कमल खिलाने के लिए कीचड़ बनने की पहली शर्त पूरा कर रही है बीजेपी

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कमल कीचड़ में ही खिलता है बीजेपी ने न केवल इसको सैद्धांतिक बल्कि व्यवहारिक तौर पर भी करके दिखा दिया है। पतित से पतित लोगों और भ्रष्टाचार के नाले में गोते लगा रहे नेताओं को जिस तरह से उसने आश्रय दिया है देश की राजनीति में उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलेगी। कमलनाथ तो कमल ही हैं। उनका तो सीधा बीजेपी से रिश्ता बनता है। वह केवल नाम से नहीं बल्कि अपने पूरे वजूद और पहचान के साथ उसके करीबी हैं। कमलनाथ नेता से पहले एक कॉरपोरेट हैं। हजारों करोड़ के मालिक हैं। उनके अपने चार्टर्ड विमान और जेट हैं। जिनसे वह यात्राएं करते हैं। और पूजा-पाठ, भक्ति के दिखावे में वह किसी बीजेपी नेता का भी कान काट लें। मध्य प्रदेश के चुनाव में गली का कोई चुनाव दफ्तर भी बगैर पूजा-पाठ के नहीं खुलता था। और खुद ऊपर से लेकर नीचे तक भगवा रंग में रंगे रहते थे। 

जिस समय बीजेपी बाबरी मस्जिद ढहाए जाने का गौरव गान नहीं कर रही थी उस समय उसको गिराने का श्रेय यह सज्जन राजीव गांधी को देना नहीं भूलते थे। और तकरीबन हर सभा में उसका जिक्र करते थे। तानाशाही इस स्तर की कि कार्यकर्ता और नेता की बात तो दूर अपने हाईकमान तक को सुनने के लिए तैयार नहीं। लक्ष्मण की जोड़ी बनकर साथ चल रहे दिग्विजय को जिस तरह से उन्होंने अपमानित किया उसको पूरे देश ने देखा। कहते हैं पूत के पांव पालने में ही दिखते हैं। कांग्रेस में इनके प्रवेश का राजनीतिक चंदन सिख दंगों की अगुआई के साथ लगा था। और यह बात किसी को नहीं भूलनी चाहिए कि उस दंगे में जितना कांग्रेसी थे उससे ज्यादा संघी शामिल थे। इसलिए इनका भाईचारा वहीं से शुरू हो गया था। 

अनायास नहीं है कि सिख दंगे में शामिल सज्जन कुमार समेत तमाम कांग्रेसी नेताओं का संघ और बीजेपी के लोग घेरेबंदी करते रहे हैं लेकिन कमलनाथ का नाम शायद ही कभी उनकी जुबान पर आता रहा हो। क्योंकि उन्हें पता था कि वह पहले भी साथ रहा है और मौका पड़ने पर भविष्य में भी उसका साथ मिल सकता है। और साथ न भी आए तो कांग्रेस में रहकर भी वह संघी एजेंडे को ही आगे बढ़ाता है। इस लिए इस वैचारिक दोस्त से भला क्या दुश्मनी निभानी। और अब कमलनाथ अगर बीजेपी में आ रहे हैं तो सिर्फ शारीरिक स्थानापन्न है बाकी वैचारिकी में तो दोनों के बीच नाभिनाल का रिश्ता है। और इसके संकेत वह बीच-बीच में देते रहते थे। आपको याद होगा लोकसभा चुनाव के बाद कमलनाथ अपने बेटे नकुल नाथ के साथ पीएम मोदी से मिलने गए थे। और दोनों ने साथ तस्वीरें खिंचाई थीं। उस मुलाकात को लेकर ही विपक्षी खेमे में तमाम तरह के सवाल उठे थे।

बहरहाल हम कुछ आगे ही बढ़ गए। बात यहां कमल और कीचड़ की हो रही थी। जो बीजेपी देश को कांग्रेस मुक्त करने के नारे के साथ आयी थी वह बिल्कुल कांग्रेस युक्त हो चुकी है। इसमें कमलनाथ अकेले नहीं हैं। असम और मणिपुर के हिमंत बिस्वा सरमा और बीरेन सिंह से लेकर पंजाब के सुनील जाखड़ और महाराष्ट्र में अशोक चाह्वाण तक इसी रास्ते के राही हैं। बंगाल में ममता के खिलाफ जो सज्जन बीजेपी के हमले की अगुआई कर रहे हैं वह टीएमसी में ही थे और उन पर भ्रष्टाचार के तमाम आरोप थे। और अब वह टीएमसी के कथित भ्रष्टाचार के खिलाफ बीजेपी के नायक की भूमिका में हैं। साउथ में इस तरह के ढेर सारे उदाहरण मिल जाएंगे। वहां तो बीजेपी दूसरों की ही बैसाखी पर आगे बढ़ने का मन बना चुकी है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे बोम्मई किसी दौर में जनता दल के कद्दावर नेता रहे एसआर बोम्मई के बेटे हैं। आंध्रा की बीजेपी अध्यक्ष बनायी गयीं डी पुरंदेश्वरी खुद टीडीपी से आयी हैं और एनटी रामाराव की बेटी हैं।

हद तो तब हो गयी जब मध्य प्रदेश में पीएम मोदी ने खुले मंच से अजित पवार के भ्रष्टाचार का हवाला देकर उन पर हमला बोला और दो दिन बाद उन्हें उप मुख्यमंत्री बनाकर अपने खेमे में शामिल कर लिया। वाशिंग मशीन भी कपड़े धोने में कुछ समय लेती है लेकिन बीजेपी तो उससे भी ज्यादा तेज निकली। पांच रुपये की पर्ची कटते ही बंदा भ्रष्टाचार शिरोमणि से ईमानदारी का पुतला बन जाता है। और भक्त उसे बगैर कोई ना-नुकुर किए खुले दिल से स्वीकार कर लेते हैं। 

कोई पूछ सकता है कि आखिर भक्तों की इस आसान स्वीकारोक्ति की वजह क्या है? दरअसल भक्तों का दिमाग किसी कीचड़ से कम नहीं होता है। उनमें सांप्रदायिकता के सहारे नफरत और घृणा का ऐसा घोल भर दिया गया है जिसमें इस तरह के भ्रष्टाचार, बलात्कार समेत दूसरे पतनशील मामले बहुत छोटे लगने लगते हैं। या कहिए वो उसी में पगे रहते हैं। और उसे अलग तरह से नहीं बल्कि उसी के अभिन्न हिस्से के तौर पर देखते हैं। सांप्रदायिकता का विचार सिर्फ मुस्लिम विरोध तक नहीं जाता है। बल्कि वह हिंदू धर्म की हर जहालत को आदर्श के तौर पर देखने लगता है। और उसका कट्टर समर्थक बन जाता है। जहां बराबरी के लिए कोई स्थान नहीं है। वहां व्यवस्था के तौर पर राजशाही आदर्श होगी न कि लोकतंत्र। समाज में महिलाओं का दोयम दर्जा उसकी जेहनियत का हिस्सा होगा।

जातीय विभाजन और उसमें जातियों का श्रेणीबद्ध स्थान उसके चिंतन का स्थाई भाव होगा। और सामाजिक दबाव कहिए या फिर आधुनिक विचारों के साथ साम्य स्थापित करने का डर बाहर से वह छुआछूत का विरोधी भले होगा लेकिन व्यवहारिक तौर पर उसका समर्थक। चीजों को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर कसने की जगह भक्ति, आस्था और हर तरीके के पोंगापंथ के जरिये उनको हल करने की कोशिश उसका प्रस्थान बिंदु होगा। ये सारी चीजें मिलकर एक ऐसा इंसान तैयार करती हैं जिसका दिमाग हद दर्जे का पिछड़ा और चेतना के स्तर पर पाताल की तलहटी से मुकाबला कर रहा होता है। ऐसे में उसमें हर तरह के गलीचपन को आसानी से ग्राह्य करने की क्षमता होती है। और इस तरह से प्रतिरोध का पक्ष उसमें खत्म होता जाता है। और एक दौर के बाद वह आदेश मानने वाला रोबोट बन कर रह जाता है। भक्ति की यह यात्रा इंसान को इंसान नहीं रहने देती और उसके स्वतंत्र अस्तित्व को भी खत्म कर देती है।  

(महेंद्र मिश्र जनचौक के फाउंडिंग एडिटर हैं।)

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