पंचायत के गर्भगृह में उस समय लिखी गयी। जब भरी सभा में एक बिल्कुल बेकसूर महिला से उसकी संसद सदस्यता छीन ली गयी। सदन का पूरा दृश्य महाभारत से पहले हुए कौरवों और पांडवों की सभा की याद ताजा कर दी। द्रौपदी के रूप में बैठी महुआ मोइत्रा को जलील करने के लिए सत्ता पक्ष के सांसदों ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। आधार बनाया गया एथिक्स कमेटी की रिपोर्ट को। 

वह कमेटी जिसने जांच की न्यूनतम औपचारिकताएं भी पूरी करनी जरूरी नहीं समझी। आरोपी पक्ष को अपनी बात रखने का मौका देना अगर किसी जांच की बुनियादी शर्त है तो प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत कहता है कि आरोप लगाने वाले शख्स को भी सामने पेश कर उससे जिरह का समय दिया जाना चाहिए। जिससे दूध का दूध और पानी का पानी हो सके। लेकिन यहां एथिक्स कमेटी में जो हुआ वह भूतो न भविष्यति था। यहां द्रौपदी के चीरहरण की शुरुआत एथिक्स कमेटी की उस बैठक से ही शुरू हो गयी थी। जब उसके अध्यक्ष विनोद सोनकर ने महुआ मोइत्रा से पूछताछ के दौरान शालीनता की सारी सीमाएं पार कर उनके चरित्र हनन की कोशिश शुरू कर दी। 

किसी गांव की पंचायत के पंच भी उस भाषा का इस्तेमाल नहीं करते जिसका उस समय सत्ता पक्ष से जुड़े कमेटी के सदस्यों ने किया। बैठक में ऐसे-ऐसे गैर ज़रूरी सवाल पूछे गए जिनका इस मामले से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं था। मसलन उनसे पूछा गया कि वह रात में कब-कब हीरानंदानी से बात करती थीं? क्या उनकी पत्नी को बातचीत के इस सिलसिले की जानकारी थी? इस तरह के सवाल किसी की न केवल निजता का हनन करते हैं बल्कि एक सभ्य समाज न बन पाने की हमारी सीमाओं को भी उजागर कर देते हैं।

इसके साथ ही यह भी साबित करते हैं कि देश में अगर सांसद के साथ ऐसा हो रहा है तो फिर आम महिलाओं के साथ किस तरह का व्यवहार किया जा सकता है। पुरुष प्रभुत्व का यह चरम रूप था जो संसद के माथे पर चढ़ कर बोल रहा था। लेकिन सत्ता पक्ष के किसी एक शख्स ने इसका प्रतिकार करना जरूरी नहीं समझा। वह स्पीकर हों या कि देश के प्रधानमंत्री। यहां तक कि किसी महिला पक्ष की तरफ से भी इस पर एतराज नहीं जताया गया। 

जबकि कहने को देश के सर्वोच्च राष्ट्रपति पद पर इस समय एक महिला विराजमान हैं। 21 वीं सदी के भारत और एक खुले समाज में जबकि हर क्षेत्र में महिलाओं को बराबर की हिस्सेदारी दी जा रही है, तब एक महिला को भरी सभा में जलील किया जा रहा है। और उसका कहीं से प्रतिकार नहीं होता है। और फिर आधी-अधूरी सुनवाई के बाद (आधी-अधूरी इसलिए क्योंकि न तो उसमें महुआ का पूरा पक्ष सुना गया और न ही उनसे आमने-सामने बैठा कर जिरह कराने के लिए आरोप लगाने वाले हीरानंदानी को बुलाया गया) जबकि इन कमेटियों को यह अधिकार होता है कि वह कभी भी बाहर के किसी भी शख्स को जरूरत पड़ने पर बुला कर उनसे पूछताछ कर सकती हैं। 

यहां तो संबंधित शख्स खुद एक पक्ष था और उसी के आरोप पर यह पूरा मामला खड़ा हुआ था। आरोप था पैसे के बदले सवाल पूछने का। लेकिन न तो किसी पैसे के लेन-देन की बात सामने आयी और न ही उसकी जांच करने की जरूरत समझी गयी। हां महुआ मोइत्रा ने ज़रूर अपनी तरफ से बताया कि संबंधित शख्स ने उनके लिए कोई पर्स और कभी कोई लिपिस्टिक खरीदी थी। इसके अलावा कभी-कभी एयरपोर्ट से कहीं जाने पर उनके लिए टैक्सी मुहैया करवाता था। अब अगर कमेटी इसी को कैश फॉर क्वेरी समझ बैठी तो फिर यह उसकी सोच की बलिहारी है। वरना लेन-देन जैसा और कुछ कमेटी ने तो साबित नहीं किया। 

और हां जिस पासवर्ड और लॉगइन एक्सेस की बात कही जा रही है वो तो बहुत कम ही सांसद होंगे जो खुद से लॉग-इन करते होंगे और सवाल लिखते होंगे। उनके पास उसके लिए बाकायदा स्टाफ होता है। और वही सभी लॉग-इन और पासवर्ड संबंधी व्यवस्थाओं को देखता है। अगर पासवर्ड और लॉगइन किसी दूसरे को बताने के आधार पर किसी का निलंबन किया जाए तो पूरी संसद खाली हो जाएगी। और दो तिहाई सांसदों के खिलाफ इस तरह की कार्यवाही करनी पड़ेगी। और आज कल तो ओटीपी की व्यवस्था हो गयी है।

अगर किसी को लॉगइन और पासवर्ड पता भी चल जाए तो बगैर ओटीपी के उसको एक्सेस नहीं मिल सकता है। और जैसा की महुआ ने बताया था कि ओटीपी की व्यवस्था के तहत ही उन्होंने सवालों को तैयार करने का अधिकार दिया था। यानि महुआ जो सवाल चाहती थीं उसी को लिखने की व्यवस्था हीरानंदानी के स्टाफ के जरिये सुनिश्चित करायी जाती थी। लेकिन कमेटी को न तो इन तर्कों को सुनना था और न ही उसको समझना था। 

उसे किसी भी कीमत पर महुआ मोइत्रा की बलि लेनी थी। और इस मामले में हीरानंदानी पर किस स्तर का दबाव डाला गया होगा इसका सहज ही अंदाजा लगा जा सकता है। आचरण समिति का आचरण बिल्कुल अनैतिक था। उसने महुआ को तो पूरा नहीं ही सुना उसपर हीरानंदानी को भी बुलाना जरूरी नहीं समझा। ऊपर से फैसले के दिन को इस तरह से चुना जिससे मौके पर विपक्षी सांसदों की संख्या कम से कम हो। और इस तरह से कमेटी ने अपनी सीमाओं से पार जाकर महुआ मोइत्रा के सदन से निलंबन की संस्तुति कर दी। जो किसी भी रूप में एक आचरण समिति के दायरे में नहीं आता है। जैसा कि बहस के दौरान कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने सदन में रखा भी। 

उन्होंने कहा कि आचरण समिति का यह कतई अख्तियार नहीं है कि वह किसी सदस्य के बारे में सजा का कोई फैसला कर सके। वह उसको दोषी या बरी कर सकती है लेकिन सजा देने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ सदन को है। और इसी लिहाज से उन्होंने सदन से एक ज्यूरी की तरह व्यवहार करने की गुजारिश की। क्योंकि यह मामला एक सदस्य को दंडित करने या फिर न करने से संबंधित था। लेकिन स्पीकर साहब इसको मानने के लिए तैयार ही नहीं थे। अब उनको कौन समझाए कि सदन के भीतर की कार्यवाही में सर्वोच्च न्यायालय को भी दखल देने का अधिकार नहीं है।

इसीलिए सांसदों का दर्जा विशेषाधिकार प्राप्त नागरिक का होता है। लेकिन सदन के भीतर किसी को दंडित करने या फिर छोड़ने की व्यवस्था होती है। और सदन जब इस भूमिका में उतरता है तो वह आटोमैटिक रूप से ज्यूरी में तब्दील हो जाता है। लेकिन स्पीकर बिड़ला साहब अपनी थेथरई पर अड़े रहे। और आखिरी दम तक सदन को ज्यूरी मानने के लिए तैयार नहीं हुए। इसके साथ ही एक और बात इसमें शामिल होती है। ऐसे किसी मौके पर जब न्याय की बात आती है तो उसको करने में शामिल किसी भी शख्स को कोई फैसला लागू करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। लिहाजा सत्ता पक्ष द्वारा जारी किया गया ह्विप न केवल कानूनी बल्कि नैतिक आधार पर भी गलत था। इसमें शुद्ध रूप से सदस्यों के विवेक पर भरोसा किया जाना चाहिए था और उन्हें इस बात की पूरी छूट दी जानी चाहिए थी कि अपने विवेक के आधार पर वह फैसला करें।

लेकिन यहां तो शायद स्क्रिप्ट पहले ही लिख ली गयी थी। भरी सभा में जिसको दंडित किया जा रहा था उसने जब अपना पक्ष रखना चाहा तो उसे उसकी भी इजाजत नहीं दी गयी। और तमाम गैरज़रूरी तर्कों के जरिये उसका मुंह बंद कर दिया गया। इस मौके पर स्पीकर बिड़ला भी अपनी शर्मिंदगी नहीं छुपा सके। लेकिन निर्देशों का बोझ इतना भारी था कि उनके कंधे झुके जा रहे थे। और उसको पूरा करने के लिए बेशर्मी की हर हद वह पार कर जाने के लिए तैयार थे।

आखिर क्यों पूरा सत्ता पक्ष महुआ मोइत्रा को सदन से बाहर निकालने के लिए एकजुट हो गया था? अब यह कोई रहस्य का विषय नहीं है। पूरा देश अडानी और पीएम मोदी के रिश्ते को जानता है। और यह भी जानता है कि अडानी के खिलाफ बोलने वाले की इस देश में खैर नहीं है। मीडिया को चुप कराने के लिए अडानी अक्सर कोर्ट का सहारा लेते रहे हैं। द वायर से लेकर न्यूज़क्लिक तक तमाम मीडिया घरानों के साथ उनके रुख को देखकर कोई भी समझ सकता है। लेकिन सदन के भीतर बैठे सांसदों को चुप कराना उनके लिए समस्या बना हुआ है। संसद में अडानी तो होते नहीं, सदस्यों के सामने उनके दोस्त पीएम मोदी बैठे होते हैं। लिहाजा सारी जिल्लत उन्हें झेलनी पड़ती है। इसलिए अडानी के खिलाफ मुंह खोलने वाले सभी सांसदों को बारी-बारी से निपटाने का सत्ता पक्ष ने फैसला लिया।

शुरुआत राहुल गांधी से की गयी। जब मोदी टाइटिल से जुड़े मानहानि मामले में उनकी सदस्यता रद्द करने की कोशिश की गयी। उसके बाद आप नेता संजय सिंह थे जो सबसे ज्यादा अडानी के मसले पर मुखर रहते थे। जेल में डालकर उनको निपटाया गया। लेकिन इस मामले में महुआ हमेशा से सत्ता पक्ष के आंख की किरकिरी बनी हुई थीं। और शायद ही कोई सत्र ऐसा जाता हो जब वह सत्ता पक्ष को पानी-पानी नहीं करती थीं। और ज्यादातर मौकों पर उनकी घेरेबंदी अडानी से जुड़े मुद्दों पर होती थी। लिहाजा सत्ता पक्ष ने उनको सदन से ही बेदखल करने का फैसला ले लिया। और उसके लिए पूरी साजिश के तहत एक रणनीति बनायी गयी और फिर उसको अंजाम तक पहुंचाने के लिए उसमें निशितकांत दुबे को लगाया गया। और आचरण समिति के सामने महुआ के खिलाफ आरोप के साथ वही निशिकांत दुबे जाते हैं जिनका पूरा जीवन रिलायंस की दलाली में बीत गया। 

लेकिन महुआ ने हार नहीं मानी है। इस मुद्दे पर जिस तरह से विपक्ष सदन के भीतर और बाहर एकजुट होकर खड़ा हुआ है उससे यह साबित हो रहा है कि उसने कौरवी सत्ता के खिलाफ महाभारत का ऐलान कर दिया है। और शुक्रवार सदन के भीतर जाने से पहले महुआ मोइत्रा ने कहा भी था कि द्रौपदी के वस्त्र हरण के बाद अब आप महाभारत देखेंगे। और गांधी प्रतिमा के नीचे धरना देकर विपक्ष ने इसकी शुरुआत भी कर दी है।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के फाउंडर एडिटर हैं।)

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